कबीर शब्द
शब्द-1
आपन करम न मेटो जाई।
कर्म का लिखा मिटै धौं कैसे, जो जुग कोटि सिराई।
गुरु बसिष्ठ मिलि लगन सोधाई, सुरज मंत्र इक दीन्हा।
जो सीता रघुनाथ विहाही, पल एक सच न कीन्हा।
तीन लोक के कर्ता कहिए, बालि बधो बरियाई।
एक समय ऐसी बनि आई, उनहूं औसर पाई।
नारद मुनि को बदन छिपायो, कीन्हो कपि को सरूपा।
सिसुपाल की भुजा उपारिन, आप भये हरि ठूंठा।
पारबती को बांझ न कहिये, ईस न कहिये भिखारी।
कहैं कबीर करता की बातें, करम की बात निनारी।
शब्द-2
आब वे आब मुझे हरि को नाम, और सकल तजु कौने काम।
कहां तब आदम कहां तब हव्वा, कहां तब पीर पैगम्बर हुवा।
कहां तब जिमीं कहां असमान, कहां तब वेद कितेब कुरान।
जिन दुनिया में रची मसीद, झूठा रोजा झूठी ईद।
सांचा एक अलह का नाम, जाको नै नै करहु सलाम।
कहु धौं भिस्त कहां ते आई, किसके कहे तुम छुरी चलाई।
करता किरतम बाजी लाई, हिन्दू तुरुक की राह चलाई।
कहां तब दिवस कहां तब राती, कहां तब किरतम की उतपाती।
नहिं वाके जाति नहीं वाके पांती, कहैं कबीर वाके दिवस न राती।
शब्द-3
अब कहँ चलेउ अकेले मीता, उठहुन करहु घरहु की चिंता।
खीर खांड घृत पिंड संवारा, सो तन लै बाहर करि डारा।
जो सिर रचि रचि बांध्यो पागा, सो सिर रतन बिडारत कागा।
हाड़ जरै जस जंगल लकड़ी, केस जरै जस तृन की कूरी।
आवत संग न जात संघाती, काह भये दल बांधल हाथी।
माया के रस लेन न पाया, अंतर जम बिलारि होय धाया।
कहैं कबीर नर अजहुं न जागा, जम का मुगदर मांझ सिर लागा।
शब्द-4
अब मन जागर रह रे भाई।
गाफिल होई कै जनमु गंवायौ, चोर मुसै घरू जाई।
षट चक्र की कीन्ह कोठरी, बस्तु अनूप बिच पाई।
कुंजी कुलफ प्रान करि राखे, उघरत बार न लाई।
पंच पहरुआ दर महिं रहते, तिनका नहीं पति आरा।
चेत सुचेत चित्त होइ रहहु, तौ लै परगसु उजारा।
नौ घर देखि जु कामिनि भूली, बस्तु अनूनु न पाई।
कहत कबीर नवै घरु मूसे, दसवैं तत्त समाई।
शब्द-5
अब हम जानिया हो, हरि बाजी का खेल।
डंक बजाय देखाय तमासा, बहुरि सो लेत सकेल।
हरि बाजी सुरनर मुनि जहंडे, माया चाटक लाया।
घर में डारिं सकल भरमाया, हृदय ग्यांन न आया।
बाजी झूठ बाजीगर साचा, साधुन की मति ऐसी।
कहैं कबीर जिन जैसी समुझी, ताकी मति भई तैसी।
शब्द-6
अवधू वैतत रावल राता, नाचै बाजन बाजु बराता।
मौर के माथे दुलहा दीन्हा, अकथ जोरि कहाता।
मड़ए के चारन समधी दीन्हा, पुत्र बिबाहल माता।
दुलहिन लीपि चौक बैठारे, निरभय पद परगाता।
भातै उलटि बरातै खायो, भली बनी कुसलाता।
पानीग्रहन भयो भव मंडन, सुखमनि सुरति समानी।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, बूझौ पंडित ज्ञानी।
शब्द-7
अबिनासी दुलहा कब मिलिहौं, सभी संतन के प्रतिपाल।
जल उपजी जल ही सो नेहा, रटत पियास पियास।
मैं बिरहिनि ठाढ़ी मग जोउं, राम तुम्हारी आस।
छाड़्यौ गेह नेह लगि तुमसे, भई चरन लौलींन।
तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिनु मींन।
दिवस न भूख रैंनि नहिं निद्रा, घर अंगना न सुहाइ।
सेजरिया बैरिनि भई मोको, जागत रैनि बिहाइ।
मैं तो तुम्हारी दासी हौ सजनां, तुम हमरै भरतार।
दीन दयाल दया करि आवौ, समरथ सिरजनहार।
कै हम प्रान तजत हैं प्यारे, कै अपनी करि लेहु।
दास कबीर बिरह अति बाढ़्यौ, अब तो दरसन देहु।
शब्द-8
ऐसो हरि सो जगत लरतु है, पांडर कतहूं गरुड़ धरतु है।
मूस बिलाई कैस न हेतू, जंबुक करै केहरि सों खेतू।
अचरज एक देखल संसारा, सोनहा खेदे कुंजर असवारा।
कहै कबीर सुनहु हो संतो, इहै संधि केहु बिरलै बूझै।
शब्द-9
पंडित देखहु हृदय विचारी, को पुरुषा को नारी।
सहज समाना घट घट बोलै, वाको चरित अनूपा।
वाको नाम काह कहि लीजै, न वाके बरन न रूपा।
तै मैं काह करसि नर बौरे, क्या तेरा क्या मेरा।
राम खोदाय सक्ति सिव एकै, कह धौं काहि निहोरा।
बेद पुरान कितेब कुराना, नाना भांति बखाना।
हिन्दू तुरक जैन औ जोगी, ये कल काहु न जाना।
छौ दरसन महं जो परमाना, तासु नाम मन माना।
कहैं कबीर हमहीं पै बौरे, ये सब खलक सयाना।
शब्द-10
जोलहा बीनहु हो हरिनामा, जाके सुर नर मुनि धरै ध्याना।
ताना तनै को अहुठा लीन्हा, चरखी चारो वेदा।
सर खूटी एक राम नरायन, पूरन प्रगटे भेदा।
भवसागर एक कठवत कीन्हा, तामें मांड़ी साना।
मांडो का तन माड़ि रहो है, माड़ी बिरलै जाना।
चांद सुरुज दुइ गोड़ा कीन्हा, मांझदीप मांझा कीन्हा।
त्रिभुवननाथ जो मांजन लागे, स्याम मरोरिया दीन्हा।
पाई करि जब भरना लीन्हो बै बांधन को रामा।
बै भरा तिहु लोकहि बांधे, कोइ न रहत उबाना।
तीनि लोक एक करिगह कीन्हो, दिनमग कीन्हों ताना।
आदि पुरुष बैठावन बैठे, कबिरा जोति समाना।
शब्द-11
ऐसे मन लाई रे राम रसनां, कपट भगति कीजै कौन गुना।
ज्यूं मृग नादैं बेध्यो जाई, पिंड परे वाकौ ध्यान न जाइ।
ज्यूं जल मीन हेत करि जानि, प्राण तजै बिसरै नहिं बांनि।
भृंग कीट रहै ल्यौ लाई, ह्वै लौलीन भृंग ह्वै जाइ।
राम नाम निज अमृत सार, सुमिरि सुमिरि जन उतरे पार।
कहै कबीर दासनि को दास, अब नहीं छाड़ौं हरि के चरन निवास।
शब्द-12
अब हम भयल बहुरि जलमीना, पुरब जनम तप का मद कीन्हा।
तब मैं अछलों मन वरागी, तजलों मैं कुटुम राम रट लागी।
तजलों मैं कासी मति भई भोरी, प्राननाथ कहु का गति मोरी।
हमहि कुसेवक तुमहि अयाना, दुइमा दोष काहि भगवाना।
हम चलि अइलीं, तुम्हरे सरना, कतहुं न देखौं हरि जी के चरना।
हम चलि अइलीं तुम्हरे पासा, दास कबीर भल कीन्ह निरासा।
शब्द-13
आपुनपौ आपुहि बिसरायो।
जैसे सुनहा कांच मंदिर में, भर्मित भूंकि मरयो।
ज्यों केहरि बपु निरखि कूप जल, प्रतिमा देखि परयो।
वैसहि गज फटिक सिला में, दसनन आनि अरयो।
मरकट मूंठि स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरयो।
कहै कबीर ललनी के सुवना, तोहि कौन पकरयो।
शब्द-14
कहु रे मुल्ला बांग निवाजा।
एक मसीति दसो दरवाजा।।टेक।।
मनु करि मका किबला करि देही, बोलनहारु परम गुर एही।
बिसमिल तांमसु भरम कंदूरी, भखि लै पंचै होइ सबूरी।
कहै कबीर मैं भया दिवाना, मुसि मुसि मनुवा सहजि समाना।
शब्द-15
इह जिउ राम नाम लौ लागै, तो जरा मरन छूटै भ्रम भागै।
अगम द्रुगम गढ़ि रचिऔ बास, जामहि जोति करै परगास।
बिजुली चमकै होई अनंद, तंह पउढ़े प्रभु बालगोविंद।
अबरन बरन स्यांम नहिं पीत, हाहू जाड़ न गावै गीत।
अनहद सबद होत झनकार, तंह पउढ़े प्रभु श्री गोपाल।
अखंड मंडल मंडित मंड, त्री असनांन करै त्री खंड।
अगम अगोचर अभिअंतरा, ताकौ पार न पावै धरनीधरा।
कदली पुहुप दीप परकास, हिरदा पंकज महि लिया निवास।
द्वादस दल अभिअंतर मंत, जहां पउढ़े श्री कंवलाकंत।
अरध उरध बिच लाइले अकास, सुन्नि मंडल महिं करि परगास।
ऊहां सूरज नांहीं चंद, आदि निरंजन करै अनंद।
जो ब्रह्मांंडि पिंडि सो जानु, मानसरोबरि करि असनांनु।
सोहं हंसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्नि अरु पाप।
अबरन बरन घांम नहिं छांहां, दिवस न राति कछू है तहां।
टारयो टरै न आवै जाइ, सहज सुन्नि महिं रह्मौ समाइ।
मन मद्धे जांनैं जे कोइ, जो बोले सो आपै होइ।
जोति मांहि मन असथिरु करै, कहै कबीर सो प्रानीं तरै।
शब्द-16
अवधु कुदरति की गति न्यारी।
रंक निवाज करै वै राजा, भूपति करै भिखारी।
यातै लोग हरफना लागै, चंदन फूलन फूलै।
मच्छ सिकारी रमै जंगल में, सिंघ समुन्दरहि झूलै।
रेंड रूख भये मलयागिरि, चहुं दिसि फूटी बासा।
तीनि लोक ब्रह्माण्ड खण्ड में, अंधरा देख तमासा।
पंगुला मेर सुमेर उलंघै, त्रिभुवन मुकता डोलै।
गूंगा ग्यान बिग्यान प्रकासै, अदहद बांनी बोले।
बांधि अकास पतालि पठावै, सेस सरग पर राजै।
कहै कबीर राम हैं राजा, जो कछु करैं सो छाजै।
शब्द-17
अवधू छाड़हू मन विस्तारा।
सो पद गहो जाहिते सदगति, पारब्रह्म सो न्यारा।
नहीं महादेव नहीं मोहम्मद, हरि हजरत तब नाहीं।
आदम ब्रह्मा कछु नहिं होते, नहीं धूप नहिं छांही।
असी सहस पैगम्बर नाहीं, सहस उठासी मूनी।
सूर्य चन्द्र तारागन नाहीं, मच्छ कच्छ नहिं दूनी।
बेद कितेब सुम्रिति नहिं संजम, जीव नहीं परछाई।
बंग निमाज कलिमा नहिं होते, रामहु नाहिं खोदाई।
आदि अन्त मन मध्य न होते, आतस पवन न पानी।
लख चौरासी जीव जंतु नहिं, साखी सबद न बानी।
कहैं कबीर सुनो रे अवधू, आगे करहु बिचारा।
पूरन ब्रह्म कहां ते प्रगटे, किरतम किन उपचारा।
