कबीर रमैनी

कबीर रमैनी

रमैनी-1
प्रथम अरंभ कौन को भैऊ, दूसर प्रगट कीन्‍ह सो बैठ।
प्रगटे ब्रह्मा विष्‍नु सिव सक्‍ती, प्रथमहि भक्ति कीन्‍ह जिव उक्‍ती।
प्रगटे पवन पानी औ छाया, बहुत विस्‍तार कै प्रगटी माया।
प्रगटे अण्‍ड पिण्‍ड ब्रह्मण्‍डा, पृथ्‍वी प्रगट कीन्‍ह नौ खण्‍डा।
प्रगटे सिद्ध साधक संन्‍यासी, ई सब लागि रहे अविनासी।
प्रगटे सुर नर मुनि सब झारी, तेहि के खोज परे सब हारी।

।।साखी।।
जीव सीव सब प्रगटे, वै ठाकुर सब दास।
कबीर और जानै नहीं, यक राम नाम की आस।।

रमैनी-2
प्रथम चरन गुरु कीन्‍ह विचारा, करता पावै सिरजनहारा।
करमै कै कै जग बौराया, सक्ति भक्ति लै बांधिनि माया।
अद्बुद रूप जाति की बानी, उपजी प्रीति रमैनी ठानी।
गुनी अनगुनी अर्थ नहिं आया, बहुतक जने चिन्हि नहिं पाया।
जो चीन्‍हे ताको निर्मल अंगा, अनचीन्‍हे नर भए पतंगा।

।।साखी।।
चीन्‍ह चीन्‍ह का गावहु बौरे, बानी परी न चीन्‍ह।
आदि अंत उतपति प्रलय, आपुहि कहि दीन्‍ह।।

रमैनी-3
अन्‍तर जोति शब्‍द यक नारी, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।
ते तिरिये भग लिंग अनन्‍ता, तेऊ न जानै आदिउ अंता।
बाखरि एक विधातैं कीन्‍हा, चौदह ठहर पाट सो लीन्‍हा।
हरिहर ब्रह्मा महतो नाऊं, तिन्‍ह पुनि तीनि बसावल गाऊं।
तिन्‍ह पनि रचल खंड ब्रह्मंंडा, छौ दरसन छानवे पाषंडा।
पेटे न काहू वेद पढ़ाया, सुन्‍नति कराय तुरुक नहिं आया।
नारी मोचित गई प्रसूती, स्‍वांग धरै बहुतै करतूती।
तहिया हम तुम एकै लोहू, एकै प्रान वियापै मोहू।
एकै जनी जना संसारा, कौन ग्‍यान ते भयो निनारा।
भौ बालक भग द्वारे आया, भग भोगे ते पुरुष कहाया।
अविगत की गति काह न जानी, एक जीव कित कहउं बखानी।
जौ मुख होय जांभ दस लाखा, तौ कोइ आय मंहतो भाखा।

।।साखी।।
कहहिं कबीर पुकारि कै, ई ले ऊ व्‍यौहार।
राम नाम जाने बिना, भव बूड़‍ि मुवा संसारा।।

रमैनी-4
आपुहिं कर्ता भये कुलाला, बहु बिधि बासन गढैं कुम्‍हारा।
बिधि ने सबै कीन्‍ह एक ठाऊं, अनेक जतन के बने कनाऊं।
जठर अग्नि मों दीन्‍ह प्रजारी, तामहं आपु भये प्रतिपाली।
बहुत जतन कै बाहर आया, तब शिव शक्‍ती नाम धराया।
घर का सुत जो होय अयाना, ताके संग न जाहु सयाना।
सांची बात कही मैं अपनी, भया द‍िवाना और की पुन्‍ही।
गुप्‍त प्रगट है एकै दूधा, काको कहिये ब्राह्मण शूद्रा।
झूठे गर्भ भूलो मति कोई, हिन्‍दू तुरुक झूठ कुल दोई।

 ।।साखी।।
जिन्‍ह यह चित्र बनाइया, सांचा सो सूत्रधारि।
कहहिं कबीर ते जन भले, जो चित्रवन्‍तहि लेहि निहारि।।

रमैनी-5 
राही लै पिपराही बही, करगी आवत काहु न कही।
आई करगी भी अजगूता, जन्‍म-जन्‍म जम पहिरे बूता।
बूता पहिरि जम कीन्‍ह सुमाना, तीनि लोक में कीन्‍ह पयाना।
बांधे ब्रह्मा विस्‍नु महेसू, सुरनर मुनि और बांधु गनेसू।
बांधे पौन पावक औ नीरू, चांद सरुज बांधे दोउ बीरू।
सांच मंत्र बांधिनि सब झारी, अमृत वस्‍तु न जानै नारी।

।।साखी।।
अमृत वस्‍तु जानै नहीं, मगन भये सब लोय।
कहहिं कबीर कामो नहीं, जीवहिं मरन न होय।।

रमैनी-6 
बरनहुं कौन रूप और रेखा, दसर कौन आहि जो देखा।
औ ओंकार आदि नहिं वेदा, ताकर कहहु कौन कुल भदा।
नहिं तारागन नहिं रवि चन्‍दा, नहिं कछु होत पिता के बिंदा।
नहिं जल नहिं थल नहिं थिर पौना, को धरे नाम हुकुम को बरना।
नहिं कछु होत दिवस औ राती, ताकर कहहु कौन कुल जाती।

।।साखी।।
सुन्‍न सहज मन सुमिरते, प्रगट भई एक ज्‍योत।
तांहि पुरुष की मैं बलिहारी, निरालम्‍ब जा होत।।

रमैनी-7
तहिया होते पवन नहिं पानी, तहिया सृष्टि कौन उत्‍पानी।
तहिया होते कली नहिं फूला, तहिया होते गर्भ नहिं मूला।
तहिया होते विद्या नहिं वेदा, तहिया होते शब्‍द नहिं स्‍वादा।
तहिया होते पिण्‍ड नहिं बासू, नहिं धर धरणि न पवन अकासू।
तहिया होते गुरु नहिं चेला, गम्‍य अगम्‍य न पन्‍थ दुहेला।

।।साखी।।
अविगति की गति का कहो, जाके गांव न ठांव।
गुण बिहूना पेखना, का कहि लीजे नांव।।

रमैनी-8
तत्‍वमसी इन्‍हके उपदेसा, ई उपनिषद कहैं संदेसा।
ई निश्‍चय इन्‍हके बड़ भारी, वाहिक वर्णन करें अधिकारी।
परम तत्‍व का निज परमाना, सनकादिक नारद सुक माना।
जागबलिक औ जनक संवादा, दत्तात्रेय उहै रस स्‍वादा।
उह राम वसिष्‍ठ मिली गाई, उहै बात कृष्‍ण ऊधौ समुझाई।
उअै बात जो जनक दृढ़ाई, देह धरे विदेह कहाई।

।।साखी।।
कुल मर्यादा छोड़ कै, जियत मुवा नहिं होय।
दखत जो नाहिं देखिया, अदृष्टि कहावै सोय।।

