कबीर के दोहे

गुरु गोविन्‍द दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्‍द दियो मिलाय।।1

गुरु नारायन रूप है, गुरु ज्ञान को घाट।
सतगुरु बचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट।।2

जैसी प्रीति कुटुंब की, तैसी गुरु सों होय।
कहें कबीर ता दास को, पला न पकड़े कोय।।3

गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्‍य समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरु दीन्‍हीं दान।।4

गुरु को मानुष जानते, ते नर कहिए अन्‍ध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फन्‍द।।5

गुरु पारस को अन्‍तरो, जानत हैं सब संंत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।6

गुरु की आज्ञा आवई, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत है, आवागमन नशाय।।7

गुरु महिमा गावत सदा, मन राखे अति मोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद।।8

सुनिये सन्‍तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति है, कीजे सोइ उपाय।।9

गुरु गोविन्‍द करि जानिये, रहिये शब्‍द समाय।
मिलै तो दण्‍डवत बंदगी, नहिं पल पल ध्‍यान लगाय।।10

गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबहै संता।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत।।11

तन मन ताको दीजिए, जोको विषया नाहि।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब माहिं।।11

गुरु शरणागत छाड़‍ि के, करै भरोसा और।
सुख सम्‍पति को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।12

कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि के रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।13

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लिखै न सत्‍य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।14

कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।।15

गुरु मूरति गति चन्‍द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर।।16

कहैं क‍बीर तजि भरम को, नन्‍हा है कर पीव।
तजि अहँ गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव।।17

गुरु सों ज्ञान जो लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान।।18

गुरु गोविन्‍द दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटैं हरि भजैं, तब पावे दीदार।।19

जल परमानै माछली, कुल परमानै सुद्धि।
जाको जैसा गुरु मिला, ताको तैसी बुद्धि।।20

अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।21

पंडित पढि़ गुनि पचि मुये, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त सब्‍द परमान।।22

गुरु को कीजै दण्‍डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान।।23

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्‍वास।
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास।।24

मूल ध्‍यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्‍य सतभाव।।25

लच्‍छ कोस जो गुरु बसै दीजै सुरति पठाय।
शब्‍द तुरी असवार है, छिन आवै छिन जाय।।26

सब धरती कागद, करुं, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करुं, गुरु गुण लिखा न जाय।।27

गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहिं।
उन्‍हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं।।28

जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि।
शीष भाव सुत जानिये, सुत ते श्रेष्‍ठ शिष आहि।।29

गुरु को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं।।30

कोटिन चन्‍दा अगही, सूरज कोटि हजार।
तीमिर तो नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार।।31

लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोइ इक ऊजल होय।।32

गुरु सेवा जन बन्‍दगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवे भाग।।33

गुरु कुम्‍हार शिष कुंभ है, गढ़ि‍-गढ़‍ि काढ़े खोट।
अन्‍तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।34

कबीर हरि के रूठते, गुरु के शरणै जाय।
कहैं कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय।।35


सद्गुरु को अंग

सचुपाया सुख ऊपजा, दिल दरिया भरपूर।
सकल पाप सहजे गया, सतगुरु मिले हजूर।।1

चारि खानि में भरमता, कबहु न लगता पार।
सो फेरा सब मिटि गया, सतगुरु के उपकार।।2

जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामे निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान।।3

बिन सद्गुरु बाचै नहीं, फिर बूड़े भव मांहि।
भौसागर की त्रास से, सतगुरु पकड़े बाहि।।4

चित चोखा मन निरमला, बुधि उत्तम मति धीर।
सो धोखा नहिं बिरहहीं, सतगुरु मिले कबीर।।5

सतगुरु मेरा शूरमा, तकि तकि मारै तीर।
लागे पन भागे नही, ऐसा दास कबीर।।6

सतगुरु महिमा अनंत है, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावन हार।।7

यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्‍यागि के, चलै सो भव जल जीत।।8

सतगुरु शरण न आवहीं, फिर‍ि फिरि होय अकाज।
जीव खोय सब जायेंगे, काल तिहूं पुर राज।।9

सतगुरु सम को है सगा, साधु सम को दात।
हरि समान को है हितु, हरिजन सम को जात।।10

कबीर समुझा कहत है, पानी थाह बताय।
ताकूं सतगुरु को करे, जो औघट डूबे जाय।।11

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्‍ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इक-इस ब्रह्मण्‍ड।।12

सतगुरु सांचा शूरमा, नख शिख मारा पूर।
बाहिर घाव न दीखई, अन्‍तर चकनाचूर।।13

केते पढि गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपय।।14

सतगुरु की मानै नहीं, अपनी कहै बनाय।
कहैं कबीर क्‍या कीजिए, और मता मन माय।।15

मनहि दिया निज सब दिया, मन के संग शरीर।
अब देवे तो क्‍या रहा, यों कथि कहहिं कबीर।।16

सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्‍य शीष धन भाग तिहिं, जो ऐसी सुधि पाया।।17

सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्यौ एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भींजि गयो सब अंग।।18

सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भांडा तोड़‍ि करि, रहै निराला होय।।19

पाछे लागे जाय था, लोक वेद के साथ।
पैडे में सतगुरु मिले, दीपक दीन्‍हा हाथ।।20

जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव।।21

सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय।
माता-पिता सुत बांधवा, ये तो घर घर होय।।22


गुरु पारख को अंग

गुरवा तो सस्‍ता भया, पैसा केर पचास।
राम नाम धन बेचि के, शिष्‍य करन की आस।।1

गुरु नाम है गम्‍य का, शीष सीख ले सोय।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय।।2

कहता हूं कहि जात हूं, देता हूं हेला।
गुरु की करनी गुरु जाने, चेला की चेला।।3

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्‍हा नांहि।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खांहि।।4

गुरु बिचारा क्‍या करै, शब्‍द न लागा अंग।
कहै कबीर मैली गजी, कैसे लागै रंग।।5

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खानद्य
सीस दिये तो गुरु मिले, तो भी सस्‍ता जान।।6

गु अंधियारी जानिये, रु कहिये परकास।
मिटे अज्ञान तम ज्ञान ते, गुरु नाम है तास।।7

कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार।
पापी का पापी गुरु, यो बूड़ा संसार।।8

जानीता बूझा नहीं, बूझि किया नहिं गौन।
अंधे को अंधा मिले, राह बताये कौन।।9

भेदी लीया साथ करि, दीन्‍हा वस्‍तु लखाय।
कोटि जनम का पंथ था, पल में पहुंचा जाय।।10

गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दोनों बूड़े, बापुरे, चढ़‍ि पाथर की नांव।।11

सो गुरु निसदिन बन्दिये, जासों पाया राम।
नाम बिना घट अंध है, ज्‍यो दीपक बिन धाम।।12

आगे अन्‍धा कूप में, दूजा लिया बुलाय।
दोनो डूबे बापुरे, निकसे कौन उपाय।।13

जा गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय।
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुंचा जाय।।14

गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव।
सोई गुरु नित बन्दिये, शब्‍द बताये दाव।।15

झूठे गुरु के पक्ष को, तजज न कीजै बार।
द्वार न पावै शब्‍द का भटके बारम्‍बार।।16

जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिनकी जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्‍यागत देर न लाय।।17

सांचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचल से निश्‍चल भया, नहिं आवै नहिं जाय।।18

जाका गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्‍धे को अन्‍ध मिला, पड़ा काल के फन्‍दा।।19

पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख।
स्‍वांग यती का पहिन के, घर-घर मांगी भीख।।20

सद्गुरु ऐसा कीजिए, लोभ मोह भ्रम नाहिं।
दरिया सो न्‍यारा रहे, दीसे दरिया माहिं।।21

बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुड़ाय।।22



गुरु शिष्‍य हेरा को अंग

गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि।
बिना बिचारे गुरु करे, परै चौरासी खानि।।1

गुरु तो ऐसा चाहिए, शिष सो कछु न लेय।
शिष तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।।2

गुरु भया नहिं शिष भया, हिरदे कपट न जाय।
आलो पालो दुख सहै, चढ़‍ि पाथर की नाव।।3

स्‍वामी सेवक होय के, मन ही मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रहिए मन के मांय।।4

जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहिरै पानी पैठ।
मैं बंपरा बडने डरा, रहा किनारे बैठ।।5

ऐसा कोई ना मिला, हम को दे उपदेश।
भवसागर में डूबते, कर गहि काढे केश।।6

जैसा ढूंढत में फिरुं, तैसा मिला न कोय।
ततवेता तिरंगुन रहित, निरगुन सों रत होय।।7

शिष्‍य पूजै गुरु आपना, गुरु पूजे सब साध।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध।।8

देश देशान्‍तर मैं फिरुं, मानुष बड़ा सुकाल।
जा देख सुख उपजे, वाका पड़ा दुकाल।।9

ऐसा काई ना मिला, जासू कहुं निसंक।
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक।।10

हिरदे ज्ञान न उपजे, मन परतीत न होय।
ताको सदगुरु कहा करे, घनघसि कुल्‍हर न होय।।11

सरबस सीस चढ़ाइये, तन कृत सेवा सार।
भूख प्‍यास सहे ताड़ना, गुरु के सुरति न‍िहार।।12


निगुरा को अंग

साकट ते संत होत है, जो गुरु मिले सुजान।
राम-नाम निज मंत्र दे, छुड़ावै चारों खान।।1

जो कामिनी पड़दै रहे, सुनै न गुरुमुख बात।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारै गात।।2

कबीर हृदय कठोर के, शब्‍द न लागै सार।
सुधि बुधि के हिरदे विधे, उपजे ज्ञान विचार।।3

हरिया जानै रुखड़ा, उस पानी का नेह।
सूखा काठ न जानि है, कितहूं बूड़ा मेह।।4

कबीर लहरि समुद्र की, मोती बिखरे आय।
बगुला परख न जानई, हंसा चुनि चुनि खाय।।5

कबीर हरिरस बरसिया, गिरि परवत बनराय।
नीर निवानु ठाहरै, ना वह छापर डाय।।6

पशुवा सों पालौ पर्यो, रहु रहु हिया न खीज।
ऊषर बीज न ऊगसी बोवै दूना बीज।।7

आंखौं देखा घी भला, ना मुख मेला तेल।
साधु सों झगड़ा भला, ना साकट सों मेल।।8

चौसठ दीवा जोय के, चौदह चन्‍दा माहिं।
तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।।9

साकट का मुख बिंब है, निकसत बचन भुवंग।
ताकी औषधि मौन है, विष नहिं व्‍यापै अंग।।10

साकट संग न बैठिये, करन कुबेर समान।
ताके संग न चालिये, पड़‍ि हैं नरक-निदान।।11

कबीर गुरु की भक्ति बिनु, राजा रासभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।12

निगुरा ब्राह्मण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भुंके द्वार।।13

कंचन मेरु अरपहीं, अरपै कनक भण्‍डार।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहुं न पावै पार।।14