शब्द-18
आसन पवन दूरि करि रउरा, छाड़ि कपट नित हरि भजि बौरा।
का सींगों मुद्रा चमकाए, का विभूति सब अंग लगाए।
सो हिन्दू सो मूसलमान, जिसका दुरुस रहै ईमान।
सो जोगी जो धरै उनमनी ध्यान, सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्मग्यान।
कहै कबीर कछु आन न कीजै, राम नाम जपि लाहा लीजै।
शब्द-19
को न मुवा कहु पंडित जनां।
सो समुझाइ कहहु मोहि संना।।टेक।।
मूए ब्रह्मा बिस्नु महेसा, पारबती सुत मुए गनेसा।
मूए चंद मुए रबि सेसा, मुए हनुमत जिन्हि बांधल सेता।
मूए कृस्न मुए करतारा, एक न मुवा जो सिरजनहारा।
कहै कबीर मुवा नहिं सोई, जाकै आवागमन न होई।
शब्द-20
कबीरा कबसे भये वैरागी, तुम्हरी सुरति कहां को लागी।
नाथ जी हम तब के वैरागी, हमरि सुरति राम सौं लागी।
ब्रह्मांं नहीं जब टोपी दीन्हां, विष्णु नहीं जब टीका।
सिव सक्ती के जनमहुं नाहीं, जबै जोग हम सीखा।
सतजुग में हम पहिरि पांवरी, त्रेता झोरी डंडा।
द्वापर में हम अड़बंद पहिरा, कलउ फिरयौ नौ खंडा।
गुरु परताप साधु की संगति, जीति अमरगढ़ आया।
कहै कबीर सुनौ हो अवधू, मैं अभै निरंतर पाया।
शब्द-21
जियरा जाहुगे हम जांनी।
आवैगी कोई लहरि लोभ की, बूड़ैगा बिनु पानीं।।टेक।।
राज करंता राजा जाइगा, रूप दिपंती रांनीं।
जोग करंता जोगी जाइगा, कथा सुनंता ग्यांनी।
चंद जाइगा सूर जाइगा, कथा सुनंता ग्यांनी।
कहै कबीर तेरा संत न जाइगा, रांम भगति ठहरांनी।
शब्द-22
तन धरि सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो।
उदै अस्त की बात कहतु हौ, सबका किया बिबेका हो।टेक।।
घाटे बाटै सब जग दुखिया, क्या गिरही बैरागी हो।
सुकदेव अचारज दु:ख कै कारनि, गरभ सौं माया त्यागी हो।
जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दु:ख दूनां हो।
आसा त्रिसनां सब कौं ब्यापै, कोई महल न सूनां हो।
सांच कहौं तो कोई न मानै, झूठ कहा नहिं जाई हो।
ब्रह्मां बिस्नु महेसर दुखिया, जिन यहु राह चलाई हो।
अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी बिपरीती हो।
कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो।
शब्द-23
झूठे जनि पतियाहु हो, सुनु संत सुजाना।
तेरे घट में ही ठग पर हैं, मति खोवहु अपाना।
झूठहि की मंडान है, धरती असमाना।
दसहुं दिसा वाके फंद हैं, जिव घेरिन आना।
जोग जप तप संजमा, तीरथ व्रत दाना।
नौधा वेद कितेब है, झूठे का बाना।
काहु के बचनहि फुरे, काहू के करामाती।
मान बड़ाई ले रहे, हिन्दू तुरुक दोऊ जाती।।
बात ब्यौंतै असमान की, मुद्दति नियरानी।
बहुत खुदी दिल राखते, बूड़े बिन पानी।
कहैं कबीर कासों कहौं, सकलो जग अंधा।
सांचा सों भागा फिरै, झूठे का बंदा।
शब्द-24
काको रोवौं गेल बहुतेरा, बहुतक मुअल फिरल नहिं फेरा।
जब हम रोया तब तुम न संभारा, गर्भ बास की बात बिचारा।
अब तैं रोया क्या तैं पाया, केहि कारन तैं मोहि रोवाया।
कहैं कबीर सुनहु नर लोई, काल के बसि परै मति कोई।
शब्द-25
कबिरा तेरो घर कंदला में, मानु अहेरा खेलै।
बफुवारी आनंद मृगा, रुचि रुचि सर मेलै।
चेतत रावल पावन खेड़ा, सहजै मूलहि बांधै।
ध्यान धनुष धरि ज्ञान बान करि, जोगेश्वर सर साधै।
षट चक्र बेधि कमल बेधि, जाय उजियारो कीन्हा।
काम क्रोध मद लोभ मोह को, हांकि के सावज दीन्हा।
गगन मध्ये रोकिनि द्वारा, जहां दिवस नहिं राती।
दास कबीरा जाय पहूंचे, बिछुरे संग औ साथी।
शब्द-26
कैसे तरो नाथ कैसे तरो, अब बहु कुटिल भरो।
कैसी तेरी सेवा पूजा, कैसो तेरो ध्यान।
ऊपर उजर देखो, बग अनुमान।
भाव तो भुवंग देखो, अति बिबिचारी।
सुरति सचान तेरी, मति तौ मंजारी।
अति रे बिरोधी देखो, अति रे सयाना।
छव दरसन देखो, भेष लपटाना।
कहैं कबीर सुनो नर बन्दा।
डाइनि डिंभ सकल जग खंदा।
शब्द-27
ऐसी नगरिया मैं केहि बिधि रहनां। नित उठि कलंक लगावै सहनां।
एकै कुवां पांच पनिहारी। एकै लेजु भर नौ नारी।
फटि गया कुवां बिनसि गई बारी। बिलग भई पांचौ पनिहारी।
कहै कबीर छांडि मैं मेरा। उठि गया हाकिम लुटि गया डेरा।
शब्द-28
ऐसो जोगिया है बदकर्मी, जाके गगन अकाश न धरनी।
हाथ न वाके पांव न वाके, रूप न वाके रेखा।
बिना हाट हटवाई लावै, करै बयाई लेखा।
करम न वाके, धरम न वाके, जोग न वाके जुक्ति।
सींगी पात्र कछु नहीं वाके, काहे को मांगै भुक्ति।
मैं तोहि जाना, तैं मोहि जाना, मैं तोहि मांह समाना।
उतपति परलय किछवौ न होते, तब कहु कौन ब्रह्म को ध्याना।
जोगिया ने एक ठाठ कियो है, राम रहा भरपूरी।
औषध मूल कछु नहिं वाके, राम सजीवन मरी।
नटवर बाजी पेखनि पेखै, बाजीगर की बाजी।
कहै कबीर सुनौ हो संतो, भई सो राज बिराजी।
शब्द-29
चतुराई न चतुरभुज पइऐ।
तब लगि मन माधौ न लगइऐ।।टेक।।
क्या जपु क्या तपु क्या ब्रत पूजा, जाकै हदै भाव है दूजा।
परिहरु लोभ अरु लोकाचारु, परिहरु काम, क्रोध, हंकारु।
करम करत बंधे अहंमेउ, मिलि पाथर की करहीं सेउ।
कहै कबीर जौ रहै सुभाइ, भोरै भाइ मिलै रघुराई।।
शब्द-30
साधौ बाघिनि खाइ गई लोई।
खाता जांन न कोई।।टेक।।
काजल टीकि चसम मटकावै, कसि कसि बांधै गाढ़ी।
लुभुकी लुभुकि चरै अभिअंतर, खात करेजा काढ़ी।
कान गहि काजी नाक गहि मुल्ला, पंडित कै आंखी फोरी।
सींगी रिखि औ गुर कनफूका, बाघिनि सभै मरोरी।
अर इन्द्रादिक बर ब्रह्मादिक, ते बाघिनि धरि खाया।
गिरि गोबर्धन नख पर राख्यौ, ते बाघिनि मुख आया।
उतपति परलै जनी बघिनिया, सतगुर एह बिचारी।
कहै कबीर सुनौं भाई साधौ, हमसूं बाघिनि न्यारी।
शब्द-31
जस मांसु पसु की तस मांसु नर की, रुधिर रुधिर एक सारा जी।
पसु के मांसु भखै सब कोई, नरहि न भखे सियारा जी।
ब्रह्म कुलाल मेदिनी भइया, उपजि बिनसि कित गइया जी।
मासु मछरिया तब तम खइयो, जो खेतन में बोइया जी।
माटी के करि देवी देवा, काटि काटि जिव देइया जी।
जो तोहरी है सांची देवी, खेत चरत क्यों न लेइया जी।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, राम नाम नित लेइया जी।
जो कछु किएउ जिभ्या के स्वारथ, बदला पराया देइया जी।।
शब्द-32
जोगिया फिरि गयौ गगन मंझारी।
रह्यौ समाइ पंच तजि नारी।।टेक।।
गयौ दिसावरि कौन बतावै, जोगिया बहुरि गुफा नहिं आवै।
जरि गौ कंथा धजा गयौ टूटी, भजि गौ डंड खपर गयौ फूटी।
कहै कबीर जोगी जुगुति कमाई, गगन गया सो आवै न जाई।
शब्द-33
संतो मते मातु जन रंगी।
पियत पियाला प्रेम सुधारस, मतवाले सतसंगी।
अरध उरधे ले भट्ठी रोपिनि, ब्रह्म अगिनि परजारी।
मूंदे मदन काटि कर्म कस्मल, संतत चुवत अगारी।
गोरखदत्त वसिष्ट व्यास कपि, नारद सुक मुनि जोरी।
बैठे सभा संभु सनकादिक, तहं फिरे अधर कटोरी।
अंबरीख औ जाग जनक जड़, सेख सहस मुख फाना।
कहं लौं गनौं अनंत कोटि लौं, अमहल महल दिवाना।
धव प्रहलाद बिभीखन माते, माती सेवरी नारी।
निर्गुन ब्रह्म माते बिन्द्राबन, अजहूं लागि खुमारी।
सुर नर मुनि यति पीर औलिया, जिन रे पिया तिन्ह जाना।
कहहिं कबीर गूंगे की सक्कर, क्यों करि करै बखाना।।
शब्द-34
कबिरा तेरा घर कंदला में, यह जग रहत भुलाना।
गुरु की कही करत नहिं कोई, अमहल महल दिवाना।
सकल ब्रह्म मंह हंस कबीरा, कागा चोंच पसारा।
मनमथ कर्म धरै सब देही, नाद बिंदु बिस्तारा।
सकल कबीरा बोलै बानी, पानी में घर छाया।
होत अनंत लूट घट भीतर, घट का मर्म न पाया।
कामिनि रूपी सकल कबीरा, मृगा चरिन्दा होई।
बड़ बड़ ज्ञानी मुनिवर थाके, पकरि सकै नहिं कोई।
ब्रह्मा बरुन कुबेर पुरन्दर, पीपा औ प्रहलादा।
हिरनाकुस नख उदर बिदारा, तिनहुं को काल न राखा।
गारख ऐसे दत्त दिगम्बर, नामदेव जयदेव दासा।
तिनकी खबर कहत नहिं कोई, कहां कियो है बासा।
चौपर खेल होत घट भीतर, जनम का पासा डारा।
इम दम की कोई खबर न जानै, करि न सकै निरुआरा।
चादि दग महि मंडल रचो है, रूम साम बिच झिल्ली।
तेहि ऊपर कछु अजब तमासा, मारो है जम किल्ली।
सकल अवतार जाके महि मंडल, अनंत खड़ा कर जोरो।
अद्भुत अगम अगाह रचौ है, ई सब सोभा तोरे।
सकल कबीरा बोलै बीरा, अजहुं हो हुसियारा।
कहैं कबीरा गुरु सिकली दर्पन, हरदम करहु पुकारा।
शब्द-35
साधौ सो जन उतरे पारा।
जिन मत तैं आपा डारा।।टेक।।
कोई कहै मैं ग्यानी रे भाई, कोई कहै मैं त्यागी।
कोई कहै मैं इन्द्री जीती, अहं सभनि को लागी।
कोई कहै मैं जोगी रे भाई, कोई कहै मैं भोगी।