रमैनी-9
बांधे अष्‍ट कष्‍ट नौ सूता, जम बांधे अंजनी के पूता।
जम के बाहन बांधे जनी, बांधे सृष्टि कहां लौ गनी।
बांध देव तैंतीस करोरी, सुमिरत बदि लोह गौ तारी।
राजा संवरै तरिया चढो, पंथी संवरै नाम लै बढ़ी।
अर्थ बिहूना संवरै नारी, परजा संवरै पुहुमी झारी।

।।साखी।।
बंदि मनावै ते फल पावै, बंदि दिया सो देय।
कहै कबीर सो ऊबरे, जो निसिदिन नामहि लेय।।

रमैनी-10
माटिक कोट पषानक ताला, सोई बन सोई रखलावा।
सो बन देखत जीव डेराना, ब्राह्मण वैष्‍णव एकै जाना।
जौ रे किसान किसानी करई, उपजै खेत बीज नहिं पराई।
छाड़‍ि देहु नर झेलिक झेला, बूड़े दोऊ गुरु औ चेला।
तीसरे बूड़े पारथि भाई, जिन बन डाहे दवां लगाई।
भूंकि भूंकि कूकुर मरि गयऊ, काज न एक सियार से भयऊ।

।।साखी।।
मूस बिलाई एक संग, कहु कैसे रहि जाय।
अचरज एक देखहु हो संतो, हस्‍ती सिंघहि खाय।।

रमैनी-11
कहलौं कहौं जुगन की बाता, भूले ब्रह्म न चीन्‍है बाटा।
हरिहर ब्रह्मा के मन भाई, बिवि अच्‍छर लै जुक्ति बनाई।
बिबि अक्षर का कीन्‍ह बंधना, अनहद सब्‍द जोति परमाना।
अच्‍छर पढ़‍ि गुनि राह चलाई, सनक सनंदन के मन भाई।
वेद केतेब कीन्‍ह विस्‍तारा, फैलि गेल मन अगम अपारा।
चहुं जुग भक्‍तन बांधल बाटी, समुझि न परी मोटरी फाटी।
भैं भैं पृथ्‍वी दहुं दिसि धावै, अस्थिर होय न औषध पावै।
होय भिस्‍त जौ चित न डोलावै, खसमहिं छोड़‍ि दोजख को धावै।
पूरब दिशा हंस गति होई, है समीप संधि बूझे कोई।
भक्‍ता भक्तिन कीन्‍ह सिंगारा, बूड़‍ि गैल सब मांझहि धारा।

।।साखी।।
बिनु गुरु ज्ञान दुंदि भई, खसम कही मिलि बात।
जुग जुग सो कहवैया, काहु न मानी बात।

रमैनी-12
उनई बदरिया परिगौ संझा, अगुवा भूले बनखंड मंझा।
पिया अनते धनि अनते रहई, चौपरि कामरि माथे गहई।

।।साखी।।
फलवा भार न लै सकै, कहै सखियन सो रोय।
ज्‍यौं ज्‍यौं भीजै कामरी, त्‍यों त्‍यों भारी होय।।

रमैनी-13
अनहद अनुभव की करि आसा, ई विपरीत देखहु तमासा।
इहै तमासा देखहु भाई, जहवां सुंन तहां चलि जाई।
सुन्‍नहि बांध सुनहि गैऊ, हाथा छाड़‍ि बेहाथा भैऊ।
शंसय सावज सकल संसारा, काल अहेरी सांझ सकारा।

।।साखी।।
सुमिरन करहू राम के, काल गहे है कस।
ना जानहु कब मारिहै, क्‍या घर क्‍या परदेस।।

रमैनी-14
चलत-चलत अति चरन पिराना, हारि परे तहां अति रे सयाना।
गण गन्‍धर्व मुनि अन्‍त न पाया, हरि अलोप जग धन्‍धे लाया।
गहनी बन्‍धन बाण न सूझा, थाकि परे तहां किछउ न बूझा।
भूलि परे जिय अधिक डेराई, रजनी अन्‍ध कूप होय आई।
माया मोह उहां भरपूरी, दादुर दामिनि पवन अपूरी।
बरसै तपै अखण्डित धारा, रैन भयावन कछु न अधारा।

।।साखी।।
सबै लोग जहंड़ाइयां, अन्‍धा सबै भुलान।
कहा कोई ना माने, सब एकै माहिं समान।।

रमैनी-15
अब कहु सत्‍यनाम अविनासी, हरि तजि जियरा कतहुं न जासी।
जहां जाहु तहां होहु पतंगा, अब जनि जरहु समुझि विषसंगा।
रामनाम लौ लाय सो लीन्‍हा, भृंगी कीट समुझि मन दीन्‍हा।
भौ अस गरुआ दु:ख के भारी, करु जिय जतन जो देखु विचारी।
मन की बात है लहरि विकारा, ते नहिं सूझै वार न पारा।

।।साखी।।
इच्‍छा करि भौ सागरे, जामे बोहित नाम अधार।
कहैं कबीर हरि सरन गहु, गौ खुर बछ विस्‍तार।

रमैनी-16
अद्बुद पन्‍थ वरणि नहिं जाई, भूले राम भूलि दुनियाई।
जो चेतनु सो चेतहु रे भाई, नहिं तो जीव यम लै जाई।
शब्‍द न माने कथै ज्ञाना, ताते यम दियो है थाना।
संशय सावज बसे शरीरा, तिन खोया अनबेधा हीरा।।

।।साखी।।
संशय सावज शरीर में, संगहि खेले जुआरि।
ऐसा घायल बापुरा, जीवहि मारे झारि।।

रमैनी-17
बड़ सो पापी आहिं गुमानी, पाषंड रूप छलो नर जानी।
बावन रूप छलो बलि राजा, ब्राह्मन कौन कौन को काजा।
ब्राह्मन ही सब कीन्‍हो चोरी, ब्राह्मन ही को लागल खोरी।
ब्राह्मन कीन्‍हों वेद पुराना, कैसहु कै मोहि मानुष जाना।
एक से ब्रह्मै पंथ चलाया, एक से हंस गोपालहिं गाया।
एक से शंभू पंथ चलाया, एक से भूत-प्रेत मन लाया।
एक से पूजा जनि विचारा, एक से निहुरि निमाज गुजारा।
कोई काहु को हटा न माना, झूठा खसम कबीर न जाना।
तन मन भजि रह मोरे भक्‍ता, सत्त कीबर सत्त है वक्‍ता।
आपुहि देव आपुहि है पाती, आपुहि कुल आपुहि है जाती।
सर्वभूत संसार निवासी, आपुहि खसम आपु सुखरासी।
कहते मोहि भये जुग चारी, काके आगे कहौं पुकारी।

।।साखी।।
सांचहि कोई न माने, झूठहि के संग जाय।
झूठहि झूठा मिलि रहा, अहमक खेहा खाय।

रमैनी-18
जस जिब आपु मिलै अस कोई, बहुत धर्म सुख हृदया होई।
जासों बात राम की कही, प्रीति न काहू सो निरबहीं।
एकहि भाव सकल जग देखी, बाहर परै सो होय विवेकी।
विषय मोह के फंद छोड़ाई, तहां जाय जहां काट कसाई।
अहै कसाई छुरी हाथा, कैसहु आवै काटे माथा।
मानुस बड़े बड़े ह्वै आए, एकै पंडित सबै पढ़ाए।
पढ़ना पढ़हु धरहु जनि गोई, नहिं तौ निश्‍चय जाहु बिगोई।