साकट सूकर कूकरा, तीनो की गति एक।
कोटि जतन परमोधिये, तऊ न छाडै टेक।।15

गगन मंडल के बीच में, तहवां झलकै नूर।
निगुरा महल न पावई, पहुंचेगा गुरु पूर।।16

हरिजन आवत देखि के, मोहड़ो सूख गयो।
भाव भक्ति समुझायो नहीं, मूरख चूकि गयो।।17

साकट कहा न कहिं चलै, सुनहा कहा न खाया।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय।।18

गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन सब निष्‍फल गया, पूछौ वेद पुरान।।19

सूता साधु जगाइये, करै ब्रह्म को जाप।
ये तीनों न जगाइये, साकट सिंह अरु सांप।।20

हरिजन की लातां भलीं, बुरि साकट की बात।
लातों में सुख ऊपजे, बाते इज्‍जत जात।।21

शुकदेव सरिखा फेरिया, तो को पावै पारा।
गुरु बिन निगुरा जो रहै, पड़े चौरासी धार।।22


साधु को अंग

कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय।
जो होवै सूली सजा, कांटे ई टरि जाय।।1

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरि भरि भेटिये, पाप शरीरा जाय।।2

तीरथ न्‍हाये एक फल, साधु मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहैं कबीर विचार।।3

कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि।
ज्‍यों उद्यम से लक्ष्‍मी, आलस मन से हानि।।4

दरशन कीजै साधु का, दिन में कई कई बार।
असोजा का मेह ज्‍यों, बहुत करे उपकार।।5

कई बार नहिं कर सके, दोय बख्‍त करि लेय।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय।।6

दोख बखत नहिं करि सके, दिन में करु इक बार।
कबीर साधु दरश ते, उतरे भौजल पार।।7

एक दिना नहिं करि सके, दूजे दिन कर लेह।
कबीर साधु दरश ते, पावै उत्तम देह।।8

दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करु जाय।
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फल पाय।।9

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करु जाय।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय।।10

बार-बार नहिं करि सकै, पाख-पाख करि लेय।
कहैं कबीर सो भक्‍त जन, जन्‍म सुफल करि लेय।।11

पाख पाख नहिं करि सकै, मास-मास करु जाय।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुझाय।।12

मास-मास नहिं कर‍ि सकै, छठै मास अलबत्त।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत।।13

सन्‍त मिले सूख उपजै, दुष्‍ट मिले दुख होय।
सेवा कीजै सन्‍त की, जनम कृतारथ होय।।14

छठे मास नहिं करि सकै, बरस दिन करि लेय।
कहैं कबीर सो भक्‍तजन, जमहिं चुनौती देय।।15

बरस बरस नहिं करि सकै, ताको लागे दोष।
कहैं कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै मोष।।16

मात पिता सुत स्‍त्री, आलस बन्‍धु कानि।
साधु दरश को जब चलै, ये अटकावै आनि।।17

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय।
कबीर साई संत जन, मोक्ष मुक्ति फल पाय।।18

साधु शब्‍द समुद्र है, जामें रतन भराय।
मन्‍द भाग मुट्ठी भरै, कंकर हाथ लगाय।।19

संगत कीजै साधु की, कभी न निष्‍फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।20

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्‍द विचार।
जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार।।21

साधु मिले यह सब टलै, काल-हाल जम चोट।
शीश नवावत ढहि परै, अघ्‍ज्ञ पापन के पोट।।22

साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहिं।।23

दया गरीबी बन्‍दगी, समता शील सुभाव।
ये ते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सद्भाव।।24

कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर।
जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर।।25

साधु कहावन कठिन है, ज्‍यों खांड़े की धार।
डगमगाय तो गिर पड़े, निहचल उतरे पार।।26

दुख सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्‍याप।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप।।27

साधु बड़े परमारथी, धन ज्‍यों बरसे आय।
तपन बुझावैं और की, अपनो पारस लाय।।28

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।
जीवत जस है जगत में, अन्‍त परम पद पाय।।29

साधु आवत देखि कर, हंसी हमारी देह।
माथा का ग्रह ऊतरा, नैनन बढ़ा स्‍नेह।।30

साधु भौंरा जग कली, निश दिन फिरै उदास।
टुक टुक तहां बिलंबिया, जहं शीतल शब्‍द निवास।।31

मानपमान न चित्त धरै, औरत को सनमान।
जो कोई आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान।।32

साधु जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि।
अपने मत गाढ़ा रहै, साधुन का मय येहि।।33

जो सुख को मुनिवर रटैं, सुन नर करै विलाप।
सो सुख सहजै पाइया, सन्‍तों संगति आप।।34

कबीर शीतल जल नहीं, हिम ना शीतल होय।
कबीर शीतल सन्‍त जन, राम सनेही सोय।।35

साधु आवत देखि के, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गांव की खोर।।36

कबीर लौंग, इलायची, दातुन माटी पानि।
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि।।37

हरि दरबारी साधु हैं, इन ते सब कुछ होय।
बेगि मिलावें राम को, इन्‍हें मिले जु कोय।।38

संत मिले जनि बीछरो, बिछरो यह मम प्रान।
शब्‍द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन।।39

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहि।।40

निर्बेरी निहकामता, स्‍वामी सेती नेह।
विषया सो न्‍यारा रहे, साधुन का मत येह।।41

सरवर तरवर संत जन, और चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह।।42

कोई आवै भाव लै, कोई अभाव ले आव।
साधु दाऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव।।43

टूका माही टक दे, चीर माहि सो चीर।
साधु देत न सकुचिये, यों कथि कहहिं कबीर।।44

साधु कहावन कठिन है, लम्‍बा पेड़ खजूर।
चढ़ै तो चाखे प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर।।45

साधु आया पाहना, मांगै चार रतन।
धुनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्‍न।।46

साधु चलत रो दीजिए, कीजै अति सनमान।
कहैं कबीर कछु भेट धरु, अपने बित्त अनुमान।।47

खाली साधु न बिदा करु, सुन लीजै सब कोय।
कहैं कबीर कछु भेंट धरु, जो तेजे घर होय।।48

साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह।
इन मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करि लेह।।49

यह कलियुग आयो अबै, साधु न मानै कोय।
कामी क्रोधी मसखरा, तिनकी पूजा होय।।50

आज काल दिन पांच में, बरस पांच जुग पंच।
जब तब साधु तारसी, और सकल परपंच।।51

बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न संचवै नीर।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर।।52

सुख देवै दुख को हरै, दूर करै अपराध।
कहैं कबीर वह कब मिलै, परम स्‍नेही साध।।53

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल।
परमारथ करता रहै, बोलै बचन रसाल।।54

साधु साधु सब बड़े हैं, जस पस्‍ते का खेत।
कोई विवेकी लाल हैं, और सेत का सेत।।55

सन्‍त मता गजराज का, चाले बन्‍धन छोड़।
जग कुत्ता पीछै फिरै, सुनै न वाका सोर।।56

इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदै कोमल होय।
सदा शुद्ध आचार में, रहे विचार में सोय।।57

कोटि-कोटि तीरथ कर, कोटि-कोटि करु धाम।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम।।58

सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि।
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि।।59

कमल पत्र हैं साधु जन, बसै जगत के माहिं।
बालक केरि धाय ज्‍यों, अपना जानत नाहिं।।60

आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरु मान।
हरष शोक निंदा तजै, कहैं कबीर संत जान।।61

साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पांव।
डग डग पै असमेध जग, कहैं कबीर समुझाय।।62

कुलवंता कोटिक मिले, पंडित कोटि पचीस।
सुपच भक्‍त की पनहि में, तुलै न काहू शीश।।63

साधु सतो और सिंह को, ज्‍यों लंछन त्‍यों शोभ।
सिंह न मारे मेंढ़का, साधु न बांधे लोभ।।64

जौन चाल संसार की, तौन साधु को नाहिं।
डिंभ चाल करनी करै, साधु कहो मत ताहि।।65

शीलवन्‍त दढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्‍जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।।66

सदा रहै संतोष में, धरम आप दढ़ धार।
आश एक गुरुदेव की, और न चित्त विचार।।67

सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्‍ल‍ित गात।
निर्विकार गंभीर मत, धीरज दया बरसात।।68

आसन तो एकान्‍त करैं, कामिनी संगत दूर।
शीतल संत शिरोमनी, उनका ऐसा नूर।।69

रक्‍त छाड़‍ि पय को गहै, ज्‍यौरे गऊ का बच्‍छ।
औगुण छांड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्‍छ।।70

तूटै बरत अकास सों, कौन सकत है झेल।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल।।71

उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग।
यों साधु संसार में, कबीर पड़त न फंद।।72

सदा कृपालु दुख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय।
छिमा ज्ञान सत भारवही, हिंसा रहित जु होय।।73

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट।
माथा बांधि पताक सों, नेजा घालैं चोट।।74

जौन भाव ऊपर रहै, भितर बसावै सोय।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय।।75

साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक।
बोहर मिलते सों मिलें, अन्‍तर सबसों एक।।76

और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय।
स्‍वल्‍पाहार भोजन करु, तृष्‍णा दूर पराय।।77

जूआ चोरी मुखबिरी, ब्‍याज बिरानी नारि।
जो चाहे दीदार को, इतनी वस्‍तु निवारि।।78

बहता पानी निरमला, बंधा गन्‍दा होय।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय।।79

बंधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय।।80

साधु ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग।
विपत्ति‍ पड़ै छाड़ै नहीं, चढ़ै चौगुना रंग।।81

षड़ विकार यह देह के, तिनको चित्त न लाय।
शोक मोह प्‍यासीह छुधा, जरा मृत्‍यु नशि जाय।।82

संत न छाड़ै सन्‍तता, कोटिक मिलै असन्‍त।
मलय भुवंगम बेधिया, शीतलता न तजन्‍त।।83

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्‍यान।।84

साधु तो हीरा भया, न फूटै घन खाय।
न वह बिनसै कुम्‍भ ज्‍यों, ना वह आवै जाय।।85

आजकल के लोग हैं, मिलिके बिछुरी जाहिं।
लाहा कारण आपने, सोगंद रामकि खांहि।।86

क्‍यों नृपनारी निन्दिये, पनिहारी को मान।
वह मांग सवारे पीवहित, नित वह सुमिरे राम।।87

संत समागम परम सुख, जान अल्‍प सुख और।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौर ठौर।।88

कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल।
कहा साधु की जाति है, कह पारस को मोल।।89

साधु चाल जु चलाई, साधु कहावै सोय।
बिन साधन तो सुधि नहीं, साधु कहां ते होय।।90

हांसी खेल हराम है, जो जन रमते राम।
माया मन्दिर इस्‍तरी, नहिं साधु का काम।।91

हयबर गयबर सघन घन, छत्रपति की नारि।
तासु पटतरे ना तुले, हरिजन की पनिहारि।।92

सब वन तो चन्दन नहीं, शूरा के दल नाहिं।
सब समुद्र मोती नहीं, यों साधु जग माहिं।।93