मैं तें आपा दूरि न डारा, कैसे जीवै रोगी।
कोई कहै मैं दाता रे भाई, कोई कहै मैं तपसी।
निज तत नांउं निहचै नहिं जानां, सब माया मैं खपसी।
कोई कहै मैं जगती जानौं, कोई कहै मैं रहनी।
आतम देव सौं परचा नांहीं, यह सब झूठी कहानी।
कोई कहै धरम सब साधे, और बरत सब कीन्हा।
आपा कौ आंटी नहिं निकसी, करज बहुत सिरि लीन्हा।
गरब गुमांना सब दुरि निवारै, करनी को बल नाहीं।
कहै कबीर साहेब का बंदा, पहुंचा हरिपद मांही।
शब्द-36
गुर बिन दाता कोई नहीं, जग मांगनहारा।
तीनि लोक ब्रह्मांड मैं, सब के भरतारा।।टेक।।
अपराधी तीरथ चले, तीरथ कहां तारै।
काम क्रोध मल भरि रहे, कहा देह पखारै।
कागद की नौका बनी, बिचि लोहा भारा।
सबद भेद बूझे बिनां, बूड़ै मझधारा।
कहै कबीर भूलौ कहा, कहां ढूंढ़त डोलै।
बिन सतगुर नहिं पाइए, घट ही में बोलै।
शब्द-37
उलटि पाछिलो पैंड़ा पकड़ो, पसरा मना बटोर।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, तब पैहो निज ठौर।
शब्द-38
मैं कासे कहौं को सुने को पतिआय, फुलवा के छुअत भंवर मरि जाय।
गगन मंडल मंह फुल एक फूला, तर भौ डार उपर भौ मूला।
जोतिये न बोइये सिंचिये न सोई, डार पात बिनु फुल एक होई।
फुल भल फुलल मलिनि भल गांथल, फुलवा बिनसि गो भवंर निरासल।
कहै कबीर सुनो संतो भाई, पंडित जन फुल रहल लोभाई।
शब्द-39
खसम बिनु तेली को बैल भयो।
बैठत नांहि साधु की संगति, नाधे जनम गयो।
बहि बहि मरहु पचहु निज स्वारथ, जम कौ दंड सह्यो।
धन दारा सुत राज काज हित, माथे भार गह्यो।
खसमहि छांड़ि विषय रंग राते, पाप के बीज बोयो।
झूठि मुक्ति नर आस जिवन की उन प्रेत को जूठ खायो।
लख चौरासी जीव जन्तु में, सायर जात बह्यो।
कहैं कबीर सुनहु हो संतो, उन स्वान की पूंछ गह्यो।
शब्द-40
कोई राम रसिक रस पियहुगे, पियहुगे युग जियहुगे।
फल अलंकृत बीज नहिं बोकला, शुक पंछी रस खायो।
चुवै न बूंद अंग नहिं भीजै, दास भंवर सब संग लायो।
निगम रिसाल चारि फल लागे, तामे तीन समाई।
एक दूरि चाहै सब कोई, जतन जतन कहु बिरले पाई।
गए बसंत ग्रीसम रितु आई, बहुरि न तरुवर तर आवै।
कहै कबीर स्वामी सुख सागर, राम मगन होय सो पावै।
शब्द-41
पिया मोरा मिलिया सत्त गियांनी।
सब मैं व्यापक सबकी जांनै, ऐसा अन्तरजामी।
सहज सिंगार प्रेम का चोला, सुरति निरति भरि आनी।
सील संतोख पहिरि दोइ कंगन, होइ रही मगन दीवांनी।
कुमति जराइ करौं मैं काजर, पढ़ी प्रेम रस बांनी।
ऐसा पिय हमं कबहु न देखा, सूरति देखि लुभांनी।
कहै कबीर मिला गुर पूरा, तन की तपनि बुझांनी।।
शब्द-42
अवधू जांनि राखि मन ठाहरि।
जो कछू खोजौ सो तुमहीं माहिं, काहै को भरमैं बाहरि।
घट ही भीतरि बनखंड गिरिवर, घट की सात समुंदा।
घट ही भीतरि तारा मंडल, घट भीतरि रवि चंदा।
ममता मेटि सांच करि मुद्रा, आसन सील दिढ़ कीजै।
अनहद सबद कींगरी बाज, ता जोगी चित दीजै।
सत करि खपर क्षिमा करि झोरी, ग्यांन बिभूति चढ़ाई।
उलटा पवन जटा धरि जोगी, सींगी सुरति बजाई।
नाटक चेटक भरौं कलेवा, इनमैं जोग न होई।
कहै कबीर रमता सो रमना, देही बादि न खोई।
शब्द-43
गुणां का भेद न्यारौ न्यारौ।
कोई जानैं जाननहारी।।टेक।।
सोइ गजराज राजकुल मंडन, जोके मस्तिक मोती।
और सकल ए भार लदाऊ, महिषी सुत कै गोती।
सोई भुवंग जाकै मस्तिक मनि है, जोति उजाले खेलै।
और सबै सावन के भुवगा, जगत पगां तलि पेलै।
सोई सुमेर उदात उजागर, जाम धातु निवासा।
और सकल पाखंन बराबरि, टांकी अगिनि प्रकासा।
सोइ तिरिया जाकै पतिव्रत, आग्यांकार न लोपै।
और सकल ए कूकरि सूकरि, सुंदरि नांउं न ओपै।
कहै कबीर सोई जन गरुवा, राम भगति ब्रतधारी।
और सकल ए पेट भरन कौ, बहुबिधि बाना धारी।
शब्द-44
है साधू संसार मैं कंवला जल मांही।
सदा सरबदा संगि रहैं जल परसत नांही।।टेक।।
जल केरी ज्यौं कुकुही जल मांहि रहाई।
पांनी पंख लिपै नहीं कछु असर न जाई।
मींन तलै जल ऊपरै कछु न लगै न भारा।
आड़ अटक मांनै नहीं पौंड़े जलधारा।
जैसे सीप समंद मैं चित देइ अकासा।
कूर्म कला है खेलही तस साहेब दासा।
जुगति जंबूरै पाइया बिसहर लपटाई।
वाकौ बिख व्यापै नहीं गरगंमि सो पाई।
षड रस भोजन बिंजना बहु पाक मिठाई।
जिभ्या लेस लगै नहीं उनकै चिकनाई।
बांबी मैं बिसहर बसै कोई पकरि न पावै।
कहै कबीर कोइ गारड़ तापैं सहजैं आवै।
शब्द-45
कहहु निरंजन कौने बानी।
हाथ पांव मुख स्रवन जिभ्या बिनु, का कहि जपहु हो प्रानी।
ज्योतिहि ज्योति ज्योति जो कहिए, ज्योति कवन सहिदानी।
ज्योतिहि ज्योति ज्योति दै मारै, तब कहु कहां ज्योति समानी।
चारि बेद ब्रह्मौ जो कहिया, तिनहुं न या गति जानी।
कहै कबीर सुनो हो संतो, बूझो पंडित ज्ञानी।
शब्द-46
चातक कहां पुकारै दूरी, सो जल जगत रहा भरपूरी।
जेहि जल नाद विंदु को भेदा, षट कर्म सहित उपानेउ बेदा।
जेहि जल जीव सीव को बासा, सो जल धरती अमर परगासा।
जेहि जल उपजल सकल सरीरा, सो जल भेद न जानु कबीरा।
शब्द-47
रस गगन गुफा मैं अजर झरै।
अजपा सुमिरन जाप करै।।टेक।।
बिन बाजा झनकार उठै जहं समुझि परै जब ध्यान धरै।
बिनु चंदा उजियारी दरसै, जहं तहं हंसा नजरि परै।
काल कराल निकटि नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरै।।
जुगन-जुगन की त्रिखा बुझांनी, करम भरम अघ ब्याधि टरै।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, अमर होइ कबहूं न मरै।
शब्द-48
यह भ्रम भूत सकल जग खाया, जिन जिन पूजा तिन जहंड़ाया।
अंड न पिंड प्रान नहिं देही, कोटि कोटि जिव कौतुक देही।
बकरी मुर्गी कीन्हेउ छेवा, अगिले जनम उन औसर लेवा।
कहै कबीर सुनहु नर लोई, भुतवा के पूजे भुतवै होई।
शब्द-49
दरमांदा ठाढौ दरबारी।
तुम बिन सुरति करै को मेरी, दरसन दीजै खोलि किंवार।।टेक।।
तुम सम धनी उदार न कोऊ, स्त्रवनन सुनियत सुजस तुम्हार।
मांगौं काहि रंक सभ देखौं, तुम ही तैं मेरो निस्तार।
जैदउ नामा विप्र सुदामां, तिनकौं क्रिया भई है अपार।
कहै कबीर तुम समरथ दाता, चारि पदारथ देत न बार।
शब्द-50
तुम यहि बिधि समुझहु लोई, गोरी मुख मंदिर बाजै।
एक सगन षट चक्रहि बेधै, बिना वृषभ कोल्हू माचा।
ब्रह्महि पकरि अगिनि महं होमै, मच्छ गगन चढ़ि गाजा।
नित्त अमावस नित्त ग्रहन ह्वै, राहु ग्रासे नित दीजै।
सुरभी भच्छन करत वेद मुख, घन बरिसै तन छीजै।
त्रिकुटि कुंडल मधे मंदिर बाजै, औघट अंमर भीजै।
पुहुमी का पनिया अंमर भरिया, ई अचरज कोई बूझै।
कहहिं कबीर सुनो हो संतो, योगिन सिद्धि पियारी।
सदा रहे सुख संयम अपने, बसुधा आदि कुमारी।
शब्द-51
नर को ढाढ़स देखहु आई, कछु अकथ कथा है भाई।
सिंह सार्दुल एक हर जोतिन, सीकस बोइन धाना।
बन की भलुईया चाखुर फेरै, छागर भये किसाना।
कागा कापड़ धोवन लागे, बगुला क्रीपहि दांता।
मांखी मूड़ मुड़ावन लागी, हमहूं जाब बराता।
छेरी बाघहि ब्याह होत है, मंगल गावै गाई।
बन के रोझ धरि दाइज दीन्हो, गोह लोकन्धे जाई।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अर्थावै।
सोई पंडित सोई ज्ञाता, सोई भगत कहावै।
शब्द-52
जो चरखा जरि आय बढैया ना मरै।
मैं कातौं सूत हजार, चरखुला जिन जरै।।टेक।।
प्रथमहिं नगर पहुंचते परिगौ सोक संतपा।
एक अचंभौ देखिया बिटिया ब्याही बाप।
बाबुल मेरा ब्याह कराव बर ऊतिम लै आई।
जौ लौं अच्छा वर ना मिलै, तौ लौं तुमहि बिहाय।
प्रथमें नगर पहुंचते, परिगौ सो संताप।
एक अचम्भव हम देखा, जो बिटिया बयाहिल बाप।
समधी के घर लमधी आऐ, आए बहु के भय।
गोड़े चूल्हा दै दै, चरखा दियो दढ़ाय।
देव लोक मरि जाएंगे, एक न मरे बढ़ाय।
यह मनरंजन कारणे, चरखा दियो दढ़ाय।
जो यह चरखा लिखि परे, ताको आवागवन न हो।
शब्द-53
भूला बे अहमक नादाना, तुम हरदम रामहिं ना जाना।
बरबस आनि कै गाय पछारिन, गला काटि जिव आपु लिआ।
जियत जीव मुर्दा करि डारा, जिसको कहत हलाल हुआ।
जाहि मासु को पाक कहत हो, ताकी उतपति सुनु भाई।
रज बीरज सो मांस उपाने, मांस नपाक जो तुम खाई।
अपन दोस कहत नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया।
उसका खून तुम्हारी गर्दन, जिन्ह तुमको उपदेस दिया।
स्याही गई सपेदी आई, दिल सफेद अजहूं न हुआ।
रोजा बंग निमाज का कीजै, हुजरे भीतर पैठि मुआ।
पंडित बेद पुरान पढ़तु है, मुल्ला पढ़ै कुराना।
कहैं कबीर दोउ गए नरक महं, जिन्ह हरदम रामहि ना जाना।
शब्द-54
संतो देखत जग बौराना।