।।साखी।।
सुमिरन करहु राम कै, छाड़हु दुख के आस।
तर ऊपर धै चांपिहि, जस कोल्‍हु कोटि पचास।।

रमैनी-19
आंधर‍ि गुष्टि सृष्टि भौ बौरी, तीनि लोक मंह लागि ठगौरी।
ब्रह्मा ठग्‍यो नाग कहं जाई, देवता सहित ठग्‍यो त्रिपुरारी।
राजठगौरी बिस्‍नुहि परी, चौदह भुवन केर चौधरी।
आदि अंत जाकि जलक न जानी, ताकर डर तुम काहेक मानी।
वै उतंग तुम जाति पतंगा, जम घर कियहु जीव को संगा।
नीम कीट जस नीम पियारा, विष को अमृत है गंवारा।
विष अमृत गो एकहिं सानी, जिन जानी तिन विष कै मानी।
विष के संग कौन गुन होई, किंचित लाभ मूल गो खाई।
कहा भये नर सुध बेसूधा, बिनु परचै जग बूड़ न बूझा।
मति के हीन कौन गुन कहई, लालच लागे आसा रहई।

।।साखी।।
मुवा है मरि जाहुगे, मुए की बाजी ढोल।
सपन सनेही जग भया, सहिदानी रहि बोल।।

रमैनी-20
मानुष जन्‍म चूकेहु अपराधी, एहि तन केर बहुत हैं सांझी।
तात जननी कहै पुत्र हमारा, स्‍वारथ लगि कीन्‍ह प्रतिपाला।
कामिनि कहै मोर पिय आही, बाघिनि रूप गरासन चाही।
पुत्र कलत्र रहैं लौ लाई, यम की नाईं रहैं मुंह बाई।
काग गीध दोउ मरन बिचारें, सूकर स्‍वान दोउ पंथ निहारैं।
अगिनि कहै मैं ई तन जारौं, पानि कहै मैं जरत उबारौं।
धरती कहै मोहिं मिलि जाई, पौन कहै संग लेहुं उड़ाई।
तेहि घर को घर कहें गंवारा, सो बैरी होय गले तुम्‍हारा।
सो तन तुम आपन करि जानी, विषय स्‍वरूप भूले अग्‍यानी।

।।साखी।।
इतने तनके साझिया, जन्‍मौ भरि दुख पाव।
चेतत नाहीं मुग्‍ध नर बौरे, मोर मोर गोहराव।।

रमैनी-21
नहिं परतीत जो यहि संसारा, दरब की चोट कठिन कै मारा।
सो तो सेषहु जाइ लुकाई, काहू कैं परतीति न आई।
चले लोग सब मूल गंवाई, जम की बाढ़‍ि काटि नहिं जाई।
आजु काज है काल्‍ह‍ि अकाजा, चलेउ लादि दिगन्‍तर राजा।
सहज विचारे मूल गंवाई, लाभ ते हानि होय रे भाई।
वोछी मति चन्‍द्रमा गौ अथई, त्रिकुटी संगम स्‍वामी बसई।
तबही बिस्‍नु कहा समुझाई, मैथून अष्‍ट तुम जीतहु जाई।
तब सनकादिक तत्‍व विचारा, जैसे रंक परा धन पारा।
भौ मरजाद बहुत सुख लागा, यह लेखे सब संसय भागा।
देखत उतपति लागु न बारा, एक मरै एक करै विचारा।
मुए गए की कोई न कहई, झूठी आस लागि जग रहई।

।।साखी।।
जरत जरत ते बांचिहो, काहु न कीन्‍ह गोहारि।
विष विषय कै खायहु, राति दिवस मिलि झारि।

रमैनी-22
ऐसा योग न देखा भाई, भूला फिरै लिये गफिलाई।
महादेव को पन्‍थ चलावै, ऐसो बड़ो महन्‍त कहावै।
हाट बजारे लावै तारी, कच्‍चा सिद्ध माया प्‍यारी।
कब दत्ते मावासी तोरी, कब शुकदेव तोपची जोरी।
नारद कब बन्‍दूक चलाया, ब्‍यासदेव कब बम्‍ब बजाया।
करहिं लराई मति के मन्‍दा, ई अतीत की तरकसबन्‍दा।
भये विरक्‍त लोभ मन ठाना, सोना पहिरि लजावै बाना।
घोरा घोरी कीन्‍ह बटोरा, गांव पाय जस चले करोरा।

।।साखी।।
सुन्‍दरी न सोहै, सनकादिक के साथ।
कबहुंक दाग लगावै, कारी हांड़ी हाथ।।

रमैनी-23
अलख निरंजन लखै न कोई, जेहि बंधे बंधा सब लोई।
जेहि झूठे सब बांधु अयाना, झूठे वचन सांच कै जाना।
धंधा बंधा किन्‍ह व्‍यवहारा, करम बिवरजित बसै निनारा।
षट आश्रम षट दरसन कीन्‍हा, षटरस वास षटै वस्‍तुहिं चीन्‍हा।
चारि वृक्ष छव साख बखानै, विद्या अगनित गनै न जाने।
औरा आगम करै विचारा, ते नहि सूझै वार न पारा।
जप तीरथ व्रत कीजै बहु पूजा, दान पुन्‍य कीजै बहु दूजा।

।।साखी।।
मंदिर तौ है नेह का, मति कोइ पैठे धाय।
जो कोइ पैठे धायके, बिनु सिर सेंतिहि जाय।।

रमैनी-24
चौंतिस अक्षर का इहै विशेषा, सहस्‍त्रों नाम इहै मंह देखा।
भूलि भटकि नर फिरि घट आया, होत अजान सो सभन्हि गंवाया।
खोजहि ब्रह्मा विष्‍णु शिव शक्ति, अनन्‍त लोक खोजहि बहु भक्ति।
खोजहि गन गंधर्व मुनि देवा, अनन्‍त लोक खोजहिं बहु भेवा।

।।साखी।।
जती सती सब खोजहिं, मनहिं न मानैं हारि।
बड़-बड़ जीव न बांचि‍हैं, कहहिं कबीर पुकारि।

रमैनी-25
चंद चकोर की ऐसी बात जनाई, मानुस बुद्धि दीन्‍ह पलटाई।
चारि अवस्‍था सपनेहु कहई, झूठो फुरो जानत रहई।
मिथ्‍या बात न जानै कोई, यहि विधि सब गैल बिगोई।
आगे दै दै सबन गंवाया, मानुस बुद्धि न सपनेहु पाया।
चौंतिस अक्षर से निकलै जोई, पाप पुन्‍य जानैगा सोई।

।।साखी।।
सोई कहंता सोई होहुगे, तैं निकरि न बाहर आव।
हौं हजूर ठाढ़ कहत हौं, तैं क्‍यों धाखे जन्‍म गवांय।

रमैनी-26
अल्‍प सुख दुख आदि औ अंता, मन भुलान मैगर मै मता।
सुख विसराय मुक्ति कहं पावै, परिहरि सांच झूठ निज धावै।
अनल जोति डाहै एक संगा, नैन नेह जस जरै पतंगा।
करहु विचार जो सब दुख जाई, परिहर झूठा केरि सगाई।
लालच लागी जनम सिराई, जरा मरन नियरायल आई।