साधु साधु सबहीं बड़े, अपनी अपनी ठौर।
शब्‍द विवेकी पारखी, सो माथे के मौर।।94

सो दिन गया अकाज में, संगत भई न संत।
प्रेम बिना पशु जीवना, भाव बिना भटकंत।।95

साधु बिहंगम सुरसरी, चले बिहंगम चाल।
जो जो गलियां नीकसे, सो सो करे निहाल।।96

कबीर हमारा कोई नहिं, हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंची नाव ज्‍यौं, मिलिके बिछुरी जाहिं।।97



भेष को अंग

जो मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार।।1

बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै काल।।2

गिरही सेवै साधु को, भाव भक्ति आनंद।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्‍द।।3

मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग।
तासौं तो कोवा भला, तन मन एकहि अंग।।4

माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ।
ढाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले दुनी के साथ।।5

कवि तो कोटिक कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट।
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट।।6

तन को जोगी सब करै, मन को करैं न कोय।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय।।7

बोली ठोली मसखरी, हंसी खेल हराम।
मद माया और इस्‍तरी, नहिं सन्‍तन के काम।।8

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार।।9

शब्‍द बिचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पांव।
क्‍या रमता क्‍या बैठता, क्‍या गृह कंदला छांव।।10

माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कछु और।
कहैं कबीर जिन पहिरिया, पांचों राखै ठौर।।11

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस।
ते मुक्‍ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस।।12

घर में रहै तो भक्ति करु, नातर करु बैराग।
बैरागी बन्‍धन करै, ताका बड़ा अभाग।।13



भीख को अंग

मांगन मरण समान है, तोहि दई मैं सीख।
कहैं कबीर समुझाय के, मति कोई मांगै भीख।।1

अनमांगा उत्तम कहा, मध्‍यम मांगि जो लेया।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर घर धरना देय।।2

सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिले सो पानि।
कहैं कबीर वह रक्‍त है, जामें ऐंचातानि।।3

उदर समाता मांग ले, ताको नाहिं दोष।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकी गति न मोष।।4

आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह।
यह तीनों तबही गये, जबहिं कहा कछु देह।।5

उदर समाता अन्न ले, तनहि समाता चीर।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर।।6

मांगन गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जांहि।
तिनतें पहले वे मरे, होत करत हैं नाहि।।7

अजहूं तेसा सब मिटै, जो मानै गुरु सीख।
जब लग तु घर मे रहे, मति कहं मांगे भीख।।8


संगति को अंग

भुवंगम बास न बेधई, चन्‍दन दोष न लाय।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहां समाय।।1

कबीर संगत साधु की, कभी न निष्‍फल जाय।
जो पै बोवै भूनिके, फूल फलै अघाय।।2

कबीर कुसंग न कीजिए, पाथर जल न तिराय।
बदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिर भाय।।3

कबीर गुरु के देश में, बसि जानै जो कोय।
कागा ते हंसा बने, जाति बरन कुल खोय।।4

कबीर संगति साधु, जो करि जाने कोय।
सकल बिछ चन्‍दन भये, बांस न चन्‍दन होय।।5

जा घर गुरु की भक्ति नहीं, संत नहीं मिहमान।
ता घर जम डेरा दिया, जीवत भये मसान।।6

जीवन जोबन राज मद, अविचल रहै न कोय।
जु दिन जाय सत्‍संग में, जीवन का फल सोय।।7

गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरनि मंझार।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार।।8

ऊंचे कुल कह जनमिया, करनी ऊंच न होय।
कनक कलश मद सो भरा, साधुन निन्‍दा सोय।।9

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध।।10

साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग।
कूप खनी जल बावरे, त्‍याग दिया जल गंग।।11

चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय।
ध्‍यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय।।12

सन्‍त सुरसरी गंग जल, आनि पखारा अंग।
मैले से निरमल भये, साधु जन के संग।।13

कबीर कलह अरु कल्‍पना, सत्‍संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।14

मथुरा काशी द्वारिका, हरिद्वार जगनाथ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।15

साखी शब्‍द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग।।16

ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट।
ज्ञानी अज्ञानी मिलै, हौवे माथा कूट।।17

कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देसी सुमति बताय।।18

कबीर संगत साधु की, जौ भी भूसी खाय।
खीर खांड भोजन मिले, साकट संग न जाय।।19

कबीर संगत साधु की, ज्‍यों गन्‍धी की बास।
जो कुछ गन्‍धी दे नहीं, तो भी वास सुवास।।20


सेवक को अंग

साहिब के दरबार में, कमी काहु की नाहि।
बन्‍दा मौज न पावहीं, चूक चाकरी माहिं।।1

शीलवन्‍त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित्त होय।
लज्‍जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।।2

यह मन ताको दीजिए, सांचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय।।3

विंतदय धरमक ध्‍वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्‍तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान।।4

अनुराते सुखा सोवना, राते नींद न आय।
ज्‍यों जल छुटी माछरी, तड़फत रैन बिहाय।।5

सेवक स्‍वामी एक मत, मत में मत मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाया।।6

गुरुमुख गुरु चितवन रहे, जैसे मणिहिं भुजंग।
कहैं कबीर बिसरें नहीं, यह गुरुमुख को अंग।।7

फल कारन सेवा करै, निशि-दिन जांचै राम।
कहें कबीर सेवक नहीं, चाहै चौगुन दाम।।8

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्‍या नियरै क्‍या दूर।।
जाका चित्त जासों बसै, सो तेहि सदा हजूर।।9

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चले अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल।।10

गुरु आज्ञा ले आवही, गुरु आज्ञा ले जाय।
कहैं कबीर सो सन्‍त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय।।11

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय।।12

सतगुरु शब्‍द उलंंघि के, जो सेवक कहुं जाय।
जहां जाय तह काल है, कहैं कबीर समझाय।।13

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहु सो हेत।
सत्‍यवान परमाथी, आदर भाव सहेत।।14

सब कुछ गुरु के पास है, पाइये अपने भाग।
सेवक मन सौप्‍यां रहै, रहैं चरण में लाग।।15

यह सब लच्‍छन चित्त धरे, अपलच्‍छन सब त्‍याग।
सावधन सम ध्‍यान है, गुरु चरनन में लाग।।16

गुरुमुख गुरु आज्ञा चलै, छांड़‍ि दे सब काम।
कहैं कबीर गुरुदेव को, तुरत करै परणाम।।17


दासातन को अंग

निरबन्‍धन बंधा रहै, बंधा निरबंध होय।
कर्म करै करता नहीं, दास कहावै सोय।।1

लगा रहै सतज्ञान सो, सबही बन्‍धन तोड़।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथ जोड़।।2

काहूं को न संतापिये, जो शिर हंता होय।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्‍छ है सोय।।3

निहकामी निरमल दशा, नित चरणों की आश।
तीरथ इच्‍छा ता करै, कब आवै वे दास।।4

सुख दुख सिर ऊपरे सहै, कबहु न छाड़े संग।
रंग न लागै और का व्‍यापै सतगुरु रंग।।5

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्‍त।
तन छीना मन अनमना, जग के खठि फिरन्‍त।।6

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास।।7

दासातन हिरदै बसै, साधुन सों आधीन।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन।।8

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास।
अब तो होय रहूं, पांव तले की घास।।9

कबीर कुल सोई भला, जो कुल उपजै दास।
जा कुल दास न ऊपजे, सो कुल आक पलास।।10

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कमी तोहि दास।
रिद्धि सिद्धि सेवा करैं, मुक्ति न छाड़े पास।।11

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय।।12


भक्ति को अंग

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास।
मन-मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास।।1

निर्पक्षी की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान।
निरद्वंदी की मुक्ति है, निर्लोभी निर्बान।।2

भक्ति भाव भादौ नदी, सबहि चली घहराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।।3 

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्‍फल सेव।
कहैं कबीर वह क्‍यों मिलै, निकामी निजदेव।।4

तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान।।5

भक्ति भेष बहु अन्‍तरा, जैसे धरनि अकाश।
भक्‍त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश।।6

कामी क्रोधी लालची, इनते भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।।7

जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय।
नाता तोड़े गुरु भजै, भक्ति कहावे सोय।।8

प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दंभ विचार।
उदर भरन के कारन, जन्‍म गंवाये सार।।9

भाव बिना नहीं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव।।10

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय।
कहैं कबीर सतगुरु मिले, आवागमन निशाय।।11

विषय त्‍याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान।।12

भक्ति पदारथ तब मिले, जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।।13

और कर्म सब कर्म हैं, भक्ति कर्म निह्कर्म।
कहै कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।।14

भक्ति महल बहु ऊंच है, दूरहि ते दरशाय।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय।।15

भक्ति की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
परमारथ के कारने, यह तन रहो कि जाव।।16

भक्ति बिना नहिं निस्‍तरै, लाख करै जो कोय।
शब्‍द सनेही ह्वै रहे, घर को पहुंचे सोय।।17

भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय।
भक्ति जु न्‍यारी भेष से, यह जानै सब कोय।।18

भक्ति-बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्‍त।
ऊंच नीच घर अवतरै, होय सन्‍त का सन्‍त।।19

देखा देखी भक्ति का, कबहुं न चढसी रंग।
विपत्त‍ि पड़े यो छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग।।20

आरत है गुरु भक्ति करु, सब कारज सिध होय।
करम जाल भौजाल में भक्‍त फंसे नहि कोय।।21

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम।।22

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्‍त हरषाय।
और न कोई चढि सकै, निज मन समझो आय।।23

भक्ति सोई जो भाव सों, इक मन चित को राख।
सांच शील सो खेलिए, मैं तें दोऊ नाख।।24

भक्ति निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन जिन मन आलस दिया, जनम जनम पछिताय।।25

भक्ति पंथ बहु कठिन है, रती न चालै खोट।
निराधार का खेल है, अधर थार की चोट।।26

भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै जाय।
कहैं कबीर कछु भेद नहिं, कहां रंक कहं राय।।27

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार।
धूवां का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार।।28

भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाय।
मन तो मैंगल होय रहा, कैसे आवै जाय।।29

टोटे में भक्ति करैं, ताका नाम सपूत।
मायाधारी मसखरैं, केते गये अऊत।।30

भक्ति-भक्ति सब कोई कहै, भक्ति न जाने भेव।
परण भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरुदेव।।31

कबीर गुरु की भक्ति करु, तज विषया रस चौंज।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जनम की मौज।।32


सुमिरन को अंग

सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय।
सांस सांस सुमिरण करुं, इक दिन मिलसी आय।।1

कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल।
श्‍वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल।।2

जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय।
सुरति समानी शब्‍द में, ताहि काल न खाय।।3

बिना सांच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न होय।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय।।4

अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
ना जानौ छिन एक में, किसका पहिरा होय।।5

लम्‍बा मारग दूर घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहो सन्‍त क्‍यों पाइये, दुर्लभ गुरु दीदार।।6