सांच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।टेक।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीतर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।
घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।
शब्द-55
नर को नहिं परतीति हमारी।
झूठा बनिज कियो झूठे सो, पूंजी सबन मिली हारी।
षट दरसन मिलि पंथ चलायो, तिरदेवा अधिकारी।
राजा देस बड़ो परपंची, रहयत रहत उजारी।
इतते उत उतते इत रहहीं, जम की सांड़ सवारी।
क्यों कपि डोरि बांधि बाजीगर, अपनी खुसी परारी।
इहै पेड़ उतपति परलय का, बिषया सबै विकारी।
जैसे स्वान अपावन राजी, त्यौं लागी संसारी।
कहैं कबीर यह अद्भुत ज्ञाना, को मानै बात हमारी।
अजहूं लेउं छुड़ाय काल सो, जो करै सुरति संभारी।
शब्द-56
मन तु नाहक दुंद मचाये।।टेक।।
कर अस्नान छूयो नहि काहू, पाती फूल चढाये।
मूरत से दुनिया फल मांगे, अपने हाथ बनाये।
यह जग पूजे देव देहरा, तीरथ वर्त अन्हाये।
चलत फिरत में पांव दुखित भये, यह दु:ख कहां समाये।
सांचे के संग सांच बसत है, झूठे मार हटाये।
कहै कबीर जहं सांच वस्तु है, सहज दर्शन पाये।।
शब्द-57
नाचु रे मेरो मन नट होई।।टेक।।
म्यांन कै ढोल बजाइ रैनि दिन, सबद सुनैं सब कोई।
राहु केतु अरु नवग्रह नाचैं, जमपुर आनंद होई।
छापा तिलक लगाइ बांस चढ़ि, होइ रहु जग तैं न्यारा।
प्रेम मगन होइ नाचु सभी मैं, रीझै सिरजनहारा।
जो तूं कूदि जाउ भवसागर, कला बदौं मैं तेरी।
कहै कबीर राजा रांम भजन सौं, नव निधि होइगी चेरी।
शब्द-58
ना हरि भजसि न आदति छूटी।
सब्दहिं समुझि सुधारत नाही, आंधर भए हियेहु की फूटी।
पानी मांहि पखान की रेखा, ठोंकत उठै भभूका।
सहस घड़ा नि उठि जल ढारै, फिर सूखे का सूखा।
सेतहि सेत सितंग भौ, सैन बाढ़ि अधिकाई।
जो सनिपात रोगिया मारै, सो साधुन सिधि पाई।
अनहद कहत कहत जग विनसै, अनहद सृष्टि समानी।
निकट पयाना जमपुर धावै, बोलै एकै बानी।
सतगुरु मिलै बहुत सुख लहिए, सतगुरु सब्द सुधारै।
कहैं कबीर ते सदा सुखी है, जो यह पदहिं बिचारैं।
शब्द-59
जारो जग का नेहरा, मन बौरा हो।
जामें सोग सन्ताप, समुझि मन बौरा हो।
तन धन से क्या गर्भ सी, मन बौरा हो।
भस्म कीन्ह जाके साज, समुझि मन बौरा हो।
बिना नेव का देव घरा, मन बौरा हो।
बिन कहगिल की ईंट, समुझि मन बौरा हो।
कालबूत की हस्तिनी, मन बौरा हो।
चित्र रचो जगदीश, समुझि मन बौरा हो।
काम अन्ध गज बशि परे, मन बौरा हो।
अंकुश सहियो सीस, समुझि मन बौरा हो।
मर्कट मूठी स्वाद की, मन बौरा हो।
लीन्हों भुजा पसारि, समुझि मन बौरा हो।
छूटन की संशय परी, मन बौरा हो।
घर-घर नाचेउ द्वार, समुझि मन बौरा हो।
ऊंच नीच समझेउ नहीं, मन बौरा हो।
घर घर खायो डांग, समुझि मन बौरा हो।
ज्यों सुवना ललनी गह्यो, मन बौरा हो।
ऐसो भरम विचार, समुझि मन बौरा हो।
पढ़े गुने क्या कीजिए, मन बौरा हो।
अन्त बिलैया खाय, समुझि मन बौरा हो।
सूने घर का पाहुना, मन बौरा हो।
नहाने को तीरथ घना, मन बौरा हो।
पुजबे को बहु देव, समुझि मन बौरा हो।
बिनु पानी नर बूड़हीं, मन बौरा हो।
तुम टेकेउ राम जहज, समुझि मन बौरा हो।
कहहिं कबीर जग भर्मिया, मन बौरा हो।
तुम छाड़हु हरि की सेव, समुझि मन बौरा हो।
शब्द-60
बाबा माया मोह मोहित कीन्हा।
तातैं ग्यांन रतनु हरि लीन्हा।।टेक।।
जगि जीवनु ऐसा सुपिनै जैसा, जीवन सुपिन समानं।
सांचु कहि हम गांठि दीन्हों, छोड़ि परम निधांन।
ज्योति देखि पतंग उरझौ, पसु न पेखै आगि।
काल फांस न मुगध चेतै, कनक कामिनि लागि।
करि बिचार बिकार परिहरि, तरन तारन सोई।
कहै कबीर भगवंत भजि नर, दुतिआ और नांहीं कोई।
शब्द-61
रामुरा झीं झीं जंतर बाजै, कर चरन बिहूना नाचै।
कर बिनु बाजै सुनै स्त्रवन बिनु, स्त्रवन सरोता सोई।
पाटन सुवस सभा बिनु अवसर, बूझहु मुनि जन लोई।
इन्द्री विनु भोग स्वाद जिभ्या बिनु, अक्षय पिंड बिहूना।
जागत चोर मंदिर तहं मूसै, खमस अछत घर सूना।
बीज बिनु अंकुर पेड़ बिनु तरवर, बिन फूले फल फरिया।
बांझ के कोख पुत्र अवतरिया, बिनु पग तरवर चढ़िया।
मसि बिनु द्वात कलम बिनु कागद, बिनु अक्षर सुधि होई।
सुधि बिनु सहज ज्ञान बिनु ज्ञाता, कहैं कबीर जन सोई।
शब्द-62
बूझहु पंडित करहु बिचारा, पुरुषा है की नारी।
ब्राह्मन के घर ब्राह्मनि होती, जोगी के घर चेली।
कलमा पढ़ि पढ़ि भई तुर्किनी, कलि मंह रहति अकेली।
बर नहिं बरै ब्याह नहिं करई, पूत जनवामन हारी।
कारे मूंड एक नहिं छाड़ै, अजहूं आदि कुमारी।
मैके रहै जाय नहिं ससुरे, सांई संग न सोवै।
कहहिं कबीर वे जुग जुग जीवैं, जाति पांति कुल खोवैं।।
शब्द-63
पांड़े बूझि पियहु तुम पानी।
जेहि मटिया के घर मंह बैठै, तामे सष्टि समानी।
छप्पन कोटि जादव जंह भीजे, मुनि जल सहस अठासी।
पैग पैग पैगम्बर गाड़े, सो सब सरि भोर माटी।
तेहि मटिया के भांड़े पाड़े, बूझि पियहु तुम पानी।
मच्छ कच्छ घरियार बियाने, रुधिर नीर जल भरिया।
नदिया नीर नरक बहि आवै, पसु मानुष सब सरिया।
हाड़ झरि झरि गूद गलीगल, दूध कहां ते आया।
सो लै पांडे जेंवन बैठे, मटियहि छूति लगाया।
बेद कितेब छांडि देहु पांडे, ई सब मन के भर्मा।
कहैं कबीर सुनो हो पांड़े, ई सब तुम्हरे कर्मा।
शब्द-64
पंडित एक अचरज बड़ होई।
एक मरे मुए अन्न नहिं खाई, एक मरै सीझै रसोई।
करि अस्नान देवन की पूजा, नवगुन कांध जनेऊ।
हंड़िया हाड़ हाड़ थारीया मुख, अब षट कर्म बनेऊ।
धरम करै जहां जीव बधै तहां, अकरम करे मोरे भाई।
जो तोहरा को ब्राह्मन कहिए, तो काको कहिए कसाई।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, भर्म भुली दुनियाई।
अपरमपार पार पुरुषोतम, या गति बिरलै पाई।
शब्द-65
वह बिरवा चीन्है जो कोई, जरा मरन रहित तन होई।
बिरवा एक सकल संसारा, पेड़ एक फूटल तिनि डारा।
मध्य कि डार चारि फल लागा, साखा पत्र गिनै को वाका।
बेलि एक त्रिभुवन लपटानी, बांधे ते छूटहिं नहिं ज्ञानी।
कहैं कबीर हम जात पुकारा, पंडित होय सो लेइ बिचारा।
शब्द-66
साधौ भगति भेख ते न्यारी।
मन पवनां पांचौं बसि कीया, तिन या राह संवारी।।टेक।।
काया कोट मैं अमर न रहनां, कागद का घर कीन्हां।
माला तिलक तिरयौ नहिं कोई, परम तत्त नहिं मुंड़ाया।
ऐसा भगत भया भू ऊपरि, गुरु पै राज छुड़ाया।
ग्रभबास मैं सुमिरन कीन्हां, सुखदेव कौंन सु माला।
कहै कबीर सब भेख भुलानां, मूल छाड़ि गहि डाला।
शब्द-67
पंडित देखहु मन में जानी।
कहु धौं छूति कहां से उपजी, तबहिं छूति तुम मानी।
नादे बिंदे रुधिर के संगे, घटही में घट सपचै।
अष्ट कमल होइ पुहमी आया, छूति कहां से उपजै।
लख चौरासी नाना वासन, सो सब सरि भौ माटी।
एकहि पाट सकल बैठाए, छूति लेत धौं काकी।
छूतिहि जेवन छूतिहि अंचवन, छूतिहि जगत उपजाया।
कहैं कबीर ते छूति विवरजित, जाके संग न माया।
शब्द-68
बाबू ऐसा है संसार तिहारो, ई है कलि ब्यौहारो।
को अब अनुख सहै प्रतिदिन को, नाहिन रहनि हमारो।
सुम्रिति सुहाय सबै कोइ जानै, हृदया तत्व न बूझै।
निरजिव आगे सरजिव थापै, लोचन कछू न सूझै।
तजि अमत बिख काहे को अंचवैं, गांठी बांधिन खोटा।
चोरन दीन्हा पाट सिंहासन, साहुन से भयो ओटा।
कहैं कबीर झूठे मिलि झूठा, ठगही ठग ब्यौहारा।
तीनि लोक भरपूर रहो है, नाहिन है पतियारा।
शब्द-69
देखि देखि जिय अचरज होई, यह पद बूझै बिरला कोई।
धरती उलटि अकासै जाई, चिउंटी के मुख हस्ति समाई।
बिना पवन जहं पर्वत उड़ै, जीव जंतु सब बिरछा चढ़ै।
सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल चकवा करत किलोरा।
बैठा पंडित पढ़ै पुरान, बिनु देखे का करत बखान।
कहैं कबीर जो पद को जान, सोई संत सदा परमान।
शब्द-70
फल मीठा पै तरवर ऊंचा, कौन जतन करि लीजै।
नेक निचोइ सुधा रस वाकौ, कौन जुगति सौं पीजै।।टेक।।
पेड़ विकट है महा सिलहला, अगह गहा नहिं जावै।
तन मन मेल्हि चढै सरधा सौं, तब वा फल कौं खावै।
बहुतक लोग चढ़े अनभेदू, देखा देखी गहि बांही।
रपटि गांव गिरि परे अधर तैं आइ परे भुई मांहीं।
सील सांच कै खूंटे धरि पग, ग्यांन गुरु गहि डोरा।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, तब वा फल कौं तोरा।
शब्द-71
बूझि लीजै ब्रह्म ज्ञानी।
घूरि घूरि बरखा बरसावै, परिया बूंद न पानी।
चिउंटी के पग हस्ती बांधे, छेरी बीग रखावै।