।।साखी।।
भर्म का बांधल ई जग, यहि विधि आवै जाय।
मानुष जन्‍महि पाय नर, काहे को जहंडाय।।

रमैनी-27
अंध सो दरपन वेद पुराना, दरबी कहा महारस जाना।
जस खर चंदन लादे भारा, परिमल बास न जान गंवारा।
कहहिं कबीर खोजै असमाना, सो न मिला जो जाय अभिमाना।

रमैनी-28
अपने गुण को अवगुण कहहू, इहै अभाग जो तुम न विचारहू।
तूं जियरा बहुतै दुख पावा, जल बिनु मीन कौन संच पावा।
चातृक जलहल आसै पासा, स्‍वांग धरै भवसागर की आसा।
चातृक जलहल भरै जो पासा, मेघ न बरसे चले उदासा।
राम नाम इहै निजु सारा, औरो झूठ सकल संसारा।
हरि उतंग तुम जाति पतंगा, यम घर कियहु जीव को संगा।
किंचित है सपने निधि पाई, हिय न समाय कहां धरौं छिपाई।
हिय न समाय छोरि नहिं पारा, झूठा लोभ किछउ न विचारा।
सुमृति कीन्‍ह आपु नहिं माना, तरुवर तर छर छार हो जाना।
जिव दुर्मति डोले संसारा, ते नहिं सूझे वार न पारा।

।।साखी।।
अन्‍ध भया सब डोलै, कोई न करै विचार।
कहा हमार मानै नहीं, कैसे छूटै भ्रम जार।।

रमैनी-29
जीव रूप यक अन्‍तर-वासा, अन्‍तर ज्‍योति कीन्‍ह परगासा।
इच्‍छा रूप नारि अवतरी, तासु नाम गायत्री धरी।
तेहि नारि के पुत्र तिन भयऊ, ब्रह्मा विष्‍णु महेश्‍वर नाऊं।
फिर ब्रह्मा पूछल महतारी, को तोर पुरुष केकरि तुम नारी।
तुम हम हम तुम और न कोई, तुमहिं मोर पुरुष हमहिं तोरि जोई।

।।साखी।।
बाप पूत की एकै नारी, एकै माय बिआय।
ऐसा पूत सपूत न देखा, जो बापै चीन्‍है धाय।।

रमैनी-30
वज्रहुं ते त्रिन खिन में होई, त्रिन ते वज्र् करै पुनि सोई।
निझरु नीरु जानि परिहरिया, करम का बांधल लालच करिया।
कर्म धर्म मति बुधि परिहरिया, झूठा नाम सांच लै धरिया।
रज गति त्रिविध कीन्‍ह परगासा, कर्म धर्म बुधि केर बिनासा।
रवि के उदै तार भी छीना, चर बीहर दोनों मंह लीना।
विष के खाए विष नहिं जावै, गारुड़‍ि सो जो मरत जियावै।

।।साखी।।
अलख जो लागी पलक में, पलकहि मंह डसि जाय।
विषहर मंत्र न मानै, तौ गारुड़‍ि काह कराय।।

रमैनी-31़
ज्ञानी चतुर बिचक्षण लोई, एक सयान सयान न होई।
दूसर सयान को मर्म न जाना, उत्‍पति-परलय रैनि बिहाना।
बनिज एक सबन मिलि ठाना, नेम धर्म संयम भगवाना।
हरि अस ठाकुर तजियो न जाई, बालहि बिहिस्‍त गावहिं दुलहाई।

।।साखी।।
ते नर कहां गए, जिन दीन्‍हा गुरु घोंटि।
राम नाम निजु जानि के, छाड़‍ि देहु वस्‍तु खोटि।।

रमैनी-32
दर की बात कहौ दरबेसा, बादशाह है कौने भेसा।
कहां कूच कहं करै मुकामा, मैं तोहि पूछौं मुसलमाना।
लाल जरद की नाना बाना, कवन सुरति के करहु सलामा।
काजी काज करहु तुम कैसा, घर-घर जबह करावहु भैसा।
बकरी मुरगी किन फुरमाया, किसके हुकुम तुम छुरी चलाया।
दरद न जानहु पीर कहावहु, बैता पढ़‍ि-पढ़‍ि जग भरमावहु।
कहहिं कबीर एक सैयद कहावै, आपु सरीखे जग कबुलावै।

।।साखी।।
दिन को रोजा रहतु है, राति हनत है गाय।
यह खून वह बंदगी, क्‍यों कर खुसी खोदाय।

रमैनी-33
हिरनाकुस रावन गौ कंसा, कृस्‍न गए सुर नर मुनि बंसा।
ब्रह्मा गए मर्म नहिं जाना, बड़ सब गयल जो रहल सयाना।
समुझि परी नहिं राम कहानी, निरवक दूध कि सरवक पानी।
रहिगौ पंथ थकित भौ पौना, दसो दिसा उजारि भौ गौना।
मीन जाल भौ ई संसारा। लोह की नाव पषाण की भारा।
खेवै सभै मर्म नहिं नहिं जानी, तहियो कहै रहै उतरानी।

।।साखी।।
मछरी मुख जम केंचुवा, मुसवन मुख गिरदान।
सर्पन मांहि गहेजुआ, ऐसी जात सभन की जान।।

रमैनी-34
अस जोलहा का मरम न जाना, जिन जग आय पसारिन्हि ताना।
महि अकास दुइ गाड़ खंदाया, चांद सुरज दुई नरी बनाया।
सहस्र तार लै पूरिन पूरी, अजहूं बिनय कठिन है दूरी।
कहहिं कबीर करम सो जोरी, सूत-सुसूत बिनै भल कोरी।

रमैनी-35
तेहि साहेब के लागहु साथा, दुइ दुख मेटि के होहु सनाथा।
दशरथ कुल अवतरि नहिं आया, नहिं लंका के राव सताया।
नहिं देवकी के गर्भहि आया, नहीं यशोदा गोद खेलाया।
पृथ्‍वी रवन धवन नहिं करिया, पैठि पताल नहीं बलि छलिया।
नहिं बलिराजा सो मांड़ल रारी, नहिं हरणाकुश बधल पछारी।
बराह रूप धरणी नहिं धरिया, क्षत्री मारि निक्षत्री नहिं करिया।
नहिं गोबर्धन कर गहि धरिया, नहिं ग्‍वालन संग बन बन फिरिया।
गण्‍डुकी शालिग्राम नहिं कूला, मच्‍छ कच्‍छ होय नहिं जल डोला।
द्वारावती शरीर नहिं छाड़ा, ले जगन्‍नाथ पिंड नहिं गाड़ा।

।।साखी।।
कहहिं कबीर पुकारि के, वै पन्‍थे मति भूल।
जेहि राखेउ अनुमान कै, सो थूल नहीं अस्‍थुल।