नाम जो रत्ती एक है, पाप जु रत्ती हजार।
आध रत्ती घट संचरै, जारि करे सब छार।।7

माला सांस उसांस की, फेरै कोई निज दास।
चौरासी भरमै नहीं, कटै करम की फांस।।8

वाद विवादां मत करो, करु नित एक विचार।
नाम सुमिर चित लायके, सब करनी में सार।।9

जो कोय सुमिरन अंग को, निशिवासर करै पाठ।
कहैं कबीर सो संत जन, सन्‍धै औघट घाट।।10

सांस सफल सो जानिये, जो सुमिरन में जाय।
और सांस यौं ही गये, करि बहुत उपाय।।11

लेने को गुरु नाम है, देने को अन्‍न दान।।
तरने को आधीनता, बूड़न को अभिमान।।12

नाम रतन धन पाय के, गांठी बांध न खोल।
नहिं पाटनहिं पार भी, नहिं गाहक नहिं मोल।।13

कहा भरोसा देह का, बिनसि जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नांंहि।।14

जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै छिन जाय।
ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लौ लाय।।15

नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छान।
कंचन मन्दिर जारि दे, जहां न सतगुरु ज्ञान।।16

कबीर हरि के मिलन की, बात सुनो हम दोय।
कै कछु हरि को नाम ले, कै कर ऊंचा होय।।17

नाम लिया जिन सब लिया, सब सास्‍त्रन को भेद।
बिना नाम नरके गये, प‍ढ़‍ि गुनि चारों वेद।।18

माला फेरत जग भया, मिटा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मनका मन का फेर।।19

जो कोय सुमिरन अंग को, पाठ करै मन लाय।
भक्ति ज्ञान मन ऊपजै, कहैं कबीर समुझाय।।20

क्रिया करै अंगरि गिनै, मन धावै चहुं ओर।
जिहि फेरै सांई मिलै, सो भय काठ कठोर।।21

तन थिर मन थिर बचन थिर, सुरति निरति थिर होय।
कहैं कबीर उस दास को, कल्‍प न व्‍यापे कोय।।22

कोटि नाम संसार में, ताते मुक्ति न होय।
आदि नाम जो गुप्‍त जप, बिरला जाने कोय।।23

राम नाम जिन औषधि, सतगुरु दई बताय।
औषधि खाय रु पथ रहै, ताकी बेदन जाय।।24

राम नाम को सुम‍िरता, ऊधरे पतित अनेक।
कबीर कबहू नहिं छाड़‍िये, राम नाम की टेक।।25

नीद, निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन छांडिके, राम रसायन लाग।।26

सोया सो निष्‍फल गया, जागा सो फल लेहि।
साहिब हक्‍क न राखसी, जब मांग तब देहि।।27

जबहि नाम हिरद धरा, भया पाप का नाश।
मानो चिनगा आग को, परो परान घास।।28

कबीर क्षुधा है कूकरी, करत भजन में भंग।
वाकूं टुकड़ा डारि के, सुमिरन करुं सुरंग।।29

बाहिर क्‍या दिखलाइये, अन्‍तर जपिये राम।
कहा महोला खलक सों, पयों धनी सों काम।।30

कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल।।31

कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्राण जाहिंगे छूट।
घर के प्‍यारे आदमी, चलते लेंगे लूट।।32

निज सुख आतम राम है, दूजा दुख अपार।
मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार।।33

सुमिरण से सुख होत हैं, सुमिरण से दुख जाय।
कहैं कबीर सुमिरण किये, सांई मांहि समाय।।34

सुमिरन सो मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्राण तजे पल बीछुरे, सत्‍य कबीर कहि दीन।।35

सुमिरन सों मन जब लगै, ज्ञानाकुस दे सीस।
कहैं कबीर डोलै नहीं, निश्‍चै बिस्‍वा बीस।।36

सुख के माथे शिल परै, नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुख की, पल पल नाम रटाय।।37

कबीर सूता क्‍या करै, गुण सतगुरु का गाय।
तेरे शिर पर जम खड़ा, खरच कदे का खाय।।38

कबीर मुख सोई भला, जा मुख निकसै राम।
जा मुख राम न नीकसै, ता मुख है किस काम।।39

जसे माया मन रमैं, तैसा राम रमाय।
तारा मण्‍डल बेधि के, तब अमरापुर जाय।।40

ज्ञान दीप परकाश करि, भीतर भवन जराय।
तहां सुमिर गुरु नाम को, सहज समाधि लगाय।।41

एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय।
तीरथ व्रत जप तप नहीं, सतगुरु चरण समाय।।42

जीना थोड़ा ही भला, हरि का सुमिरन होय।
लाख बरस की जीवना, लेखै धरै न कोय।।43

सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।
निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम।।44

सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
बाहर के पट देय के, अन्‍तर के पट खोल।।45

सुरति समावे नाम में, जग से रहे उदास।
कहैं कबीर गुरु चरण में, दढ़ राखो विश्‍वास।।46

सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
प्राण तजे छिन एक में, जरत न मोरै अंग।।47

सुरति फंसी संसार में, ताते परिगो दूर।
सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर।।48

राम जपत कुष्‍टी भला, चुइ चुइ पैर जु चाम।
कंचन देह किस काम की, जो मुख नाहिं राम।।49

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनुवा तो चहुं दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि।।50

वाद करै सो जानिये, निगरे का वह काम।
संतो को फुरसत नहीं, सुमिरन करते राम।।51

कोई न से जम बांचिया, राम बिना धरि खाय।
जो जन बिरही राम के, ताको देखि डराय।।52

ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।
सतगुरु ने तो या कहा, सुमिरन करो बनाय।।53

सुमिरण की सुधि यौं करो, जैसे कामी काम।
एक पलक बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम।।54

सुमिरण की सुधि यौं करो, ज्‍यौं गागर पनिहारि।
हालै डोलै सुरति में, कहैं कबीर विचारि।।55

पूंजि मेरी राम है, जाते सदा निहाल।
कबीर गरजे पुरुष बल, चोरी करै न काल।।56

जाकी गांठी राम है, ताके हैं सब सिद्धि।
कर जोड़ी ठाढ़ी सबै, अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि।।57

आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्‍धन मोह।।58

लूटि सके तो लूटि ले, राम नाम की लूट।
फिर पाछे पछताहुगे, प्राण जाहिंगे छूट।।59

माला मेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय।
गुरु चरनन चित राखिये, तो अमरापुर जोय।।60

कबीर आपन राम कहि, औरन राम कहाय।
जा मुख राम न नीसरै, ता मुख राम कहाय।।61

राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर।
काया हांड़ी काठ की, ना वह चढ़े बहोर।।62

अस औरसर नहिं पाइहो, धरो राम कड़‍िहार।
भौ सागर तरि जाव जब, पलक न लागे बार।।63

कबीर हरि के नाम में, सुरति रहै करतार।
ता मुख से मोती झरे, हीरा अनंत अपार।।64

कोटि करम कटि पलक में, रंचन आवै राम।
जुग अनेक जो पुन्‍य करु, नहिं राम बिनु ठाम।।65

दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन कर, तो दुख काहे को होय।।66

सुमिरन तू घट में करै, घट ही में करतार।
घट ही भीतर पाइये, सुरति शब्‍द भण्‍डार।।67

थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय।
हरदी लग न फिटकरी, चोखा ही रंग होय।।68

तू तू करता तू भया, तुझ में रहा समाय।
तुझ मांहि मन मिलि रहा, अब कहुं अनत न जाय।।69


प्रेम को अंग

जल में बसै कमोदिनी, चन्‍दा बसै अकास।
जाको जासे प्रेम है, सो ताही के पास।।1

जहां प्रेम तह नेम नहीं, तहां न बुधि व्‍यवहार।
प्रेम मगन जब मन भया, कौन गिनै तिथि वार।।2

अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह।
जबही जलते बीछुरै, तबही त्‍यागै देह।।3

प्रेम बिकाता मैं सुना, माथा साटै हाट।
पूछत बिलम न कीजिये, तब छिन दीजै काट।।4

नाम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कमाल।।5

प्रेम पांवरी पहिरि के, धीरज कज्‍जल देह।
शील सिंदूर भराय के, तब पिय का सुख लेय।।6

प्रेम छिपाया ना छिपै, जा घट परघट होय।
जो पै मुख बोलै नहीं, नैन देत हैं रोय।।7

प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना वैराग।
सतगुरु बिन जावै नहीं, मन मनसा का दाग।।8

प्रेम भक्ति में रचि रहैं, मोक्ष मुक्ति फल पाय।
शब्‍द मांहि जब मिलि रहै, नहिं आवै नहिं जाय।।9

अमृत पावै ते जना, सतगुरु लागा कान।
वस्‍तु अगोचर मिलि गई, मन नहिं आवा आन।।10

यह तो घर है प्रेम का, ऊंचा अधिक इकंत।
शीष काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।।11

यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुई गात।
अपने जिय से जानिये, मेरे जिय की बात।।12

कबीर हम गुरु रसि पिया, बाकी रही न छाक।
पाका कलश कुम्‍हार का, बहुरि न चढ़सी चाक।।13

आया प्रेम कहां गया, देखा था सब कोय।
छिन रावै छिन में हंसै, सो तो प्रम न होय।।14

आठ पहर चौसठ घड़ी, लागि रहे अनुराग।
हिरदै पलक न बीसरे, तब सांचा बैराग।।15

जाके चित्त अनुराग है, ज्ञान मिने नर सोय।
बिन अनुराक न पावई, कोटि करै जो कोय।।16

प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होय।
कबहुक जो अवगुन पड़ै, गुन ही लहै समोय।।17

सबै रसायन हम पिया, प्रेम समान न कोय।
रंचक तन में संचरै, सब तन कंचन होय।।18

प्रेम प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्‍है कोय।
जा मारण साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय।।19

मिलना जग में कठिन है, मिलि बिछरौ जनि कोय।
बिछुरा साजन तिहि मिलै, जिहि माथै मनि होय।।20

प्रेम बिना नहिं भेष कछु, नाहक करै सुवाद।
प्रेम बाद जग लग नहीं, सबै भेष बरबाद।।21

प्रेम भाव इक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
भावै घर में वास कर, भावै बन में जाय।।22

प्रेमी ढूंढत मैं फिरुं, प्रेमी मिलै न कोय।
प्रेमी सों प्रेमी मिलै, विष से अमृत होय।।23

जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जानु मसान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिन प्रान।।24

गहरी प्रीति सुजान की, बढ़त-बढ़त बढ़‍ि जाय।
ओछी प्रीति अजान की, घटत घटत घटि जाय।।25

जब लग मरने से डरैं, तब लगि प्रेमी नांहि।
बड़ी दूर है प्रेम घर, समझ लेहु मन मांहि।।26

गुणवेता औ द्रव्‍य को, प्रीति करै सब कोय।
कबीर प्रीति सो जानिये, इनते न्‍यारी होय।।27