उदधि मांह ते निकरि छांछरी, चौड़े ग्रीह करावै।
मेढ़क सप रहत एक संगे, बिलैया स्वान बियाही।
नित उठि सिंह सियार सों डरपे, अद्भुत कथो न जाई।
संसय मिरगा तन बन घेरे, पारथ बाना मेलै।
उदधि भूप ते तरुवर डाहै, मच्छ अहेरा खेलै।
कहैं कबीर यह अद्भुत ज्ञाना, जो यहि ज्ञानहि बूझै।
बिनु पंखै उड़ि जाइ अकासै, जीवहिं मरन न सूझै।
शब्द-72
भाई रे गइया एक बिरचि दियो है, भार अभार भौ भाई।
नौ नारी को पानि पियतु है, तृखा न तेउ बुझाई।
कोठा बहत्तर औ लो लावै, बज्र केंवार लगाई।
खूंटा गाडि डोरि दढ़ बांधे, तइयो तोरि पराई।
चारि वृक्ष छव साखा वाके, पत्र अठारह भाई।
एतिक ले गम कीहिस गइया, गइया अति हरहाई।
ई सातो औरो हैं सातो, नौ औ चोदह भाई।
एतिक ले गइया खाय बढ़ायो, गइया तहुं न अघाई।
पुरता में राती है गइया, स्वेत सींग हैं भाई।
अबरन बरन कछु नहिं वाके, खाद्य अखाद्यै खाई।
ब्रह्मा विष्णु खोजि कै आए, सिव सनकादिक भाई।
सिद्ध अनंत वहि खोजि परे है, गइया किनहु न पाई।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अर्थावै।
जो यहि पद को गाय बिचारै, आगे होय निरवाहै।
शब्द-73
सार सबद गहि बांचिहौ, मांनौ इतबारा।
या संसार सभै बंधा, जम जाल पसारा।।टेक।।
अजर अमर एक बिरिछ, निरंजन डारा।
तिरदेवा साखा भए, पाती संसारा।
ब्रह्मां बेद सही किया, सिव जोग पसारा।
बिस्नु माया परगट किया, उरलै ब्यौहारा।
कीर भए सब जीयरा, लिए बिख कर चारा।
करम की पासी लाय कै, पकरयौ संसारा।
जोति सरूपी हाकिमा, जिन अमल पसारा।
तीनि लोक दसहूं दिसा जम रोकै द्वारा।
अमल मिटावौं तासु का पठवौं भव पारा।
कहै कबीर निरभय करौं जो होइ हमारा।
शब्द-74
पंडित सोधि कहहु समुझाई, जाते आवागमन नसाई।
अर्थ धर्म औ काम मोक्ष कहु, कवन दिसा बसे भाई।
उतर कि दच्छिन पुरूष कि पच्छिम, सरग पाताल कि मांही।
बिनु गोपाल ठौर नहिं कतहूं, नरक जात धौं कांही।
अनजाने को सरग नरक है, हरि जाने को नांही।
जेहि डर ते सब लोग डरत हैं, सो डर हमरे नांही।
पाप पुन्न की संका नाहीं, सरग नरक नहिं जाहीं।
कहै कबीर सुनो हो संतो, जहां का पद तहां समाही।
शब्द-75
बावरे तैं ग्यांन बिचारु न पाया।
बिरथा जनम गंवाया।।टेक
थाके नैन स्रवन सुनि थाके, थाकी सुन्दर काया।
जांमन मरनां ए दोइ थाके, एक न थाकी माया।
तब लगि प्रानीं तिसै सरेवहु, जब लगि घट मंहि सांसा।
भगति जाउ पर भाव न जइयौ, हरि के चरन निवासा।
जो जन जांनि भजहिं अबिगत कौं, तिनका कछु न नासा।
कहैं कबीर ते कबहूं न हारहिं, ढालि जु जानंहि पासा।
शब्द-76
राम भजा सोइ जीता जग मैं।
राम भजा सोइ जीता रे।।टेक।।
हाथ सुमिरनीं पेट कतरनी, पढ़ै भागवत गीता रे।
हिरदै सुद्ध किया नहिं बौरे, कहत सुनत दिन बीता रे।
आंन देव की पूजा कीन्हीं, हरि से रहा अमीता रे।
धन जोबन तेरा यहीं रहैगा, अंत समय चलि रीता रे।
बांवरिया बन मैं फंदा रोपै, संग मैं फिरै निचीता रे।
कहै कबीर काल यौं मारै, जैसे मिरगा कौ चीता रे।।
शब्द-77
राम जपत तनु जरि किन जाई।
राम नाम चितु रह्यौ समाई।।टेक।।
आपहिं पावक आपहिं पवना, जारै खसम त राखै कवनां।
काको जरै काहि होइ हांनि, नटबिधि खेलै सारंगपांनि।
कहै कबीर अक्खर दुइ भाखि, होइगा राम त लेइगा राखि।।
शब्द-78
पूजहु राम एक ही देवा।
सांचा न्हावन गुरु की सेवा।।टेक।।
अंतरि मैल ले तीरथ न्हावै, तिन बैकुण्ठ न जाना।
लोक पतीजैं कछू न होवै, नांही राम अयांना।
जल कै मज्जनि ते गति होवै, नित नित मेंडुक न्हावै।
जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर, फिरि फिरि जोनी आवैं।
हिरदै कठोर मरै बानारसि, नरकु न बांच्या जाई।
हरि का दास मरै जो मगहरि, तौ सगली सैंन तराई।
दिवस न रैनि बेदु नहिं सासत, तहां बसै निरंकारा।
कहै कबीर नर तिसहिं धियावहु, बावरिया संसारा।
शब्द-79
पंडित मिथ्या करहु बिचारा, ना वह सृष्टि न सिरजनहारा।
थूल अस्थूल पवन नहिं पावक, रबि ससि धरनि न नीरा।
जोति सरूप काल नहिं तहंवा, बचन न आहि सरीरा।
धर्म कर्म कछु नाहीं उहवां, ना वहां मंत्र न पूजा।
संजम सहित भाव नहिं उहवा, सो धौं एक कि दूजा।
गोरख राम एकौ नहिं उहवां, ना वहां बेद बिचारा।
हरि हर ब्रह्मा नहिं सिव सक्ती, तीर्थउ नाहिं अचारा।
माय बाप गुरु जाके नाहीं, सो धौं दूजा कि अकेला।
कहैं कबीर जो अब की बूझै, सोइ गुरु हम चेला।
शब्द-80
भाग जाकै संत पाहुनां आवैं।
द्वारै रचिहैं कथा कीरतन, हिलिमिलि मंगल गावैं।।टेक।।
भयौ लाभ चरनां अम्रित कौ, महाप्रसाद की आसा।
जाकौं जोग जग्गि तप कीजै, सो संतन के पासा।
जो प्रसाद देवन कौ दुरलभ, संत सदा ही पाहीं।
कहै कबीर हरि भगतबछल है, सो संतन के मांही।
शब्द-81
बुझ बुझ पंडित पद निरबान, सांझ परे कहवां बसे भान।
उंच निच परबत ढेला न ईट, बिनु गायन तहंवा उठे गीत।
ओस न प्यास मंदिर नहिं जंहवा, सहसौं धेनु दुहावैं तहंवा।
नित्त अमावस नित संक्रान्ति, नित नित नवग्रह बैठे पांति।
मैं तोहि पूछौं पंडित जना, हृदया ग्रहन लागु केहि खना।
कहैं कबीर इतनो नहिं जान, कवन सबद गुरु लागा कान।
शब्द-82
महिरो रे तन का ले करिहो, प्रान छुटे बाहर लै डरिहो।
काया बिगुरचनि अनबनि बाटी, कोई जारै कोई गाड़ै माटी।
हिन्दु जारैं तुरुक ले गाड़ैं, यहि विधि अंत दुनो घर छांडै।
करम फांस जम जाल पसारा, जस धीमर मछरि गहि मारा।
राम बिना नर होइहो कैसा, बाट मांझ गोबरौरा जैसा।
कहैं कबीर पीछे पछितैहो, या घर से जब वा घर जैहो।
शब्द-83
हो दारी के ले देउं तोहि गारी, तैं समुझु सुपंथ बिचारी।
घरहू के नाह जो अपना, तिनहू से भेंट न सपना।
ब्राह्मन छत्री बानी, तिनहू कहल नहिं मानी।
जोगी जंगम जेते, आपु गहे हैं तेते।
कहैं कबीर एक जोगी, वे तो भरमि भरमि भौ भोगी।
शब्द-84
बुझ बुझ पंडित बिरवा न होय, आधा बसे पुरुष आधा बसे जोय।
बिरवा एक सकल संसारा, स्वर्ग सीस जड़ गई पाताला।
बारह पखुरी चौबिस पाता, धन बरोह लागे चहुं पासा।
फूलै न फलै वाकी है बानी, रैनि दिवस विकार चुवै पानी।
कहैं कबीर कछु अछलो न तहिया, हरि बिरवा प्रतिपालि यो जहिया।।
शब्द-85
राम तेरी माया दुंद मचावै।
गति मति वाकी समुझि परै नहिं, सुर नर मुनिहिं नचावै।
का सेमर तेरी साखा बढ़ाए, फूल अनूपम मानी।
केतिक चातकी लागि रहै हैं, चाखत रुवा उड़ानी।
काह खजूर बड़ाई तेरी, फल कोई नहि पावै।
ग्रसिम ऋतु जब आइ तुलानी, छाया काम न आवै।
अपना चतुर और को सिखवै, कनक कामिनी स्यानी।
कहै कबीर सुनो हो संतो, रामचरन रति मानी।
शब्द-86
गुरु ने कहा भिक्षा लेकर आना।
पहली भिक्षा अन्न की लाना, गांव नगर के निकट न जाना।
मनुष्य स्त्रियां छोड़ के लाना, जाना झोली भर के लाना।
दूजी भिक्षा जल की लाना, कुआं बाबड़ी छोड़ के लाना।
तीजी भिक्षा लकड़ी की लाना, रूखे वृक्ष को नहीं सताना।
गीली सूखी छोड़ के लाना, लाना गट्ठड़ बांध के लाना।
चौथी भिक्षा मांस की लाना, जीव जंतु को नहीं सताना।
जिंदा मुर्दा छोड़ के लाना, लाना हाड़ी भर के लाना।
कहत कबीर सुनो भई साधो, यह पर है निरवाना।
जो कोई इसका अर्थ लगावे, वही संत है सयाना।
शब्द-87
भाई रे अद्भुत रूप अनूप कथो है, कहौं तो को पतियाई।
जहं यह देखौं तहं तहं सोई, सब घट रहा समाई।
लछि बिनु सुख दरिद्र बिनु दुख है, नींद बिना सुख सोवै।
जस बिनु ज्योति रूप बिनु आसिक, रत्न बिहुना रोवै।
भ्रम बिनु गंजन मनि बिनु निरखन, रूप बिना बहु रूपा।
थिति बिनु सुरति रहस बिनु आनंद, ऐसो चरित अनूपा।
कहहिं कबीर जगत हरि मानिक, देखहु चित अनुमानी।
परिहरि लाभै लोभ कुटुंब तजि, भजहु न सारंगपानी।
शब्द-88
भाई रे अनी लडै सोई सूरा।
दोइ दल बिचि खेलै पूरा।।टेक।।
जब बजै जुझाउर बाजा, तब कायर उठि उठि भाजा।
कोई सूर लडै मैदाना, जिन मारि किया घमसाना।
जहं बांधि सकल हथियारा, गुर ग्यांन खौ खड्ग सम्हारा।
जब बस कियौ पांचौ थाना, तब राम भया मिहरबांना।
मन मारि अगमपुर लीया, चित्रगुप्त परे डेरा कीया।
गढ़ फिर गई राम दोहाई, कबीरा अबिगति की सरनाई।
शब्द-89
भाई रे नयन रसिक जो जागै।
पारब्रह्मा अविगत अविनासी, कैसेहू के मन लागै।
अमली लोग खुमारी तृष्ना, कहुं संतोष न पावै।
काम क्रोध दूनो मतवारे, माया भरि भरि प्यावै।
ब्रह्म कुलाल चढ़ाइन भट्ठी, लै इन्द्री रस चाखै।
संगहि पोच ह्वै ज्ञान पुकारै, चतुरा होय सो नाखै।
संकट सोच पोच यह कलिमहं, बहुत ब्याधि सरीरा।