रमैनी-36
ये जियरा तैं अपने दुखहिं सम्‍हार, जेहि दुख व्‍यापि रहा संसार।
माया मोह बंधा सब लोई, अल्‍प लाभ मूल गौ खोई।
मोर तोर में सबै बिगुर्चा, जननी गर्भ वोद्र मा सूता।
बहुतक खेल खेलें बहु रूपा, जन भंवरा अस गये बहूता।
उपजि बिनशि फिर जुइनी आवै, सुख को लेश सपनेहु नहिं पावै।
दुख सन्‍ताप कष्‍ट बहु पावै, सो न मिला जो जरत बुझावै।
मोर तोर में जरे जग सारा, धृग स्‍वारथ झूठा हंकारा।
झूठी आस रही जग लागी, इन्‍हते भागि बहुरि पुनि आगी।
जेहि हित के राखेउ सब लोई, सो सयान बांचा नहिं कोई।

।।साखी।।
आपु आपु चेते नहीं, कहौं तो रुसवा होय।
कहहिं कबीर जो आपु न जागे, निरास्ति अस्ति न होय।

रमैनी-37
एक सयान सयान न होई, दोसर सयान न जानै कोई।
तीसर सयान सयानहिं खाई, चौथे सयान तहां लै जाई।
पंचये सयान न जाने कोई, छठवे मा सभ गैल बिगोई।
सतवे सयान जो जानहु भाई, लोक वेद मा देहु देखाई।

।।साखी।।
बीजक बतावै बित्त को, जो बित गुप्‍ता होय।
सब्‍द बतावै जीव को, बूझै विरला कोय।

रमैनी-38
जिन्‍ह कलमा कलि माहिं पढ़ाया, वुफदरत खोज तिनहुं नहिं पाया।
कर्मत कर्म करे करतूता, वेद कितेब भये सब रीता।
कर्मत सो जग भौ अवतरिया, कर्मत सो निमाज को धरिया।
कर्मत सुन्‍नति और जनेऊ, हिन्‍दु तुरुक न जाने भेऊ।

।।साखी।।
पानी पवन संजोय के, रचिया यह उतपात।
शून्‍यहि सूरति समोय के, कासों कहिये जात।

रमैनी-39
यहि विधि कहौं कहा नहिं माना, मारग मांहि पसारिन ताना।
राति दिवस मिलि जोरिन तागा, ओटत कातत भरम न भागा।
भरमै सभ जग रहा समाई, भरम छोड़‍ि कतहूं नहिं जाई।
परै न पूरि दिनहु दिन छीना, तहां जाय जहं अंग बिहीना।
जो मत आदि अंत चलि आई, सो मत सभ उन प्रगट सुनाई।

।।साखी।।
यह संदेसा फुरकै मानेहु, लीन्‍हेउ सीस चढ़ाय।
संतो है संतोष सुख, रहहु तो हिरदय जुड़ाय।।

रमैनी-40
सोग बधावा जिन्‍ह सम कै माना, ताकि बात इन्‍द्रहु नहिं जाना।
जटा तोरि पहिरावैं सेली, जोग जुक्ति की गर्व दुहेली।
आसन उड़ाये कौन बड़ाई, जैसे कौवा चीन्‍ह मंड़राई।
जैसी भीत तैसि है नारी, राजपाट सब गनै उजारी।
जस नरक तस चंदन जाना, जस बाउर तस रहै सयाना।
लपसी लौंग गनै एक सारा, खांड़ छाड़‍ि मुख फांकै छारा।

।।साखी।।
इहै विचार विचारते, गये बुद्ध‍ि बल चेत।
दुइ मिलि एकै होय रहा, (मैं) काहि लगावौं हेत।।

रमैनी-41
जब हम रहल रहल नहिं कोई, हमरे मांह रहल सब कोई।
कहहु राम कौन तोर सेवा, सो समुझाय कहा मोहि देवा।
फुर-फुर कहत मार सब कोई, झूठहिं झूठा संगति होई।
आंधर कहै सबै हम देखा, तहं दिठियार बैठि मुख पेखा।
यहि विधि कहौं मानु जौ कोई, जस मुख तस जौ हृदया होई।
कहहिं कबीर हंस मुसुकाई, हमरे कहल दुष्‍ट बहु भाई।

रमैनी-42
बहुत दुख दुख दुख की खानी, तब बचिहो जब रामहि जानी।
रामहि जानि जुक्ति जौं चलई, जुक्तिहिं तें फंदा नहिं परई।
जुक्तिहि जुक्ति चला संसारा, निश्‍चय कहा न मानु हमारा।
कनक कामिनी घोर पटोरा, संपत्त‍ि बहुत रहै दिन थोरा।
थोरहि संपत्त‍ि गौ बौराई, धर्मराज के खबरि न पाई।
देखि त्रास मुख गौ कुम्हिलाई, अमृत धोखै गौ विष खाई।

।।साखी।।
मैं सिरजौं मैं मारौं, मैं जारौं मैं खाउं।
जल थल नभ मंह रमि रहौं, मोर निरंजन नाउं।।

 रमैनी-43
मानिकपुर कबीर बसेरी, मद्दति सुनी शेख तकी केरी।
ऊ जे सुनी जौनपुर थाना, झूंसी सुनि पीरन को नामा।
इकइस पीर लिखे तेहि ठामा, खतमा पढ़ै पैगम्‍बर नामा।
सुनी बोल मोहि रहा न जाई, देखि मुकरबा रहा भुलाई।
हबी नबी नबी के कामा, जहं लौ अमल सो सबै हरामा।

 ।।साखी।।
शेख अकरदी शेख सकरदी, मानहु वचन हमार।
आदि अंत उतपति प्रलय, देखहु दष्टि पसार।।

रमैनी-44
पण्डित भूले पढ़‍ि-गुनि वेदा, आप अपन पौ जानु न भेदा।
संझा तर्पण और षट कर्मा, ई बहु रूप करे अस धर्मा।
गायत्री युग चारि पढ़ाई, पूछहू जाय मुक्ति किन पाई।
और के छिथे लेत हो छींचा, तुम सो कहहु कौन है नीचा।
ई गुण गर्व करो अधिकाई, अधिके गर्व न होय भलाई।
जासु नाम है गर्व प्रहरी, सो कस गर्वहि सकै सहारी।

।।साखी।।
कुल मर्यादा खोय के, खोजिन पद निर्बान।
अंकुर बीज नशाय के, नर भये विदेही बान।

रमैनी-45
वेद की पुत्री सुम्रिति भाई, सो जेंवरि कर लतहि आई।
आपुहि बरी आपु गर बंधा, झूठा मोह काल को फंदा।
बांधत बंधन छोरि न जाई, विषै रूप भूली दुनियाई।
हमरे देखत सकल जग लूटा, दास कबीर राम कहि छूटा।

।।साखी।।
रामहि राम पुकारते, जिभ्‍या परिगौ रौंस।
सूधा जल पीवै नहीं, खोदि पियन की हौंस।।

रमैनी-46
अंबु कि रासि समुद्र कि खांई, रवि ससि कोटि तैतिसो भाई।
भंवर जाल मंह आसन मांड़ा, चाहत सुख दुख संग न छांड़ा।
दुख कै मर्म न काहू पाया, बहुत भांति के जग भरमाया।
आपुहि बाउर आपु सयाना, हिरदय बसे तेहि राम न जाना।

।।साखी।।
तेई हरि तेई ठाकुर, तेई हरि के दास।
ना जम भया न जामिनी, भमिनि चली निरास।।