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जो रुचै, शीश देय ले जाय।।28

जो जागत सो सपन में, ज्‍यौं घट भीतर सांस।
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास।।29

प्रेम प्रीति से जो मिले, ताको मिलिये धाय।
कपट राखिके जो मिले, तासे मिलै बलाय।।30

प्रेम पियाला जो पिये, शीश दच्छिना देय।
लोभी शीश न दे सकै, नाम प्रेम का लेय।।31

जो है जाका भावता, जब तब मिलि हैं आय।
तन मन ताको सांपिये, जो कबहुं न छाड़‍ि जाय।।32

नेह निवाहै ही बनै, सोयै बनै न आन।
तन दे मन दे शीश दे, नेह न दीजै जान।।33

आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खड़क की धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्‍यौहार।।34

प्रीति पुरानि न होत है, जो उत्तम से लाग।
सो बरसां जल में रहै, पथर न छोड़े आग।।35

प्रीति बहत संसार में, नाना विधि  की सोय।
उत्तम प्रीति सो जानिये, सतगुरु से जो होय।।36

प्रेम पंथ में पग धरै, देत न शीश डराय।
सपने मोह व्‍यापे नहिं, ताको जन्‍म नशाय।।37

सजन सनेही बहुत हैं, सुख में मिले अनेक।
बिपत्त‍ि पड़े दुख बांटिये, सो लाखन में एक।।38

छिनहि चढ छिन उतरै, सो तो प्रेम न होय।
औघट घाट पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।।39

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांहि।।40

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
शीष उतारै भुई धरै, तब पैठे घर माहिं।।41

गोता मारा सिंधु में, मोती लाये पैठि।
वह क्‍या माेती पायेंगे, रहे किनारे बैठि।।42


चेतावनी को अंग

मैं भौंरा तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय।
अटकेगा कहुं बेल सों, तड़प तड़प जिय देय।।1

इत पर घर उत है घरा, बनिजन आये हाट।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो बाट।।2

कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि।।
खेत बिचारा क्‍या करै, धनी करै नहिं वारि।।3

कबीर यह संसार है, जैसा सेंमल का फूल।
दिन दस के व्‍यवहार में, झूठे रंग न फूल।।4

राम भजो तो अब भजो, बहोरि भजोगे कब्‍ब।
हरिया हरिया रुखड़े, ईंधन हो गये सब्‍ब।।5

दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।6

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव।।7

कबीर जो दिन आज है, सो दिन नांहि काल।
चेति सके तो चेति ले, मीच परी है ख्‍याल।।8

कबीर या संसार में, घना मानुष मतिहीन।
राम नाम जाना नहीं, आये टापा दीन।।9

ज्‍यौं कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छोर।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सके तो दौर।।10

मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फांसि।।11

मोर तोर की जेवरी, गल बंधा संसार।
दास कबीरा क्‍यों बंधौ, जाके नाम अधार।।12

जो तू परा है फंद में, निकसेगा कब अंध।
माया मद तोकूं चढ़ा, मत भूले मतिमंद।।13

क्‍या करिये क्‍या जो‍ड़ि‍ये, छोड़ जीवन काज।
छाडि छाडि सब जात हैं, देह गेह धन राज।।14

एक बुन्‍द के कारनै, रोता सब संसार।
अनेक बुन्‍द खाली गये, तिनका नहीं विचार।।15

मरुं मरुं सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय।
मरना था सो मरि चुका, अब को मरने जाय।।16

मन मूआ माया मुई, संशय मुआ शरीर।
अविनाशी जो ना मरे, तो क्‍यों मरे कबीर।।17

तन सराय मन पाहरु, मनसा उतरी आय।
को काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय।।18

जिनके नौबत बाजती, मैंगल बंधति बारि।
एकहि गुरु के नाम बिन, गये जनम सब हारि।।19

कबीर गर्व न कीजिये, ऊंचा देखि अवास।
काल परे भुंई लेटना, ऊपर जमसी घास।।20

नान्‍हा कातौ चित्त दे, महंगे मोल बिकाय।
गाहक राजा राम है, और न नियरे जाय।।21

मच्‍छ होय नहीं बचिहों, धीमर तेरो काल।
जिहि जिहि डाबर तुम फिरे, तहं तहं मेले जाल।।22

ऊंचा महल चुनाइया, सुबरन कली ढुलाय।
वे मन्दिर खाली पड़े, रहै मसाना जाय।।23

कबीर गर्व न कीजिये, चाम लपेटे हाड़।
हय बर ऊपर छत्र तट, तो भी देवे गाड़।।24

कबीर नाव तो झांझरि, भरी बिराने भार।
खेवट सों परिच नहीं, क्‍यौंकर उतरै पार।।25

जागो लोगो मत सुवो, ना कुरु नींद से प्‍यार।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार।।26

कबीर गर्व न कीजिये, काल गहे कर केश।
ना जानौ कित मारि हैं, क्‍या घर क्‍या परदेस।।27

कबीर गर्व न कीजिये, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।28

कबीर गर्व न कीजिये, देही देखि सुरंग।
बिछुरे पै मेला नहीं, ज्‍यों केचुली भुजंग।।29

कबीर जंत्र न बाजई, टूट गये सब तार।
जंत्र बिचारा क्‍या करै, जब चला बजावन हार।।30

कबीर गाफिल क्‍या करै, आया काल नजीक।
कान पकरि के ले चले, ज्‍यौं अजियाहि खटीक।।31

कबीर पानी हौज का, देखत गया बिलाय।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुंचा आय।।32

कबीर केवल नाम कह, शुद्ध गरीबी चाल।
कूर बड़ाई बूड़सी, भारी परसी झाल।।33

मरेंगे मरि जायंगे, कोय न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसाहिंगे, छोड़‍ि बसन्‍ता गाम।।34

नर नारायन रूप है, तू मति जानै देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।35

आंखि न देखे बावरा, शब्‍द सुन नहिं कान।
सिर के केस उज्‍जल भये, अबहूं निपट अजान।।36

अहिरन की चोरी करै, करे सुई का दान।
ऊंचा चढ़‍ि कर देखता, केतिक दूर विमान।।37

चेत सबेरे बावरे, फिर पाछे पछिताय।।
ताको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय।।38

मूरख शब्‍द न मानई, धर्न न सुनै विचार।
सत्‍य शब्‍द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वार।।39

कबीर वा दिन याद कर, पग ऊपर तल सीस।
मृत मंडल में आयके, बिसरि गया जगदीस।।40

कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेवन हार।
हरुये हरुये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार।।41

कबीर पांच पखेरुआ, राखा पोष लगाय।
एक जू आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय।।42

कबीर रसरी पांव में, कह सौवे सुख चैन।
मांस नगारा कूंच का, बाजत है दिन रैन।।43

आये हैं तो जायेंगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़‍ि चले, एक बांधे जात जंजीर।।44

या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनि गाड़ि‍। 
चलती बिरियां उठि चला, हस्‍ती घोड़ा छाड़ि‍।।45

तू मति जाने बावरे, मेरा है सब कोय।
प्रान पिण्‍ड सो बंधि रहा, सो नहिं अपना होय।।46

दीन गंवायो दूनि संग, दुनी न चाली साथ।
पांव कुल्‍हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ।।47

काल चक्र चक्‍की चलै, बहुत दिवस औ रात।
सगुन निगुन दोय पाटला, तामें जीव पिसात।।48

मेरा संगी कोय नहिं, सबै स्‍वारथी लोय।
मन परतीति न ऊपजै, जिय विस्‍वास न होय।।49

महलन मांही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय।।50

जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय।
ते भी होती मानवी, करते रंग रलियाय।।51

जिसका रहना उतघरा, सो क्‍यों जोड़े मित्त।
जैसे घर पर पाहुना, रहै उठाये चित्त।।52

राम नाम जाना नहीं, पाला सकल कुटूम्‍ब।
धन्‍धाही में पचि मरा, बार भई नहिं बुम्‍ब।।53

कहा किया हम आयके, कहा करेंगे जाय।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गंवाय।।54

यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ।
टपका लागा फुटि गया, कछू ना आया हाथ।।55

यह तन काचा कुंभ है, माहिं किया रहि वास।
कबीर नैन निहारिया, नहिं जीवन की आस।।56

विषय वासना उरझिकर, जनम गंवाय बाद।
अब पछितावा क्‍या करै, निज करनी कर याद।।57

राजपाट धन पायके, क्‍यों करता अभिमान।
पड़ासी की जो दशा, भई सो अपनी जान।।58

चले गये सो ना मिले, किसको पूंछू बात।
मात पिता सुत बान्‍धवा, झूठा सब संघात।।59

कबीर मन्दिर लाख का, ज‍ड़ि‍या हीरा लाल।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जाएगा काल।।60

कबीर धूलि सकेलि के, पुड़ी जो बांधी येह।
दिवस चार का पेखना, अन्‍त खेह की खेह।।61

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली, बहुरि न देखहु आय।।62

पांचों नौबत बाजते, होत छत्तीसों राग।
सो मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग।।63

कहा चुनावै मेड़‍िया, चूना माटी लाय।
मीच सुनैगां पापिनी, दौरि कि लेगी आय।।64

यह तन कांचा कुंभ है, चोट चहूं दिस खाय।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय।।65

पांच तत्‍व का पूतरा, मानुष धरिया नाम।
दिन चार के कारने, फिर फिर रोके ठाम।।66

घर रखवाला बाहिरा, चिड़‍ियां खाइ खेत।
आधा परा ऊबरे, चेति सके तो चेत।।67

खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद।
बांझ हिलावै पालना, तामें कौन स्‍वाद।।68

मौत बिसारी बावरे, अचरज कीया कौन।
तन माटी में मिल गया, ज्‍यौं आटा में लौन।।69 

जनमैं मन बिचारि के, कूरे काम निवारि।
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ संवारि।।70

माटी कहै कुम्हार सो, क्‍यों तू रौंदे मोहि।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौदूंगी तोहि।।71

राम नाम जाना नहीं, चके अबकी घात।
माटी मिलन कुम्हार की, घनी सहेगी लात।।72

बैल गढन्‍ता नर गढ़ा, चूका सींग रु पूंछ।
एकहि गुरु के नाम बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूंछ।।73

काल करै साे आज कर, सबहि साज तुव साथ।
काल काल तू क्‍या करै, काल काल के हाथ।।74

एक दिन ऐसा होयगा, कोय कहाु का नांहि।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहि।।75

कबीर सुपने रैन के, उधरी आये नैन।
जीव परा बहु लूट में, ना कछु लेन न देन।।76

पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज।
काल अचानक मारसी, ज्‍यौं तीतर को बाज।।77

ऊंचा दीसै धौहरा, मांडो चीटां पोल।
एक गुरु के नाम बिना, जम मारेंगे रोल।।78

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुहि करेगा कब।।79

बारी पारी आपने, चले पियारे मीत।
तेरी बारी जीवरा, नियरै आवै नीत।।80

कबीर केवल नाम की, जब लगि दीपक बाति।
तेल घटै बाती बुझै, तब सोवे दिन-राति।।81

कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगाय।
तब कुल काको लाजि है, चारि पांव का होय।।82