जहंवा धीर गंभीर अति निस्चल, तहं उठि मिलहु कबीरा।
शब्द-90
हौं बारी मुख फेरि पियारे।
करवट दै मोहि काहे कौं मारे।।टेक।।
करवत भला न करवट तोरी, लागु गलै सुन बिनती मोरी।
हम तुम बीच भयौ नहिं कोई, तुमहिं सो कंत नारी हंम सोई।
कहत कबीर सुनौ रे लोई, अब तुम्हरी परतीति न होई।
शब्द-91
बुझ बुझ पंडित मन चित लाय।
कबहुं भरल है कबहुं सुखाय।
खन ऊबै खन डूबै खन औगाह।
रतन न मिलै पावै नहिं थाह।
नदिया नहीं सांसरि बहै नीर।
मच्छ न मरै केवट रह तीर।
पोखर नहिं बांधल तहं घाट।
पुरइन नांहि कवंल मंह बांट।
कहै कबीर ई मन का धोख।
बैठा रहै चला चहै चोख।
शब्द-92
रहहु ररा ममा की भांति हो, सब संत उधारन चूनरी।
बालमीकि बन बोइया, चुनि लीन्ह सुखदेव।
करम बिनौला होय रहा, सुत काते जैदेव।
तीनि लोक ताना तनो, ब्रह्मा विष्णु महेस।
नाम लेत मुनि हारिया, सुरपति सकल नरेस।
विष्णु जिभ्या गुन गाइया, बिनु बस्ती का देश।
सूने घर का पाहुना, कासों लावै हेत।
चारि वेद कैंडा कियो, निराकार कियो राछ।
बिनै कबीरा चूनरी, बै नहिं बाधंल बारि।
शब्द-93
संतो आवै जाय सो माया।
है प्रतिपाल काल नहिं वाके, ना कहूं गया न आया।
क्या मकसूद मच्छ कछ होना, संखासुर न संहारा।
है दयाल द्रोह नहिं वाके, कहहु कौन को मारा।
वै करता नहिं बराह कहाया, धरनि धरो नहिं भारा।
ई सब काम साहेब के नाहीं, झूठ कहै संसारा।
खंभ फोरि जो बाहर होई, तेहि पतिजै सब कोई।
हिरनाकुस नख उदर बिदारे, सो कर्ता नहिं होई।
बावन रूप न बलि को जांचो, सो जांचे सो माया।
बिना विवेक सकल जग भरमै, माया जग भरमाया।
परसुराम छत्री नहिं मारयो, ई छल माया कीन्हा।
सतगुरु भक्ति भेद नहिं जाने, जीवहि मिथ्या दीन्हा।
सिरजन न ब्याही सीता, जल पषान नहिं बंधा।
वै रघुनाथ एक कै सुमिरै, जो सुमिरै सो अंधा।
गोपी ग्वाल न गोकुल आए, करते कंस न मारा।
है मेहरबान सबहिन को साहेब, ना जीता ना हारा।
वै करता नहिं बौद्ध कहावै, नहीं असुर संहारा।
ज्ञानहीन कर्ता के भर्मे, माया जग भरमाया।
वै करता नहिं भये निकलंकी, नहीं कलिंगहि गहि मारा।
इ छलबल सब माया कीन्हा, यतिन सतिन सब टारा।
दस अवतार ईस्वरी माया, कर्ता कै जिन पूजा।
कहै कबीर सुनो हो संतो, उपजै खपै सो दूजा।
शब्द-94
आपन आस कीजै बहुतेरा, काहु न मरम पावल हरि केरा।
इन्द्री कहां करै बिसराम, सो कहं गए जो कहत होते राम।
सो कहं गए जो होत सयाना, होय म्रितक वह पदहिं समाना।
रामानंद रामरस माते, कहैं कबीर हम कहि कहि थाके।
शब्द-95
मोहिं तोहिं लागी कैसे छूटै।
जैसे हीरा फोरे न फूटै।।टेक।।
मोहिं तोहिं आदि अंत बनि आई, अब कैसे दुरत दुराई।
जैसे कंवल पत्र जल बासा, ऐसे तुम साहेब हम दासा।
मोहिं तोहिं कीट भिग की नांई, जैसे सरिता सिंधु समाई।
कहै कबीर हरि से मन लागा, जैसे सोना मिलत सुहागा।
शब्द-96
पवनपति उनमनि रहनु खरा।
तहां जनम न मरन जुरा।।टेक।।
मन बिंदत बिंदहि पावा, गुरमुख तैं अगम बतावा।
जब नख सिख यहु मन चीन्हा, तब अंतरि मज्जनु कीन्हा।
उलटीले सकंति सहारं, पैसीले गगन मझारं।
बेधीले चक्र भुअंगा, भेठीले राइ निसंगा।
चूकीले मोह पियासं, तहां ससिहर सूर गरासं।
जब कुभंक भसरिपुरि लीनां, तब बाजै अनहद बीनां।
मैं बकतै बकति सुनावा, सुरतैं तहां कछु न पावा।
कहै कबीर बिचारं, करता लै उतरसि पारं।
शब्द-97
राम सुमिरि पछिताइगा।
पापी जियरा लोभ करत है, आजु कालि उठि जाइगा।।टेक।।
लालच लागै जनम गंवाया, माया भरमि भुलाइगा।
धन जोबन का गरब न कीजै, कागद ज्यौं गलि जाइगा।
जब जम आइ केस गहि पटकै, ता दिन कछु बसाइगा।
सुमिरन भजन दया नहिं कीन्हीं, तौ मुखि चोटा खाइगा।
धरमराइ जब लेखा मांगै, क्या मुख लै के जाइगा।
कहत कबीर सुनहु रे संतौ, साध संगति तरि जाइगा।
शब्द-98
संतो अचरज एक भौ भारी, पुत्र धरल महतारी।
पिता के संगहि भई बावरी, कन्या रहलि कुंवारी।
खसमहिं छोड़ि ससुर संग गौनी, सो किन लेहु बिचारी।
भाई के संग सासुर गौनी, सासुहि सावत दीन्हा।
ननद भौज परपंच रच्यौ है, मोर नाम कहि लीन्हा।
समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरबारी।
कहै कबीर सुनो हो संतो, पुरुष जन्म भौ नारी।
शब्द-99
मोहिं बैराग भयौ।
यहु जिउ आइ रे कहां गयौ।।टेक।।
आकासि गगनु पातालि गगनु है, दह दिसि गगनु रहाईले।
आनंद मूल सदा पुरखोतम घट बिनसै गगनु न जाईले।
पंच तत्त मिलि काया कीनी, तत्त कहां तैं कीनु रे।
करम बुद्ध तुम जीउ कहत हौं, करमहिं किन जिउ दीनु रे।
हरि महिं तनु है तन महिं हरि है, सरब निरंतरि सोइ रे।
कहै कबीर हरि नांउं न छांड़उं, सहजै होइ सु होइ रे।
शब्द-100
रामुरा संसै गांठि न छूटै, तातै पकरि पकरि जम लूटै।
होय कुलीन मिसकीन कहवै, तूं जोगी सन्यासी।
ज्ञानी गुनी सूर कवि दाता, या मति किनहु न नासी।
सुम्रिति वेद पुरान पढ़ै सब, अनुभौ भाव न दरसै।
लोह हिरन्य होय धौं कैसे, जो नहिं पारस परसै।
जियत न तरेउ मुए का तरिहौ, जियतहि जो न तरे।
गहि परतीत कीन्ह जिन्ह जासो, सोइ तहां अमरे।
जो कछु कियो ग्यान अग्याना, सोई समुझ सयाना।
कहै कबीर तासों का न कहिए, जो देखत दष्टि भुलाना।
शब्द-101
चुनरिया पंचरंग हमें न सुहाय।।टेक।।
पांच रंग को हमरी चुनरिया। प्रेम बिना रंग फीक दिखाय।
यह चुनरी मेरे मैके से आए। अपने पिया से लियां बदलाय।
तोरी चूनर पर साहब रीझै। जम दहिजरबा फिर फिर जाय।
कहै कबीर सुनो भाई साधो। को आबे को घर जाय।
शब्द-102
साधो सो जन उतरे पारा, जिन मनते आपा डारा।
कोई कहे मैं ज्ञानी रे भाई, कोई कहे मैं त्यागी।
कोई कहे मैं इंद्री जीती, अहं सबन को लागी।
कोई कहे मैं जोगी रे भाई, कोई कहे मैं भोगी।
मैं तो आपा दूर न डारा, कैसे जीवे रोगी।
कोई कहे मैं दाता रे भाई, कोई कहे मैं तपसी।
निज तन नाम निश्चय नहि जाना, सब भ्रम में खपसी।
कोई कहे जोग सब जानूं, कोई कहे मैं रहा।
आतमदेव से परचा नाहीं, यह सब झूठी कहानी।
कोई कहे धर्म सब साधे, और वर्त सब कीन्हा।
आपकी भरम निकसी नांही तो, कलेस बहुत सिर लीन्हां।
गरब गुमान सब दूर निकारो, करनी का बल नाहीं।
कहै कबीर साहेब का बंदा, पहुंचा निज पद माहीं।
शब्द-103
राखि लेहु हम तैं बिगरी।
सील धरम जप भगति न कीन्हीं, हौं अभिमान टेढ़ पगरी।।टेक।।
अमर जानिं संची यह काया, सो मिथ्या कांची गगरी।
जिनहिं निवाज साज सब कीन्हें, तिनहि बिसारि और लगरी।
संधिक साध कबहुं नहिं भेंट्यो, सरनि परै जिनकी पगरी।
कहै कबीर इक बिनती सुनिए, मत घालौ जम की खबरी।
शब्द-104
संतो घर में झगरा भारी।
राति दिवस मिलि उठि उठि लागै, पांच ढोटा एक नारी।।टेक।।
न्यारो न्यारो भोजन चाहैं, पांचौ अधिक सवादी।
कोई काहु को हटा न मानै, आपुहि आप मुरादी।
दुर्मति केर दोहागिनि भेटै, ढोटहि चांप चपेरे।
कहै कबीर सोई जन मेरा, जो घर की रारि निबेरे।
शब्द-105
मानुख तन पायौ बड़े भाग।
अब बिचारि कै खेलौ फाग।।टेक।।
बिनु जिभ्या गावै गुन रसाल, बिनु चरनन चालै अधर चाल।
बिनु कर बाजा बजै बेन, निरखि देखि जहं बिनां नैंन।
बिनु ही मारे मृतक होइ, बिनु जारें होइ खाक सोइ।
बिनु मांगैं ही बस्तु देई, सो सालिम बाजी जीति लेइ।
बिनु दीपक बरै अखंड ज्योति, तहां पाप पुन्नि नहिं लगे छोति।
जहं चंद सूर नहिं आदि अंत, तंह कबीर गावै बसंत।
शब्द-106
रामुरा चली बिनावन माहो।
घर छोड़ै जाइ जुलाहो।।टेक।।
गज नव गज दस गज उनइस की पुरिया एक तनाई।
सात सूत नौ गंड बहत्तरि, पाट लागु अधिकाई।
ता पट तुला तुलै नहिं गज न अमाई, पैसन सेर अढ़ाई।
तामें घटै बढ़ै रतियो नहिं, करकच करे गहराई।
नित उठि बैठि खसम सो बरबस, तापर लागु तिहाई।
भींगी पुरिया काम न आवै, जोलहा चला रिसाई।
कहहिं कबीर सुनो हो संतो, जिन यह सृष्टि बनाई।
छाड़ पसार राम भजु बौरे, भवसागर कठिनाई।
शब्द-107
माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फांसि लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।।टेक
केसव कै कंवला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा कै मूरति होइ बैठी, तीरथ हूं मैं पानी।
जोगी कै जोगिनि होइ बैठी, राजा कै घरि रानी।
काहू कै हीरा होइ बैठी, काहू कै कोड़ी कांनी।
भगता कै भगतिनि होई बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी।
कहहि कबीर सुनो हो संतो, ई सब अकथ कहानी।