रमैनी-47
बिनसे नाग, गरुड़ गलि जाई, बिनसे कपटी, औ सत भाई।
बिनसे पाप पुन्‍य जिन्‍ह कीन्‍हा, बिनसे गुन निरगुन जिन चीन्‍हा।
बिनसे अगिनि पौन और पानी, बिनसे सृष्टि कहां लौ गनी।
बिस्‍नु लोक बिनसे छिन मांही, हौं देखा परलै की छांही।

।।साखी।।
मच्‍छ रूप माया भई, जबरहिं खेले अहेर।
विधि हरि हर नहिं ऊबरे, सुर नर मुनि केहि केर।।

रमैनी-48
गए राम औ गए लछमना, संग न गई सीता अस धना।
जात कौरवहिं लागु न बारा, गए भोज जिन साजल धारा।
गए पांडु कुन्‍ती ऐसी रानी, गये सहदेव जिन बुधि मति छानी।
सर्व सोने की लंक उठाई, चलत बार कछु संग न लाई।
जाकी कुरिया अंतरिछ छाई, सो हरिचन्‍द देखल नहिं जाई।
मुरख मानुसा बहुत संजोवै, अपने मरे अवर लगि रोवै।
ई ना जानै अपनौं मरि जैबे, टका दस बढै अवर लै खैबे।

।।साखी।।
अपनी अपनी करि गए, लागि न काहु के साथ।
अपनी करि गो रावणा, अपनी दसरथ नाथ।।

रमैनी-49
महादेव मुनि अंत न पाया, उमा सहित उन्‍ह जन्‍म गंवाया।
उनहुते सिध साधक नहिं कोई, मन निश्‍चय कहु कैसे होई।
जो लगि तन में आई सोई, तब लगि चेति न देखै कोई।
तब चेतिहौ जब तजिहहु प्राना, भया अयान तब मन पछिताना।
इतना सुनत निकट चलि आई, मन का विकार नहिं छूटी भाई।

।।साखी।।
तीनि लोक मुवा कौ आय के, छूटि न काहु कि आस।
इक अंधरे जग खाइया, सबका भया बिनास।।

रमैनी-50
जरासिंधु सिसुपाल संहारा, सहस्‍त्रार्जुन छल ते मारा।
बड़ छल रावन सो गौ बीती, लंका रहल कंचन की भीती।
दुरजोधन अभिमानहि गैऊ, पांडव केर मर्म नहिं पैऊ।
माया के डिंभ गैल सभ राजा, उत्तम मद्धि‍म बाजन बाजा।
छौ चकवे बिति धरनि समाना, एको जीव परतीत न आना।
कहं लगि कहौं अचेतहि गैऊ, चेत अचेत झगरा एक भैऊ।

।।साखी।।
ई माया जग मोहिनी, मोहिसि सब जग धाय।
हरीचन्‍द सत कारने, घर घर सोक बिकाय।।

रमैनी-52
जाकर नाम अकहुआ रे भाई, ताकर काह रमनी गाई।
कहौं तातपर्ज एक ऐसा, जस पंथी बोहित चढ़‍ि वैसा।
है कछु रहनि गहनि की बाता, बैठा रहे चला पुनि जाता।
रहै बदन नहिं स्‍वांग सुभाऊ, मन अस्थिर नहिं बोलै काहू।

।।साखी।।
तन राता मन जात है, मन राता तन जाय।
तन मन एकै होय रहै, हंस कबीर कहाय।।

रमैनी-53
तहिया होते गुप्‍त अस्‍थूल न काया, न ताके सोग ताकि पै माया।
कंवल पत्र तरंग एक माहीं, संगहिं रहै लिप्‍त पै नाहीं।
आस ओस अण्‍ड मा रहई, अगणित अण्‍ड न कोई कहई।
निराधार आधार ले जानी, राम नाम ले उचरी बानी।
धर्म कहै सब पानी अहई, जाती के मन पानी अहई।
ढोर पतंग सरे घरियारा, तेहि पानी सब करै अचारा।
फन्‍द छोड़‍ि जो बाहर होई, बहुरि पन्‍थ नहिं जोहै सोई।

।।साखी।।

भरम का बांधा यह जग, कोई न करै विचार।
एक हरि की भक्ति जाने बिना, भौ बूड़‍ि मुवा संसार।।

रमैनी-54
चढ़त चढ़ावत भंड़हर फोरी, मन नहिं जानै केकर चोरी।
चोर एक मूसै संसारा, बिरला जन कोइ बूझनि हारा।
स्‍वर्ग पताल भूमि लै बारी, एकै राम सकल रखवारी।

।।साखी।।
पाहन होय होय सब गए, बिनु भितियन के चित्र।
जासों कियहु मिताईया, सो धन भया न हित्त।।

रमैनी-55
दिन दिन जरै जलनी के पाऊं, गाढ़े जाय न उमंगे काऊ।
कंध न देई मसखरी करई, कहु धौं कौनि भांति निस्‍तरई।
अकरम करै औ करम को धावै, पढ़‍ि गुनि वेद जगत समुझावै।
छूंछे परै अकारथ जाई, कहहिं कबीर चित्त चेतहु भाइ।

रमैनी-56
ब्रह्मा को दीन्‍हो ब्रह्माण्‍डा, सात द्वीप पुहुमी नव खण्‍डा।
सत्त सत्त कै बिस्‍नु दिठाई, तीनि लोक मंह राखिनि जाई।
लिंग रूप तब संकर कीन्‍हा, धरती कीलि रसातल दीन्‍हा।
तब अष्‍टंगी रची कुमारी, तीनि लोक मोहिनि सभ झारी।
दुतिया नाम पारवती भैऊ, तप करते संकर कंह दैऊ।
एकै पुरुष एक है नारी, ताते रचेउ खानि भौ चारी।
सर्मन वर्मन देव औ दासा, रज सत तमगुन धरति अकासा।

।।साखी।।
एक अंड ओंकार ते, सब जब भयो पसार।
कहहिं कबीर सब नारि की, अविचल पुरुष भ्रतार।।

रमैनी-57
चली जात देखी एक नारी, तर गागरि ऊपर पनिहारी।
चली जात वह बाटहिं बाटा, सोवनहार के ऊपर खाटा।
जाड़न मरै सफेदी सौरी, खसम न चीन्‍है घरनि भौ बौरी।
सांझ सकार दिया लै बारै, खसम छोंडि संबरे लगवारै।
वाही के रस निसु दिन राची, पिय सो बात कहै नहिं सांची।
सोवत छांडि चली पिय अपना, ई दु:ख अबधौं कहै केहि सना।

।।साखी।।
अपनी आंघ उघारि कै, अपनी कही न जाय।
की चित जानै आपना, की मेरो जन गाय।।

रमैनी-58
मरि गए ब्रह्मा कासी के वासी, सीव सहित मुए अविनासी।
मथुरा मरिगो कृस्‍न गुवारा, मरि मरि गए दसौ अवतारा।
मरि मरि गए भगति जिन ठानी, सरगुन महं निरगुन जिनि आनी।

।।साखी।।
नाथ मछंदर बांचे नहीं, गोरख दत्त औ व्‍यास।
कहहिं कबीर पुकारिकै, ई सभ परे काल के फांस।।

रमैनी-59
क्रितिया सूत्र लोक एक अहई, लाख पचास कै आयू कहई।
विद्या वेद पढै पुनि सोई, वचन कहत परतछै होई।
पैठी बात विद्या के पेटा, बाहूक भर्म भया संकेता।