कहत सुनत जग जात हैं, विषय न सुझै काल।
कहैं कबीर सुन प्रानिया, साहिब नाम सम्‍हाल।।83

ऊजल पहिनै कापड़ा, पान सुपारि खाय।
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांध जमपुर जाय।।84

परदै रहती पदमिनी, करती कुल की कान।
घड़ी जु पहुंची काल की, छोड़ भई मैदान।।85

हे मतिहीनी माछीरी, राखि न सकी शरीर।
सो सरवर सेवा नहीं, जाल काल नहिं कीर।।86

रात गंवाई सोय कर, दिवस गंवायो खाय।
हीरा जनम अमोल था, कोड़ी बदले जाय।।87

कबीर थोड़ा जीवना, माढै बहुत मढ़ान।
सबही ऊभा पंथ सिर, राव रंक सुलतान।।88

पाकी खेती देखि के, गरबहिं किया किसान।
अजहूं झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।89

यह औसर चेत्‍या नहीं, पशु ज्‍यौं पाली देह।
राम नाम जान्‍यो नहीं, अन्‍त पड़े मुख खेह।।90

कुल खाये कुल उबरै, कुल राखै कुल जाय।
राम निकुल कुल भोटिया, सब कुल गया बिलाय।।91

हाड़ जले, लकड़ी जले, जले जलावन हार।
कातिक हारा भी जले, कासों करुं पुकार।।92

झूठा सब संसार है, कोउ न अपना मीत।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत।।93

दुनिया के धोखै मआ, चला कुटुंब की कानि।
तब कुल की क्‍या लाज है, जब ले धरा मसानि।।94

यह बिरियां तो फिर‍ि नहिं, मन में देख विचार।
आया लाभहि कारनै, जनम जुआ मति हार।।95

कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत।
सतगुरु शब्‍द बिसारिया, आदि अन्‍त का मीत।।96

आज कहै मैं काल भजुं, काल कहै फिर काल।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।।97

आज काल के बीच में, जंगल होगा बास।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास।।98

हाड़ जरै ज्‍यौं लाकड़ी, केस जरै ज्‍यों घास।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास।।99

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्‍यौं तारा प्रभात।।100

ऊजड़ खेड़े टेकरी, घड़‍ि घड़‍ि गये कुम्‍हार।
रावन जैसा चलि गया, लंका को सरदार।।101

भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय।
भय पारस है जीव को, निरभय हाय न कोय।।102

भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिनु होय न प्रीति।
जब हिरदे से भय गया, मिटी सकल रस रीति।।103

आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हेत।
अब पछितावा क्‍या करै, चिड़‍ियां चुग गई खेत।।104

एक दिन ऐसा होयगा, सब सों परै बिछोह।
राजा राना राव रंक, सावधान क्‍यों नहिं होय।।105


उपदेश को अंग

मन राजा नायक भया, टांडा लादा जाय।
है है है है ह्वै रही, पूंजी गयी बिलाय।।1

जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों का काम।।2

खाय पकाय लुटाय ले, यह मनुवा मिजमान।
लेना हो सो लेइ ले, यही गोय मैदान।।3

जहां न जाको गुन लहै, तहां न ताको ठांव।
धोबी बसके क्‍या करै, दिगम्‍बर के गांव।।4

हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार।
हारा तो हरि सों मिला, जीता जम के द्वार।।5

हस्‍ती चढ़‍िये ज्ञान का, सहज दुलीचा डार।
स्‍वान रूप संसार है, भूंकन दे झकमार।।6

मांगन को भल बोलना, चोरन को भल चूप।
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप।।7

बालों जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप।
ऐसी मीठी कछु नहीं, जसी मीठी चूप।।8

रितु बसंत याचक भया, हरखि दिया द्रुम पात।
ताते नव पल्‍लव भया, दिया दर नहिं जात।।9

अति हठ मत कर बावरे, हठ से बात न होय।
ज्‍यूं ज्‍यूं भीजे कामरी, त्‍यूं त्‍यूं भारी होय।।10

खाय पकाय लुटाय के, कर‍ि ले अपना काम।
चलती बिरिया रे नरा, संग न चलै छदाम।।11

लेना होय सो जल्‍द ले, कही सुनी मत मान।
कही सुनी जुग जुग चली, आवागमन बंधान।।12

देह धरे का गुन यही, देह देह कछ देह।
बहुरि न देही पाइये, अबकी देह सुदेह।।13

सत ही में सत बांटई, रोटी म ते टूक।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुं न आवै चूक।।14

नाम भजो मन बसि करो, यही बात है तंत।
काहे को पढ़‍ि पचि मरो, कोटिन ज्ञान ग‍िरंथ।।15

चातुर को चिन्‍ता घनी, नहिं मूरख को लाज।
सर अवसर जाने नहीं, पेट भरन सूं काज।।16

तीन ताप में ताप हैं, ताका अनंत उपाय।
ताप आतम महाबली, संत बिना नहिं जाय।17

बन्‍दे तू कर बन्‍दगी, तब पावै दीदार।
औसर मानुष जनम का, बहुरि न बारंबार।।18

जीवत कोय समझै नहिं, मवा न कह संदेस।
तन मन से परिचय नहिं, ताको क्‍या उपदेस।।19

काल काल तत्‍काल है, बुरा न करिये कोय।
अनबोवे लुनता न‍हीं, बोवे लुनता होय।।20

दुरबल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
बिना जीव की सांस से, लाह भसम ह्वै जाय।।21

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय।।22

बनजारे के बैल ज्‍युं, भरमि फियां चहु देस।
खांड लादि भुस खात हैं, बिन सतगुरु उपदेश।।23

या दुनिया में आय के, छांडि देय तू ऐंठ।
लेना है सो लेय ले, उठी जात है पैंठ।।24

मान अभिमान न कीजिये, कहैं कबीर पुकार।
जो सिर साधु न नमैं, तो सिर काटि उतार।।25

पढ़ी पढी के पत्‍थर भये, लिखि लिखि भये जु ईट।
कबीर अन्‍तर प्रेम का, लागी नेक न छींट।।26

जिहि जिवरी ते जग बंधा, त जनि बंधै कबीर।
जासी आटा लौन ज्‍यौं, सोन समान शरीर।।27

चतुराई क्‍या कीजिये, जो नहिं शब्‍द समाय।
कोटिक गुन सूवा पढ़ै, अन्‍त बिलाई खाय।।28

करता था तो क्‍यौं रहा, अब करि क्‍यौं पछताय।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय।।29

काया सों कारज करें, सकल काज की री‍त।
कर्म भर्म सब मेट के, राम नाम सौं प्रीत।।30

देह खेह हो जायेगी, कौन कहेगा देह।
निश्‍चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह।।31

बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यौ सुन्‍यो मानै नहीं, शब्‍द कहो दुइ और।।32

कहते को कहि जान दे, गुरु की सिख तूं लेय।
साकट जान और स्‍वान को, फेरि जवाब न देय।।33

जैसा भोजन खइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी होय।।34

कथा कीरतन करन की, जाके निसदिन रीत।
कहैं कबीर ता दास सों, निश्‍च कीजै प्रीत।।35

कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर।
खाली हाथो बह गये, जिनके लाख करोर।।36

या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख देत।।37

कबीर तहां न जाइये, जहं तो कुल को हेत।
साधुपनो जानै नहीं, नाम बाप को लेत।।38

कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को तब बांधिया, या तन कीया घूर।।39

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।।40

धर्म किये धन ना घट, नदी न घटै नीर।
अपने आंखो देखि ले, यों कथि कहहिं कबीर।।41

कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह हो जायेगी, कौन कहेगा देह।।42

जग में बैरी कोय नहीं, जो मन शीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करे सब कोय।।43

बार बार तोसों कहा, सुन रे मनवा नीच।
बनजारे का बैल ज्‍यूं, पैंडा माहीं मीच।।44

जिन गुरु जैसा जानिया, तिनको तैसा लाभ।
ओसे प्‍यास न भागसी, जब लगि धसै न आभ।।45

इष्‍ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति।
कहैं कबीर तहं जाइये, यह सन्‍तन की प्रीति।।46

गान्ठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह।
आगे हाट न बानिया, लेना है सो लेह।।47

राम नाम सुमिरन करै, सतगुरु पद निज ध्‍यान।
आतम पूजा जीव दया, लहै सो मुक्ति अमान।।48

जा तोको काटा बोवै, ताहि बोवै तू फूल।
तुझको फूल का फूल है, वाको है तिरशूल।।49

गारी ही से ऊपजै, कलह कष्‍ट औ मीच।
हरि चले सो सन्‍त है, लागि मरै सो नीच।।50

हाड़ बड़ा हरि भजन करि, द्रव्‍य बड़ा कछु देह।
अकल बड़ी उपकार करि, जीवन का फल येहि।।51


शब्‍द को अंग

सार शब्‍द जानै बिना, जिव परलै में जाय।
काया माया थिर नहीं, शब्‍द लेहु अरथाय।।1

यही बड़ाई शब्‍द की, जैसे चुम्‍बक भाय।
बिना शब्‍द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय।।2

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।3

कुटिल बचन नहिं बोलिये, शीतल बैन ले चीन्हि।
गंगा जल शीतल भया, परबत फोड़ तीन्हि।।4

खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय।
कुटिल बचन साधु सहै, और से सहा न जाय।।5

शीतल शब्‍द उचारिये, अहं आनिये नाहिं।
तेरा प्रीतम तुझहि में, दुसमन भी तुझ माहिं।।6

शब्‍द कहै सो कीजिये, बहुतक गुरु लबार।
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार।।7

खोजी हुआ शब्‍द का, धन्‍य सन्‍त जन सोय।
कहैं कबीर गहि शब्‍द को, कबहु न जाय बिगोय।।8

शीतलता तब जानिये, समता रहै समाय।
विष छोड़ै निरबिस रहै, सब दिन दूखा जाय।।9

करक गड़न दुरजन बचन, रहै सन्‍त जन टारि।
बिजुली परै समुद्र में, कहा सकेगी जारि।।10

कुबुधि कमानी चढ़‍ि रही, कुटिल बचन के तीर।
भरि भरि मारे कान में, सालै सकल सरीर।।11

सोई शब्‍द निज सार है, जो गुरु दिया बताय।
बलिहारो वा गुरुन की, सीष बियोग न जाय।।12

सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्‍द सुख देय।
बिना समझै शब्‍द गहै, कछु न लोहा लेय।।13

काल फिरै सिर ऊपरै, जीवहि नजरि न आय।
कहैं कबीर गुरु शब्‍द गहि, जम से जीव बचाय।।14

जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय।
सार शब्‍द जानै बिना, कागा हंस न होय।।15