शब्द-108
लाज न मरहु कहहु घरु मेरा।
अंत की बार नहीं कछु तेरा।।टेक।।
उपजै निपजै निपजि समाई, नैनन देखत यह जगु जाई।
बहुत जतन करि काया पाली, मरती बार अगिनि संग जाली।
चोआ चंदन मरदन अंगा, सो तनु जलै काठ क संगा।
कहै कबीर सुनहु रे गुनियां, बिनसैगो रूप देखै सभी दुनियां।
शब्द-109
राम गुन न्यारो न्यारो न्यारो।
अबुझा लोग कहां लौं बूझे, बूझनहार बिचारो।
केतेहि रामचन्द्र तपसी से, जिन यह जग बिटमाया।
केतेहि कान्ह भए मुरलीधर, तिन्ह भी अंत न पाया।
मच्छ कच्छ औ बराह सरूपी, बावन नाम धराया।
केतेहि बौद्ध भए निकलंकी, तिन्ह भी अंत न पाया।
केते सिध साधक सन्यासी, जिन्ह बनवास बसाया।
केते मुनिजन गोरख कहिए, तिन भी अंत न पाया।
जाकी गति ब्रह्मा नहिं जाना, सिव सनकादिक हारे।
ताके गुन नर कैसेक पैइहौ, कहहिं कबीर पुकारे।
शब्द-110
हंसा संसय छूरी कुहिया, गइया पिये बछरुवै दुहिया।
घर घर साउज खेलै अहेरा, पारथ ओटा लेई।
पानी मांहि तलफि गौ भूभुरि, धूरि हिलोरा देई।
धरती बरसै बादर भीजै, भींट भए पैराऊं।
हंस उड़ाने ताल सुखाने, चहले बिंधा पांऊ।
जौलों कर डोलै पग चालै, तौलौं आस न कीजै।
कहै कबीर जेहि चलत न दीसै, तासु बचन क्या लीजै।
शब्द-111
माई मैं दूनौ कुल उजियारी।
सासु ननद पटिया मिलि बंधलौं, भसुरहिं परलौं गारी।
जारौं मांग मैं तासु नारि की, जिन सरवर रचल धमारी
जना पांच कोखिया मिलि रखलों, और दुई औ चारी।
पार परोसिनि करौं कलेवा, संगहि बुधि महतारी।
सहजहिं बपुरे सेज बिछावल, सुतलौं मैं पांव पसारी।
आवों न जावों मरौं नहिं जीवों, साहेब मेटल गारी।
एक नाम मैं निज कै गहिलौं, तो छूटल संसारी।
एक नाम मैं बांदे के लेखौं, कहै कबीर पुकारी।
शब्द-112
रमइया गुन गाइऐ रे, जातै पाइऐ परम निधानु।।टेक।।
सुरगबासु न बांछिअै, डरिऐ न नरकि निवासु।
होना है सो होइहै, मनहि न कीजै आसु।
क्या जप क्या तप संजमो, क्या ब्रत क्या असनान।
जल लगि जुगति न जानिअै, भाउ भगति भगवान।
सम्पति देखि न हरखिए, बिपति देखि नां रोई।
ज्यौं सम्पति त्यौं बिपति है, करता करै सो होइ।
कहै कबीर अब जानियां, संतन हृदै मंझारि।
जो सेवक सेवा करै, ता संगि रमैं मुरारि।
शब्द-113
तंतो भक्ती सतगुर आनी।
नारी एक पुरुष दुइ जाए, बूझौ पंडित ज्ञानी।।टेक।।
पाहन फोरि गंग एक निकरी, चहुं दिसि पानी पानी।
तेहि पानी दुइ पर्वत बूड़े, दरिया लहरि समानी।
उड़ि माखी तरवर को लागी, बोलै एकै बानी।
वहि माखी को माखा नाहीं, गर्भ रहा बुनिु पानी।
नारी सकल पुरुष वहि खायो, ताते रहेउं अकेला।
कहहिं कबीर जो अबकी समुझै, सोई गुरु हम चेला।
शब्द-114
ई मन बानियां बांनि न छोड़ै।
जाकै घर में कुबुधि बनांनीं पल पल में चित चोरै।।टेक।।
जनम जनम के मारा बनियां अजहूं पूर न तोलै।
कूर कपट की पासंग डारै फूला फूला डोलै।
पांच कुटुम्बी महा हरामी अम्रित मैं बिख घोलै।
कहैं कबीर सुनौ भाई साधौ कुटिल गांठि नां खोलै।
शब्द-115
हमारैं गुर बड़ भिंग्री।
आंनि कीटक करत भिंग्र सो आपतैं रंगी।।टेक।।
पाइं औरे पंख औरै, और रंग रंगी।
जाति पांति न लखै कोई, भगत भौ भंगी।
नदी नांला मिले गंगा, कहावै गंगी।
समांनी दरियाव दरिया, पार नां लंघी।
चलत मनसा अचल कीन्हीं, मांहि मन पंगी।
तत्त मैं निहतत्त दरसा, संग मैं संगी।
बंध तै निबंध कीया, तोरि सब तंगी।
कहै कबीर अगम किय गम, राम रंग रंगी।
शब्द-116
इहु धन मेरे हरि कै नाउं, गांठि न बांधउं बेंचि न खांउं।
ना मेरे खती नांउं मेरै बारी, भगति करउं जन सरनि तुम्हारी।
ना मेरे माया नाउं मेरै पूंजी, तुमहिं छांड़ि जानउं नहिं दूजी।
ना मेरे बंधिप ना मेरे भाई, अंत की बेरियां ना सहाई।
ना मेरे निरधन ज्यूं निधि पाई, कहै कबीर जैसे रंक मिठाई।
शब्द-117
राम न रमसि कौन डंड लागा, मरि जैबे का करिबै अभागा।
कोई तीरथ कोई मुंडित केसा, पाषंड मंत्र भर्म उपदेसा।
विद्या वेद पढ़ि करै हंकारा, अंत काल मुख फांकै छारा।
दुखित सुखित होइ कुटुंब जेंवावै, मरण बेर एकसर दुख पावै।
कहै कबीर यह कलि है खोटी, जो रहै करवा सो निकसै टोटी।
शब्द-118
हंसा प्यारे सरवर तजि कहं जाय।
जहि सरवर बिच मोतिया चुगते, बहुबिधि केलि कराय।
सूखे ताल पुरइन जल छांड़े, कमल गए कुम्हिलाय।
कहैं कबीर जो अबकी बिछुेरे, बहुरि मिलो कब आय।
शब्द-119
हंसा हो चित चेतु सबेरा, इन्ह परपंच करल बहुतेरा।
पाषंड रूप रचो इन तिरगुन, तेहि पाषंड भूलल संसारा।
घर के खसम बधिक वै राजा, परजा का धौं करै बिचारा।
भगति न जानै भगत कहावै, तजि अमृत विष कैलिन सारा।
आगे बड़े ऐसही बूड़े, तिनहूं न मानल कहा हमारा।
कहा हमार गांठि दढ़ बांधे, निसि बासर रहियो हुसियारा।
य कलि गुरु बड़े परपंची, डारि ठगौरी सब जग मारा।
बेद कितेब दुइ फंद पसारा, तेहि फंदे परु आप बिचारा।
कहै कबीर ते हंस न बिसरै, जेहिमा मिले छुड़ावनहारा।
शब्द-120
संतो राह दुनौ हम दीठा।
हिन्दू तुरुक हटा नहिं मानैं, स्वाद सबनि को मीठा।
हिन्दू बरत एकादसि साध, दूध सिधारा सेती।
अन्न को त्यागैं मन नहिं हटकैं, पारन करै सगोती।
तुरुक रोजा निमाज गुजारैं, बिसमिल बांग पुकारैं।
इनको भिस्त कहां ते होइहै, जो सांझै मुरगी मारैं।
हिन्दु कि दया मेहर तुरकन की, दूनो घट से त्यागी।
ई हलाल वै झटका मारै, आगि दुनौ घर लागी।
हिन्दू तुरुक की एक राह है, सतगुरु इहै लखाई।
कहहिं कबीर सुनहु हो संतो, राम न कहेउ खुदाई।
शब्द-121
राम सुमिरि राम सुमिरि राम सुंमिरि भाई।
राम नाम सुमिरन बिनु बूड़त अधिकाई।।टेक
बनिता सुत देह ग्रेह संपति सुखदाई।
इन्ह मैं कछु नांहि तेरौ काल अवधि आई।
अजामेल गज गनिका पतित करम कीन्हें।
तेऊ उतरि पारि गए राम नाम लीन्हें।
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊनां लाज आई।
राम नाम छाड़ि उंम्रित काहे बिख खाई।
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही।
गुर प्रसादि जन कबीर रांमु करि सनेही।
शब्द-122
देखहु लोगो हरि केर सगाई, माय धरी पूत धियो संग जाई।
सासु ननद मिलि अदल चलाई, मादरिया ग्रिह बैठी जाई।
हम बहनोई राम मोर सारा, हमहि बाप हरि पूत हमारा।
कहैं कबीर ई हरि के बूता, राम रमे ते कुकरि के पूता।
शब्द-123
हो बलैया कब देखौंगी तोहि।
अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी ब्यापै मोहि।।टेक।।
नैन हमारे तुम्ह कूं चाहैं, रती न मानें हारि।
बिरह अगिनि तन अधिक जरावै, ऐसी लेहु बिचारि।
सुनहु हमारी दादि गुसांई, अब जिन करहु बधीर।
तुम्ह धीरज मैं आतुर स्वामी, काचै भांडै नीर।
बहुत दिनन कै बिछुरे माधौ, मन नहिं बांधै धीर।
देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि, आरतिवंत कबीर।
शब्द-124
नरहरि लागी दौं बिकार बिनु ईधन, मिलै न बुझावनहारा।
मैं जानौं तोही सो ब्यापै, जरत सकल संसारा।
पानी मांही अगिनि को अंकुर, जरत बुझावै पानी।
एक न जरै जरै नव नारी, जुक्ति न काहू जानी।
सहर जरै पहरू सुख सोवै, कहै कुसल घर मेरा।
पुरिया जरै वस्तु निज उबरै, बिकल राम रंग तेरा।
कुबुजा पुरुष गले एक लागा, पूजि न मन की सरधा।
करत विचार जनम गौ खीसे, ई तन रहल असाधा।
जानि बूझि जो कपट करतु है, तेहि अस मंद न कोई।
कहैं कबीर तेहि मूढ़ को, भला कवन बिधि होई।
शब्द-125
हमारै गुर दीन्हीं अजब जरी।
कहा कहौं कछु कहत न आवै, अम्रित रसन भरो।।टेक।।
याही तैं मोहिं प्यारी लागी, लैकै गुपुत धरी।
पांचौं नाग पचीसौ नांगिनि, सूंघत तुरत मरी।
डांइनि एक सकल जग खायौ, सो भी देखि डरी।
कहै कबीर भया घट निरमल, सकल बियाधि टरी।
शब्द-126
संतो पांडे निपुन कसाई।
बकरा मारि भसा पर धावैं, दिल में दर्द न आई।
करि अस्नान तिलक दै बैठे, बिधि से देवि पुजाई।
आतम राम पलक में बिनसे, रुधिर कि नदी बहाई।
अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए, सभा मांहि अधिकाई।
इन्हते दीक्षा सब कोई मांगै, हंसि आवै मोहि भाई।
पाप कटन को कथा सनावहिं, कर्म करावहिं नीचा।
बूड़त दोउ परस्पर देखा, जम लाए हैं खींचा।
गाय बधे तेहि तुरुका कहिए, इन्हते वै क्या छोटे।
कहहिं कबीर सुनहु हो संतो, कलि में ब्राह्मन खोटे।
शब्द-127
सतगुर संग होरी खेलिए।
जातैं जरा मरन भ्रम जाई।।टेक।।
ध्यान जुगति की करि पिचकारी, खिमा खेलावनहार।
आतम ब्रह्म जो खेलन लागे, काया नगर मझार।