।।साखी।।
खग खोजन को तुम परे, पीछे अगम अपार।
बिनु परचै कस जानिहौ, कबीर झूठा है हंकार।

रमैनी-60
छांड़हु पति छांड़हु लबराई, मन अभिमान टूटि तब जाई।।
जिन ले चोरी भिच्‍छा खाहीं, सो बिरवा पलुहावन जाहीं।
पुनि सम्‍पत‍ि औ पति को धावै, सो बिरवा संसार लै आवै।

।।साखी।।
झूठ-झूठ कै डारहु, मिथ्‍या यह संसार।
तेहि कारन मैं कहत हौं, जाते होय उबार।।

रमैनी-61
देव चरित्र सुनहु रे भाई, सो तो ब्रह्मा धियेऊ नसाई।
ऊ जे सुनी मंदोदरि तारा, जेहि घर जेठ सदा लगबारा।
सुरपति जाय अहिल्‍या छरी, सुरगुरु घरनि चंद्रमै हरी।
कहै कबीर हरि के गुन गाया,  कुंती कर्ण कुंवारहिं जाया।

रमैनी-62
कहइत मोहि भयल जुग चारी, समुझत नाहिं मोर सुत नारी।
बंसहि आगि लगि बंसै जरिया, भर्म भूलि नर धंधे परिया।
हस्तिनि के फंदे हस्‍ती रहई, मृगी के फंदे मृगा परई।
लौहे-लोह जस काटि सयाना, त्रिया कै तत्तु त्रिया पहिचाना।

।।साखी।।
नारि रचंते पुरुषा, पुरुषा रचंते नार।
पुर्षहिं पुर्षा जो रचे, ते बिरला संसार।।

रमैनी-63
तैं सुत मानु हमारी सेवा, तो कंह राज देइहों देवा।
अगम दर्गम गढ़ देउं छुड़ाई, औरौ बात सुनहु कछु आई।
उतपति परले देउं देखाई, करहु राज सुख विसहु जाई।
एकौ बार न होइहै बांको, बहुरि जन्‍म नहिं होइहै ताको।
जाई पाप सुख होइहैं घना, निस्‍चै वचन कबीर के माना।

।।साखी।।
साधु संत तेई जना, जिन्‍ह मानहिं वचन हमार।
आदि अंत उतपति प्रलय, देखहु दष्टि पसार।।

रमैनी-64
काया कंचन जतन कराया, बहुत भांति कै मन पलटाया।
जौ सौ बार कहौं समुझाई, तैयो धरो छोरि नहीं जाई।
जन के कहे जनै रहि जाई, नवौ निद्धि सिद्धि तिन पाई।
सदा धर्म जाकै हृदया बसई, राम कसौटी कसतै रहई।
जौ रे कसावै अनतै जाई, सो बाउर आपुहि बौराई।

।।साखी।।
तातै परी काल की फांसी, करहु आपनो सोच।
जहां संत तहां संत सिधाये, म‍िलि रहा पोचहि पोच।।

रमैनी-65
धर्म कथा जो कहतै रहई, लाबरी उठि जो प्रातै कहई।
लाबरि बिहाने लाबरि संझा, इक लाबरि बसे हिरदया मंझा।
रामहुं केर मरमु नहिं जाना, लै मत‍ि ठानिन्हि वेद पुराना।
वेदहु केर कहल नहिं करई, जरतहिं रहै सुस्‍त नहिं परई।

।।साखी।।
नाना नाच नचाय के, नाचै नट के भेख।
घट घट अविनासी बसै, सुनह तकी तुम सेख।

रमैनी-67
औ भूले षट दर्शन भाई, पाखण्‍ड भेष रहा लपटाई।
जीव शीव का आहि नशौना, चारिउ वेद चतुर्गण मौना।
जैनि धर्म का मर्म न जाना, पाती तोरि देव घर आना।
दवना मरुवा चम्‍पा के फूला, मानहु जीव कोटि सम तूला।
औ पृथ्‍वी के रोम उचारे, देखत जन्‍म आपनो हारे।
मन्‍मथ बिन्‍दु करै असरारा, कल्‍पै बिन्‍द खसे नहिं द्वारा।
ताकर हाल होय अदबूदा, छौ दर्शन में जैनि बिगुर्चा।

।।साखी।।
ज्ञान अमर पद बाहिरे, नियरे ते है दूरि।
जो जाने ताके निकट है, नहिं तो रहा सकल घट पूरि।।

रमैनी-68
तेहि वियोगते भयउ अनाथा, परेउ कुंज बव पावै न पन्‍था।
वेदो नकल कहै जो जाने, जो समझै सो भलो न माने।
नटवट विद्या खेलै जो जानै, तेहि गुण को ठाकुर भल मानै।
उहै जो खेलै सब घट माहीं, दूसर कै कछु लेखा नाहीं।
भलो पोच जो अवसर आवै, कैसहु कै जन पूरा पावै।

।।साखी।।
जेकर शर तेहि लागे, सोइ जानेगा पीर।
लागे तो भागे नहीं, सुख सिन्‍धु निहार कबीर।

रमैनी-69
देह हलाय भक्ति नहिं होई, स्‍वांग धरे नर बहु विधि जोई।
धींगी धींगा भलो न माना, जो काहू मोहि हृदया जाना।
मुख कछु और हृदय कछु आना, सपनेहु काहु मोहि नहिं जाना।
ते दुख पइहैं ई संसारा, जो चेतहु तो होय उबारा।
जो गुरु किंचित निन्‍दा करई, सूकर श्‍वान जन्‍म ते धरई।

।।साखी।।
लख चौरासी जीव जन्‍तु में, भटकि भटकि दुख पाव।
कहहिं कबीर जो रामहिं जानै, सो मोहिं नीके भाव।

रमैनी-70
सुमृति आहि गुणन को चीन्‍हा, पाप पुण्‍य को मारग कीन्‍हा।
सुमृति वेद पढ़ें असरारा, पाखण्‍ड रूप करें हंकारा।
पढ़ें वेद औ करें बड़ाई, संशय गांठि अजहुं नहिं जाई।
पढ़ें शास्‍त्र जीव बध करई, मूंडि काटि अगमन के धरई।

।।साखी।।
कहहिं कबीर ई पाखण्‍ड, बहुतक जीव सताव।
अनुभव भाव न दरशै, जियत न आपु रखाव।।

रमैनी-71
जेहि कारन सिव अजहुं वियोगी, अंग विभूति लाय भौ जोगी।
सेस सहस मुख पार न पावा, सो अब खसम सही समुझावा।
ऐसी विधि जो मो कहं ध्‍यावै, छठये मांह दरस सो पावै।
कौनेहू भाव दिखाई देऊं, गुप्‍तै रहौ स्‍वभाव सब लेहो।

।।साखी।।
कहहिं कबीर पुकारि के, सभ का उहै विचार।
कहा हमार मानै नहीं, कैसे छूटै भ्रम जार।।

रमैनी-72
जिन्‍ह जिव कीन्‍ह आपु विश्‍वासा, नरक गये तेहि नरकहि बासा।
आवत जात न लागे बारा, काल अहेरी सांझ सकारा।
चौदह विद्या पढ़‍ि समझावा, अपने मरण की खबरि न पावा।
जाने जीव को परा अंदेसा, झूठहि आय के कहा संदेसा।
संगत छाड़‍ि करे असरारा, उबहै मोट नरक कर भारा।