कर्म फंद जग फंदिया, जप तप पूजा ध्‍यान।
जाहि शब्‍द ते मुक्ति होय, सो न परा पहिचान।।16

शब्‍द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।।17

जिहि शब्‍दे दुख ना लगे, सोई शब्‍द उचार।
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्‍द ततसार।।18

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत।
मीठा शब्‍द सुनाय के, जग अपनो करि लेत।।19

शब्‍द पाय सुरति राखहि, सो पहुंच दरबार।
कहैं कबीर तहां देखिये, बैठा पुरुष हमार।।20

शब्‍द बराबर धन नहीं, जो कोय जानै बोल।
हीरा तो दामों मिलैं, सब्‍दहि मोल न तोल।।21

सन्‍त सन्‍तोषी सर्वदा, शब्‍दहिं भेद विचार।
सतगुरु के परताप ते, सहज सील मतसार।।22

जिभ्‍या जिन बिस में करी, तिन बस कियो जहान।
नहिं तो औगुन ऊपजे, कहि सब संत सुजान।।23

लागी लागी क्‍या करै, लागत रही लगार।
लागी तबही जानिये, निकसी जाय दुसार।।24

हरिजन सोई जानिये, जिह्वा कहैं न मार।
आठ पहर चितवन रहै, गुरु का ज्ञान विचार।।25

टीला टीली ढाहि के, फोरि करै मैदान।
समझ सका करता चलै, सोई शब्‍द निरबान।।26

शब्‍द दुराया ना दुरै, कहूं जु ढोल बजाय।
जो जन होवै जौहरी, लेहैं सीस चढ़ाय।।27

शब्‍द शब्‍द सब कोय कहै, शब्‍द का करो विचार।
एक शब्‍द शीतल करै, एक शब्‍द दे जार।।28

रैन तिमिर नासत भयो, जबही भानु उगाय।
सार शब्‍द के जानते, करम भरम मिटि जाय।।29

सहज तराजू आनि कै, सब रस देखा तोलि।
सब रस माहीं जीभ रस, जु कोय जानै बोलि।।30

मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार।
हते पराई आतमा, जीभ बांधि तलवार।।31

शब्‍द न करै मुलाहिजा, शब्‍द फिरै चह धार।
आपा पर जब चीन्हिया, तब गुरु सिष व्‍यवहार।।32

शब्‍द खांजि मन बस कर, सहज जोग है येह।
सत्त शब्‍द निज सार है, यह तो झूठी देह।।33

जिह्वा में अमृत बसै, जो कोई जानै बोल।
विष बासुकि का ऊतरे, जिह्वा तनै हिलोल।।34

कबीर सार शब्‍द निज जानि के, जिन कीन्‍ही परतीति।
काग कुमत तजि हंस ह्वै, चले सु भौजल जीति।।35

शब्‍द सम्‍हारे बोलिये, शब्‍द के हाथ न पांव।
एक शब्‍द औषधि करे, एक शब्‍द करे घाव।।36

शब्‍द गुरु का शब्‍द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्‍द की, सत्‍गुरु यौं समुझाय।।37

शब्‍द उपदेस जु मैं कहुँ, जु कोय मानै संत।
कहै कबीर विचारि के, ताहि मिलावौं कंत।।38

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि।
कहैं कबीर ता दास को, कबह न आवै हारि।।39

एक शब्‍द सुख खानि है, एक शब्‍द दुख रासि।
एक शब्‍द बन्‍धन काटै, एक शब्‍द गल फांसि।।40

  
जीवन मृतक को अंग

जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय।
मरना पह‍िले जो मरै, अजर अमर सो होय।।1

मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्‍वास।
साधु तहां लौं भय करे, जौ लौ पिंजर सांस।।2

जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय।
काया माया मन तजै, चौडे़ रहा बजाय।।3

जीवत मिरतक होय रहै, तजै खलक की आस।
रच्‍छक समरथ सद्गुरु, मति दुख पावै दास।।4

पांचों इन्द्रिय छठा मन, सम संगत सूचंत।
कहैं कबीर जग क्‍या करे, सातों गांठ निश्चिन्‍त।।5

भक्‍त मरे क्‍या रोइये, जो अपने घर जाय।
रोइये साकट बापुरे, हाटों हाट बिकाय।।6

अजहूं तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार।
घर में झगरा होत है, सो घर डारो जार।।7

मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ।।8

मैं जानूं मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत।।9

शब्‍द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल।
काम क्रोध व्‍यापै नहीं, कबहूं न ग्रासै काल।।10

सुर सती का सहज है, घड़ी इक का घमसान।
मरै न जीवै मरजिवा, धमकत रहे मसान।।11

कबीर मिरतक देखकर, मति धारो विश्‍वास।
कबहूं जागै भूत ह्वे, करै पिंड का नाश।।12


काल को अंग

आस पास जोधा खड़े, सबे बजावै गाल।
मंझ महल ते ले चला, ऐसा परबत काल।।1

जरा कुत्ता जोबन ससा, काल अहेरी नित्त।
दो बैरी बिच झोंपड़ा, कुशल कहां सो मित्त।।2

पात झरन्‍ता देखि के, हंसती कूपलियां।
हम चाले तुम चालियो, धारी बापलियां।।3

काल पाय जग ऊपजो, काल पाय सब जाय।
काल पाय सब बिनसिहैं, काल काल कह खाय।।4

मैं अकेला वह दो जना, सेरी नाहीं कोय।
जो जम आगे ऊबरो, तो जरा बैरी होय।।5

जो उगै सो आथवे, फूले सो कुम्‍ह‍िलाय।
जो चूनै सो ढहि पड़, जामै सो मरि जाय।।6

चाकी चली गुपाल की, सब जग पीसा झार।
रुड़ा शब्‍द कबीर का, डारा पाट उघार।।7

काल काल सब कोइ कहे, काल न चीन्‍हे कोय।
जेती मन की कल्‍पना, काल कहावै सोय।।8

काल फिरै सिर ऊपरे, हाथों धरी कमान।
कहैं कबीर गहु नाम को, छोड़ सकल अभिमान।।9

जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय।
सो अब कहूं दीखै नहीं, छिन में गयो बिलाय।।10

कबीर टुक टुक चोंघ्‍ज्ञता, पल पल गई विहाय।
जिव जंजाले पड़‍ि रहा, दिया दमामा आय।।11

काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यौ समझाय।
कहैं कबीर मैं क्‍या करूं, कोई नहिं पतियाय।।12

झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद।
जगत चबेना काल का, कछू मुख कछू गोद।।13

चहुं दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ मिले हथियार।
सबही यह तन देखता, काल ले गया मार।।14

चहुं दिस पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार।
खिरकी खिरकी पाहरु, गज बंधा दरबार।।15

हम जान थे खायंगे, बहुत जिमीं बहु माल।
ज्‍यौं का त्‍यौं ही रहि गया, पकड़‍ि ले गया काल।।16

खुलि खेलो संसार में, बांधि न सक्‍कै कोय।
घाट जगाती क्‍या करै, सिर पर पोट न होय।।17

चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बिच आय के, साबुत गया न कोय।।18

मूसा डरपे काल सूं, कठिन काल का जोर।
स्‍वर्ग भूमि पाताल में, जहां जाव तहं गोर।।19

जोबन सिकदारी तजी, चला निशान बजाय।
सिर पर सेत सिरायचा, दिया बुढ़ापा आय।।20

बेटा जाये क्‍या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन होय रहा, ज्‍यों कीड़ी का नाल।।21

बालपन भोले गया, और जुवा महमंत।
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्‍ते अन्‍त।।22

संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर।
जाको कोइ जानै नहीं, जारि करै सब धूर।।23

कबीर गाफिल क्‍यौं फिरै, क्‍या सोता घनघोर।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्‍यूं अंधियारे चोर।।24

जरा आय जोरा किया, नैनन दीन्‍हीं पीठ।
आंखौ ऊपर आंगुली, वीष भरै पछ नीठ।।25

बिरिया बीती बल घटा, केस पलटि भये और।
बिगरा काज संभारि लै, करि छूटन की ठौर।।26

ताजी छूटा सहर ते, कसबै पड़ी पुकार।
दरवाजा जड़ाहि रहा, निकस गया असवार।।27

पंथी ऊभा पंथ सिर, बगुचा बांधा पूंठ।
मरना मुंह आगे खड़ा, जीवन का सब झूठ।।28

यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर।
बिच के वासै बसि गया, काल रहा सिर पूर।।29

सब जग डरपैं काल सों, ब्रह्मा विश्‍नु महेस।
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस।।30

कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल।
मरघट देखी डरपता, चौड़े दीया डाल।।31

निश्‍चय काल गरास हो, बहुत कहा समझाय।
कह कबीर मैं का कहूं, देखत ना पतियाय।।32

जारि बारि मिस्‍सी करै, मिस्‍सी करिहै छार।
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दे दै औतार।।33

घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान।
छाप बिना गुरु नाम के, सांकट रहा निदान।।34

ऐसे सांच न मानई, तिलकी देखो जोय।
जारि बारि कोयला करै, जमता देखा सोय।।35

माली आवत देखि के, कलियां करें पुकार।
फूली फूली चुनि लई, कल हमारी बार।।36

संसै काल शरीर में, जारि केर सब धूर।
काल से बांच दास जन, जिन पै दयाल हजूर।।37

कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।
काल्हि अलहजा मारिया, आज मसाना दीठ।।38

कबीर पगरा दूर है, आय पहूंची सांझ।
जन जन को मत राखतां, वेश्‍या रहि गई बांझ।।39

काल हमारे संग है, कस जीवन की आस।
दस दिन नाम संभार ले, जब लग पिंजर सांस।।40

टालै टूलै दिन गयो, ब्‍याज बढ़न्‍ता जाय।
ना हरि भजा न खत कटा, काल पहुंचा आय।।41

फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय।
जिन डाली हम केलि किय, सोही बयारे जाय।।42

हाथों परबत फाड़ते, समुन्‍दर घट भराय।
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय।।43

कबीर सब सुख राम है, औरहि दुख की रासि।
सुर नर मुनि अरु असुर सुर, पड़े काल की फांसि।।44

काची काया मन अथिर, थिर थिर करम करन्‍त।
ज्‍यौं ज्‍यौं नर निधड़क फिरै, त्‍यौं त्‍यौं काल हसन्‍त।।45

कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात।
ना जाने क्‍या होयगा, ऊगन्‍ता परभात।।46

जिनके नाम निशान है, तिन अटकावै कौन।
पुरुष खजाना पाइया, मिटि गया आवा गौन।।47

तरुवर पात सों यौं कहै, सुनो पात इक बात।
या घर याही रीति है, इक आवत इक जात।।48

पात झरन्‍ता यौं कहै, सुन तरुवर बन राय।
अबके बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।49


स्‍वारथ को अंग

स्‍वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान।
बिन स्‍वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान।।1

स्‍वारथ कूं स्‍वारथ मिले, पड़‍ि पड़‍ि लूंबा बूंब।
निस्‍प्रेही निरधार को, कोय न राखे झूंब।।2