ग्यान गली मैं होरी खेलै, मची प्रेम की कीच।
लोभ मोह दोऊ कढ़ि भागे, सुनि सुनि सबद अतीत।
त्रिकुटी महल मैं बाजा बाजै, होत छतीसौं राग।
सुरति सखी जहां देखि तमासा, सतगुर खेलै फाग।
सतगुर मिलिया फगुवा दीया, पैंड़ा दिया बताई।
कहै कबीर सोई ततबेता, जीवन मुक्ति समाई।
शब्द-128
बंदे करिले आपु निबेरा।
आपु जियत लखु आपु छौर करु, मुए कहां घर तेरा।
यहि अवसर नहिं चेतहु प्रानी, अंत कोई नहिं तेरा।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, कठिन काल का घेरा।
शब्द-129
रामहि गावै औरहि समुझावै, हरि जाने बिनु विकल फिरै।
जेहि मुख वेद गायत्री उचरै, जाके वचन संसार तरै।
जाके पांव जगत उठि लागे, सो ब्राह्मन जीव वध करै।
अपने ऊंच नीच घर भोजन, घीन कर्म करि उदर भरै।
ग्रहन अमावस ढुकि ढुकि मांगै, कर दीपक लिए कूप परै।
एकादसी बरत नहिं जानै, भूत प्रेत हठि हृदय धरै।
तजि कपूर गांठि बिख बांधै, ग्यान गंवाय के मुगुध फिरै।
छीजै साहु चोर प्रतिपालै, संत जना की कूटि करै।
कहै कबीर जिभ्या के लंपट, यहि विधि प्रानी नरक परै।
शब्द-130
वा घर की सुधि कोई न बतावै, जा घर तैं जिउ आया हो।
काया छाडिं चला जब हंसा, कहा न कहां समाया हो।।टेक।।
धरती अकास पवन नहिं पानी, नहिं जब आदी माया हो।
ब्रह्मां विष्णु महेस नहीं तब, जीव कहां तैं आया हो।
मैं मेरी ममता कै कारनि, बार बार पछिताया हो।
लखि नहिं परै नाम साहेब का, फिरि फिरि भटका खाया हो।
मेरी प्रीति पीव सौं लागी, उलटि निरंजन ध्याया हो।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, वा घर बिरलै पाया हो।
शब्द-131
संतौ कहौं तो को पतियाई, झूठ कहत सांच बनि हाई।
लौके रतन अबेध अमोलिक, नहिं गाहक नहिं सांई।
चिमिकि चिमिकि चिमिकै दग दुहु दिस, अर्ब रहा छिरिआई।
आपै गुरु क्रिपा कछु कीन्हा, निर्गुन अलख लखाई।
सहज समाधि उनमनी जागै, सहज मिले रघुराई।
जहं जहं देखौ तहं तहं सोई, मन मानिक बेध्यो हीरा।
परम तत्व गुरु ही से पावै, कहै उपदेस कबीरा।
शब्द-132
संतो अचरज एक भौ भारी, कहौं तो को पतियाई।
एकै पुरुष एक है नारी, ताकर करहु बिचारा।
एकै अंड सकल चौरासी, भर्म भुला संसारा।
एकै नारी जाल पसारा, जग महं भया अंदेसा।
खोजत खोजत अंत न पाया, ब्रह्मा विष्णु महेसा।
नाग फांस लीये घट भीतर, मूसिन सब जग झारी।
ग्यान खडग बिनु सब जग जूझै, पकरि न काहू पाई।
आपहुहि मूल फूल फुलवारी, आपुहि चुनि चुनि खाई।
कहहिं कबीर तेई जन उबरे, जेहि गुरु लियो जगाई।
शब्द-133
संतौ ई मुरदन कै गाउं।
तन धरि कोई रहन न पावै, काकौ लीजै नांउं।।टेक।।
पीर मूवा पैगम्बर मूवा, मूवा जिंदा जोगी।
राजा मूवा परजा मूवा, मूवा बैद औ रोगी।
चंदौ मरिहै सुजरौ मरिहै, मरिहै धरति अकासा।
चौदह भुवन चौधरी मरिहै, काकी धरिऐ आसा।
नौ हूं मूवा दस हूं मूवा, मूवा सहस उठासी।
तैंतिस कोटि देवता मूए, परे काल की फांसी।
एकहिं जोति सकल घट व्यापक, दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतौ, भटकि मरै जनि कोई।
शब्द-134
लोग बोलैं दूरि गए कबीर, या मति कोइ कोइ जानै धीर।
दसरथ सुत तिहुं लोकहिं जाना, राम नाम का मरम है आना।
जेहि जिव जानि परा जस लेखा, रजु को कहे उरग सम पेखा।
जद्यपि फल उत्तम गुन जाना, हरि छोड़ि मन मुक्ति अनुमाना।
हरि अधार जस मीनहि नीरा, और जतन कछु कहै कबीरा।
शब्द-135
सुभागे केहि कारन लोभ लागे, रतन जनम खोया।
पूरब जनम भूमि के कारन, बीज काहे को बोयो।
बुंद से जिन्ह पिंड संजोयो, अग्रिहि कुंड रहाया।
जब दस मास माता के गर्भे, बहुरि के लागल माया।
बारहु ते पुनि बृद्ध हवा, जब होनिहार सो होया।
जब जम ऐहैं बांधि चले हैं, नैन भरी भरि रोया।
जीवन की जनि राखहु आसा, काल धरे है स्वासा।
बाजी है संसार कबीरा, चित्त चेति डारो पासा।
शब्द-136
संतो बोले ते जग मारै।
अनबोले ते कैसक बनिहै, सब्दहिं कोइ न बिचारे।
पहिले जन्म पूत को भयऊ, बाप जनि पाछे।
बाप पूत की एकै नारी, ई अचरज को काछै।
दुंदर राजा टीका बैठे, बिखहर करै खवासी।
स्वान बापुरो धरनि ढाकयो, बिल्ली घर की दासी।
कार दुकार कारकुन आगे, बैल करै पटवारी।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, भैंसे न्याव निबेरी।
शब्द-137
सतगुर साह संत सौदागर, तहं मैं चलि कै जाऊं जी।
मन की मुहर धरौं गुरु आगैं, ग्यान कै घोड़ा लाऊं जी।।टेक।।
सहज पलान चित कै चाबुक, लौ की लगाम लगाऊं जी।
विवेक बिचार भरौं तन तरगस, सुरति कमान चढ़ाऊं जी।
धीर गंभीर खड़ग लिए मुदगर, माया कै कोट ढहाऊं जी।
मोह मस्त मैवासी राजा, ताकौं पकड़ि मंगाऊं जी।
रिपु कै दल में सहजहिं रौंदौं, अनहद तबल घुराऊं जी।
कहै कबीर मेरै सिर पर साहेब मैं ताकौं सीस नवाऊं जी।
शब्द-138
सांई के संग सासुर आई।
संग न सूती स्वाद न मानी, गयो जौवन सपने की नांई।
जना चारि मिलि लगन सुधाये, जना पांच मिलि मांड़ो छाए।
सखी सहेली मंगल गावै, दुख सुख माथे हलदी चढ़ावे।
नाना रूप परी मन भांवरि, गांठि जोरि भाई पतिआई।
अरघा दे लै चली सुआसिनि, चौके रांड़ भई संग सांई।
भयो विवाह चली बिनु दुलहा, बाट जात समधी समुझाई।
कहै कबीर हम गौने जेबै, तरब कंत लै तूर बजाई।
शब्द-139
संतो मंहतो सुमिरो सोई, काल फांस जो बांचा होई।
दत्तात्रेय मर्म नहिं जाना, मिथ्या स्वाद भुलाना।
सलिल को मथिकै घृत को काढ़िनि, ताहि समाधि समाना।
गोरख पवन राखि नहिं जाना, जोग जुक्ति अनुमाना।
रिधि सिधि संजम बहुतेरा, पार ब्रह्म नहिं जाना।
बसिष्ठ श्रेष्ठ विद्या सम्पूरन, राम ऐसो सिख साखा।
जाहि राम को कर्ता कहिए, तिनहु को काल न राखा।
हिन्दू कहै हमहि लै जारो, तुर्क कहैं मोर पीर।
दोऊ आप दीनन में झगरैं, ठाढ़े देखिहिं हंस कबीर।
शब्द-140
संतो ऐसि भूल जग माहीं, जात जीव मिथ्या में जाहीं।
पहिले भूले ब्रह्म अखंडित, झांई आपुहि मानी।
झांई मानत इच्छा कीनी, इच्छा ते अभिमानी।
अभिमानी कर्ता ह्वै बैठे, नाना पंथ चलाया।
वही भरम में सब जग भूला, भूल का मरम न पाया।
लख चौरासी भूल ते कहिये, भूल ते जग बिटमाया।
जो है सनातन सोई भूला, अब सोई भूलहि खाया।
भूल मिटै गुरु मिलै पारखी, पारख देहिं लखाई।
कहैं कबीर भूल की औषध, पारख सबकी भाई।
शब्द-141
जारौ मैं या जग की चतुराई।
राम भजन नहिं करत बावरे, जिनि यहु जुगुति बनाई।।टेक।।
माया जोरि जोरि करै इकठी, हंस खैलैं लरिका ब्यौसाई।
सो धन चोर मूसि लै जावै, रहा सहा लै जाई जंवाई।
यह माया जैसे कलवारिनि, मद पियाई राखै बौराई।
एक तौ पड़े धरनि पर लोटैं, एक कहैं चोखी दे माई।
या माया सुर नर मुनि डंहके, पीर पैगंबर कौं धरि खाई।
जे जन रहैं राम कै सरनैं, हाथ मलै तिनकौं पछिताई।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, लै फांसी हमहूं पै आई।
गुर परताप साध की संगति, हरि भजि चल्यौ निसान बजाई।
शब्द-142
राजा राम अनहद किंगरी बाजै।
जाकी दिस्टि नाद लौ लौ लागै।।टेक।।
अचरज एक सुनह रे पंडिया, अब किछु कहन न जाई।
सुर नर गण गंध्रब जिनि मोहे, त्रिभुवन मेखुली लाई।
भाठी गगन सींगी करि चोंगी, कनक कलस इक पावा।
तिसु महिं धार चुअ अति निरमल, रस महिं रसन चुआवा।
एक जु बात अनूप बनी है, पवन पिआला साजा।
तीनि भवन महि एकै जोगी, कहह कवन है राजा।
ऐसे गिआंन प्रगटा पुरखोतम, कह कबीर रंगि राता।
अउर दुनीं सभी भरमि भुलांनीं, मैं राम रसाइन माता।
शब्द-143
ऐसी दिवानी दुनियां, भक्ति भाव न बूझे जी।
कोई आबे तो बेटा मांगे, यही गुसाई दीजे जी।
कोई आबे दुख का मारा, हम पर किरपा कीजे जी।
कोई आबे तो दौलत मांगे, भेंट रूपइया लीजे जी।
सांचे को कोइ गाहक नाहीं, झूठे जगत खोजे जी।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, अंधो का क्या कीजे जी।
जाके प्रेम न आवत हिये।
काह भये नर कासी बसे से, काह गंगा जल पीए।
काह भये नर जटा बढ़ाए, का गुदरी के सीए।
का रे भये कंठी के बांधे, काह तिलक के दीए।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, नाहक ऐसे जीए।
का जोगी मुद्रा करे, साहिब गति न्यारी।
झांड़ी जंगल रे फिरें, अन्ध व्यापारी।
उलटा पवन चढाय के, जीवें अधिकारी।
वायु तज के अजगर भये, गये बाजी हारी।
शून्य महल कहां सांइए, जहं निस अंधियारी।
कहैं कबीर वह सोइयं, रवि ससि उजियारी।
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