।।साखी।।
गुरु द्रोही मन्‍मुखी, नारी पुरुष विचार।
ते नर चौरासी भर‍म‍िहैं, ज्‍यौं लौं चन्‍द्र दिवाकार।।

रमैनी-73
आदम आदि सुधि नहिं पाई, मामा हवा कहां ते आई।
तब नहिं होते तुरुक औ हिन्‍दू, माय के रुधिर पिता के बिन्‍दू।
तब नहिं होते गाय कसाई, तब बिस‍म‍िल्‍ला किन फुरमाई।
तब नहिं होते कुल और जाती, दोजख बिहिस्‍त कौन उतपाती।
मन मसले की सुधि नहिं जाना, मति भुलान दुइ दान बखाना।

।।साखी।।
संजोगे का गुण रवै, बिजोगे का गुण जाय।
जिभ्‍या स्‍वारथ कारणे, नर कीन्‍हें बहुत उपाय।।

रमैनी-74
सुख के वृक्ष एक जगत उपाया, समुझि न परै बिषै कछु माया।
छव छत्री पत्री जुग चारी, फल दुइ पाप पुन्‍य अधिकारी।
स्‍वाद अनन्‍त कछु बरनि न जाई, करि चरित्र सो ताहि समाई।
नटवर सारे साज साजिया, जो खेलै सो देख बाजिया।
मोहा बपुरा जुक्ति न देखा, सिव सक्ति बिरंचि नहिं पेखा।

।।साखी।।
परदे परदे चलि गए, समुझि परी नहिं बानि।
जो जानहि सो बांचिहै, नहीं तो होत सकल की हानि।।

रमैनी-75
नारि एक संसारहि आई, माय न बाके बापहिं जाई।
गोड़ न मूड न प्रान अधारा, तामंह भर‍ि रहा संसार।
दिना सात लौं उनकी सही, बुद अदबुद अचरज का कही।
बाकी बंदन करे सब कोई, बुद अदबुद अचरज बड़ होई।

।।साखी।।
मूस बिलाई एक संग, कहु कैसे रहि जाय।
अचरज एक देखो हो संतो, हस्‍ती सिंघहि खाय।।

रमैनी-76
क्षत्री करे क्षत्रिया धर्मा, सवाई वाके बाढ़े कर्मा।
जिन अवधू गुरु ज्ञान लखाया, ताकर मन ताही ले धाया।
क्षत्री सो जो कुटुम सो जूझै, पांचौ मेटि एक कै बूझै।
जीव मारि जीव प्रतिपारे, देखत जन्‍म आपनो हारे।
हाले करे निशाने घाऊ, जूझि परे तहां मन्‍मथ राऊ।

।।साखी।।
मन्‍मथ मरै न जीवै, जीवहि मरण न होय।
शून्‍य-सनेही राम बिनु, चले अपन पौ खोय।।

रमैनी-77
बोलना कासों बोलिय भाई, बोलत ही सब तत्तु नसाई।
बोलत बोलत बाढ़ विकारा, सो बोलिये जो परै विचारा।
म‍िलै जु संत वचन दुइ कहिए, म‍िलै असंत मौन होय रहिए।
पण्डित सो बोलिय हितकारी, मूरख ते रहिये झख मारी।
कहहिं कबीर अर्ध घट डोले, पूरा होय विचार लै बोले।


रमैनी-78
माया मोह सकल संसारा, इहै विचार न काहु विचारा।
माया मोह कठिन है फन्‍दा, करे विवेक सोई जन बन्‍दा।
राम नाम ले बेरा धारा, सो तो ले संसारहि पारा।

।।साखी।।
राम नाम अति दुर्लभ, औरे ते नहिं काम।
आदि अन्‍त औ युग-युग, मोहि रामहि ते संग्राम।।

रमैनी-79
कबहुं न भयउ संग अरु साथा, ऐसो जनम गवांयउ आछा।
बहुरि न पइहउ ऐसा थाना, साधु संगति तुम नहिं पहिचाना।
अब तोर होय है नरक महं बासा, निसु दिन बसेउ लबार के पासा।

।।साखी।।
जात सबन कहं देखिया, कहहिं कबीर पुकार।
चेतवा है तो चेत लै नहिं तो, दिवसु परतु है धार।

रमैनी-80
बढ़वत बढ़ी घटावत छोटी, परखत खरी परखावत खोटी।
केतिक कहौं कहां लौ कही, औरौ कहौं परै जो सही।
कहे बिना मोहि रहा न जाई, बिरही लै लै कूकुर खाई।

।।साखी।।
खाते खाते जुग गया, बहुरि न चेतहु आय।
कहहिं कबीर पुकारिकै, ये जिब अचेतहि जाय।।

रमैनी-81
बहुतक साहस करु जिय अपना, तेहि साहब सों भेंट न सपना।
खरा खोट जिन नहिं परखाया, चहत लाभ तिन्‍ह मूल गमाया।
समुझि न परै पातरी मोटी, औछी गांठि सबै भौ खोटी।
कहै कबीर केहिं देहौ खोरी, जब चलिहौ झिझि आसा तोरी।

।।साखी।।
झीं झीं आसा मंह लगे, ज्ञानी पंडित दास।
पार न पावहिं बापुरे, भरमत भरमत फिरहिं उदास।।

रमैनी-82
पढ़‍ि-पढ़‍ि पंडित करु चतुराई, निज मुक्‍ती मोहिं कहु समुझाई।
कहां बसे पुरुष कौन सा गाऊं, पंडित मोहिं सुनावहु नाऊं।
चारि वेद ब्रह्मै निज ठाना, मुक्तिक मर्म उनहुं नहिं जाना।
दान-पुन्‍य उन बहुत बखाना, अपने मरन की खबरि न जाना।
एक नाम है अगम गंभीरा, तहवां स्थिर दास कबीरा।

।।साखी।।
चिउंटी जहां न चढ़ि‍ सकै, राई ना ठहराय।
आवागमन की गम नहीं, तहं सकलो जग जाय।।

रमैनी-83
सोई हित बंधु मोहि भावै, जात कुमारग मारग लावै।
सो सयान मारग रहि जाई, करै खोज कबहुं न भुलाई।
सो झूठा जो सुत को तजई, गुर की दया राम ते भजई।
किंचित है एक तेज भुलाना, धन सुत देखि भया अभिमाना।

।।साखी।।
दिया न खताना किया पयाना, मन्दिर भया उजार।
मरि गए सो मरि गए, बांचे बांचनिहार।।

रमैनी-84
एकै काल सकल संसारा, एक नाम है जगत पियारा।
त्रिया पुरुष कछु कथ्‍यो न जाई, सर्बरूप जग रहा समाई।
रूप निरूप जाय नहिं बोली, हलुका गरुवा जाय न तौली।
भूख न तृषा धूप नहिं छाहीं, दुख सुख रहित रहै तेहि माहीं।

।।साखी।।
अपरं परं रूप मगुरंगी, आगे रूप निरूप न भाय।
बहुत ध्‍यान कै खोजिया, नहिं तेहि संख्‍या आय।।