माया कू माया मिले, कर कर लम्‍बे हाथ।
निस्‍प्रेही निरधार को, गाहक दीनानाथ।।3

संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकौ काम।
दुविधा से दोनों गये, माया मिली न राम।।4

निज स्‍वारथ के कारनै, सेव करै संसार।
बिन स्‍वारथ भक्ति करै, सो भावे करतार।।5


परमार्थ को अंग

आप स्‍वारथी मेदिनी, भक्ति स्‍वारथी दास।
कबीर जन परमार्थी, डारी तन की आस।।1

प्रीत रीत सब अर्थ की, परमारथ की नाहिं।
कहैं कबीर परमारथी, बिरला कोई कलि माहि।।2

परमारथ पाको रतन, कबहुं न दीजै पीठ।
स्‍वारथ सेमन फूल है, कली अपूठी पीठ।।3

सुख के संगी स्‍वारथी, दुख मे रहते दूर।
कहैं कबीर परमारथी, दुख सुख सदा हजूर।।4

जो कोय करे सो स्‍वारथी, अरस परस गुन देत।
बिन किया करै सो सुरमा, परमारथ के हेत।।5

स्‍वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहूना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।6

मरुं पर मांगू नहीं, अपने तन के काज।
परमारथ के कारनै, मोहि न आवै लाज।।7

धन रहै न जोबन रहै, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहै, करिदे किसी का काम।।8   


मन को अंग

कबीर यह मन मसखरा, कहूं तो मानै रोस।
जा मारग साहिब मिलै, तहां न चालै कोस।।1

कुंभै बांधा जल रहै, जल बिन कुंभ न होय।
ज्ञानै बांध बन रहै, मन बिनु ज्ञान न होय।।2

मन चलतां तन भी चलै, ताते मन को घेर।
तन मन दोऊ बसि करै, होय राइ सुमेर।।3

काया देवल मन धजा, विषय लहर फहराय।
मन चलते देवल चले, ताका सरबस जाय।।4

मेरे मन में परि गई, ऐसी एक दरार।
फाटाफटिक पषान ज्‍यूं, मिलै न दूजी बार।।5

पहिले यह मन कागा था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात।।6

कबीर मन परबत भया, अब मैं पाया जान।
टांकी लागी प्रेम की, निकसी कंचन खान।।7

काया कजरी बन अहै, मन कुंजर महमन्‍त।
अंकुस ज्ञान रतन है, फेरै साधु सन्‍त।।8

बिना सीस का मिरग है, चहं दिस चरने जाय।
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखो तत्‍व लगाय।।9

अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार।
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारुं वार।।10

कबीर मन तो एक है, भावै जहां लगाय।
भावै गुरु की भक्ति कर, भावे विषय कमाय।।11

तन का बैरी कोइ नहीं, जो मन शीतल होय।
तूं आपा को डारि दे, दया करे सब कोय।।12

मना मनोरथ छांड़‍ि दे, तेरा किया न होय।
पानी में घी नीकसै, रूखा खाय न कोय।।13

चंचल मन निहचल करै, फिर‍ि फिरि नाम लगाय।
तन मन दोउ बसि करै, ताका कछु नहिं जाय।।14

मेरा मन मकरन्‍द था, करता बहुत बिगार।
सूधा होय मारग चला, हरि आगे हम लार।।15

कबीर मनहि गयंद है, आंकुस दे दे राखु।
विष की बेली परिहरो, अमृत का फल चाखु।।16

कबीर यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।17

महमंता मन मारि ले, घट ही मांही घेर।
जल ही चालै पीठ दे, आंकूस दे दे फेर।।18

मन मनसा जब जायगी, तब आवैगी और।
जबही निहचल होगया, तब पावैगा ठौर।।19

अकथ कथा या मनहि की, कहैं कबीर समुझाय।
जो याको समझा परै, ताको काल न खाय।।20

सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार।
जो कोई याते बच, तीन लोक ते न्‍यार।।21

धरती फाटै मेघ मिलै, कपड़ा फाटै डौर।
तन फाटै को औषधि, मन फाटै नहिं ठौर।।22

यह मन नीचा मूल है, नीचा करम सुहाय।
अमृत छाडै मान करि, विषहि प्रीत करि खाय।।23

मन को मारूं पटकि के, टूक टूक ह्वै जाय।
विष की क्‍यारी बोयके, लुनता क्‍यौं पछिताय।।24

अपने उरझै उरझिया, दीखै सब संसार।
अपने सुरझै सुरझिया, यह गुरु ज्ञान विचार।।25

मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय।।26

मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोय एक।।27

मन मोटा मन पातरा, मन पानी मन लाय।
मन के जैसी ऊपजै, तैसी ही ह्वै जाय।।28

कबीर मन मरकट भया, नेक न कहुं ठहराय।
राम नाम बांधै बिना, जित भावै तित जाय।।29

कहत सुनत सब दिन गये, उरझि न सुरझा मन्‍न।
कहैं कबीर चेता नहीं, अजहूं पहला दिन्‍न।।30

मन की घाली हूं गई, मन की घाली जाउं।
संग जो परी कसंग के, हाटै हाट बिकाउं।।31

मन के मते न चालिये, छांडि जीव की बानि।
कतवारी के सूत ज्‍यौं, उलटि अपूठा आनि।।32

मन गोरख मन गोविंद, मन ही औघड़ सोय।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय।।33

यह मन हरि चरणे चला, माया-मोह से छूट।
बेहद माहीं घर किया, काल रहा शिर कूट।।34

जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर।
सहजै हीरा नीपजे, जो मन आवै ठौर।।35

मन पंखी बिन पंख का, जहां तहा उड़‍ि जाय।
मन भावे ताको मिले, घट में आन समाय।।36

कबीर बैरी सबल है, एक जीव रिपु पांच।
अपने-अपने स्‍वाद को, बहुत नचावै नाच।।37

कबीर लहरि समुद्र की, केतो आवै जांहि।
बलिहारी वा दास की, उलटि समावै मांहि।।38

बात बनाई जग ठग्‍यो, मन परमोधा नांहि।
कहैं कबीर मन लै गया, लख चौरासां मांहि।।39

कबीर यह गत अटपटी, चटपट लखी न जाय।
जो मन की खटपट मिटै, अधर भये ठहराय।।40

मनुवा तू क्‍यों बावरा, तेरी सुध क्‍यों खोय।
मौत आय सिर पर खड़ी, ढलते बेर न होय।।41

मनुवां तो पंछी भया, उड़‍िके चला अकास।
ऊपर ही ते गिर पड़ा, मन माया के पास।।42

मनुवा तो फूला फिरै, कहे जो करुं धरम।।
कोटि करम सिर पर चढ़े, चेति न देखै मरम।।43

मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक।
जो यह मन गुरु सो मिलै, तो गुरु मिले निसंक।।44

मन फाटै बायक बुरै, मिटै सगाई साक।
जैसे दूध तिवास को, उलटि हुआ जो आक।।45

मन पांचौं के बस पड़ा, मन के बस नहिं पांच।
जित देखूं तित दौं लगी, जित भाग् तित आंच।।46

मन के मारे बन गये, बन तजि बस्‍ती मांहि।
कहैं कबीर क्‍या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं।।47

निहचिन्‍त होय के गुरु भजै, मन में राखै सांच।
इन पांचौं को बसि करै, ताहि न आवै आंच।।48

मन मुरीद संसार है, गुरु मुरीद कोय साध।
जो माने गुरु बचन को, ताका मता अगाध।।49

मन ही को परमोधिये, मन ही को उपदेस।
जो यह मन को बसि करै, सीष होय सब देस।।50

चिन्‍ता चित्त बिसारिये, फिर बूझिये नहिं आन।
इन्‍द्री पसारा मेटिये, सजह मिलै भगवान।।51

कोटि करमकर पलक में, या मन विषया स्‍वाद।
सद्गुरु शब्‍द न मानहीं, जनम गंवाय बाद।।52

कागद केरी नावरी, पानी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरै, पांच कुसंगी संग।।53

इन पांचौ से बंधिया, फिर फिर धरै शरीर।
जो यह पांचौं बसि करै, सोई लागै तीर।।54

मन पंछी तब लगि उडै, विषय वासना मांहि।
ज्ञान बाज को झपट में, जब लगि आवै नांहि।।55

मन नहिं मारा करि सका, न मन पांच प्रहारि।
सील सांच सरधा नहीं, अजह् इन्द्रि उघारि।।56

दौड़त दौड़त दाडिया, जेती मन की दौर।
दौड़‍ि थके मन थिर भया, वस्‍तु ठौर की ठौर।।57

मन अपना समुझाय ले, आया गाफिल होय।
बिन समुझे उठि जायेगा, फोकट फेरा तोय।।58

मन के हारै हार है, मन के जीते जीत।
कहैं कबीर गुरु पाइये, मन ही के प्रतीत।।59


माया को अंग

या मारा जग भरमिया, सबको लगी उपाध।
यहि तारन के कारनै, जग में आये साध।।1

खान खरच बहु अन्‍तरा, मन में देख विचार।
एक खवावै साधु को, एक मिलावै छार।।2

मन मते माया तजी, यूं करि निकस बहार।
लागि रहि जानी नहीं, भटकी भयो खुवार।।3

माया जात है, सुनो शब्‍द निज मोर।
सुखियों के घर  साध जन, सूमौं के घर चोर।।4

कबीर माया पापिनी, लोभ भ्‍ज्ञुलाया लोग।
पूरी किनहुं न भोगिया, इसका यही बिजोग।।5

कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट।
सब जग तो फदै पड़ा, गया कबीरा काट।।6

छाडै बिन छूटै नहीं, छोड़न हारा राम।
जीव जतन बहुतरि करै, सरे न एकौ काम।।7

माया छोड़न सब कहै, माया छोरि न जाय।
छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय।।8

माया सम नहिं मोहिनी, मन समान नहिं चोर।
हरिजन सम नहिं पारखी, कोई न दीसे ओर।।9

माया जगवे कौन गन, अंत न आवै काज।
सोई नाम जोगावहु, भये परमारथ साज।।10

कबीर या संसार की, झूठी माया मोह।
जिहि घर जिता बधावना, तिहि घर तेता दोह।।11

माया करक कदीम है, यह भव सागर माहिं।
जंबुक रूपी जीव है, खैंचत ही महि जाहिं।।12

आंधी आई प्रेम की, ढही भरम की भीत।
माया टाटी उड़‍ि गई, लगी नाम सों प्रीत।।13

झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय।
ऐसे जन के निकट से, सब दु:ख गये हिराय।।14

सुकृत लागै साधु की, बादि विमुख की जाय।
कै तो तल गाड़ी रहै, कै कोय और खाय।।15

साधु ऐसा चाहिए, आई देई चलाय।
दोस न लागै तासु को, शिर की टरै बलाय।।16

मीठा सब कोय खात है, विष ह्व लागै धाय।
नीम न कोई पीवसी, सबै रोग मिट जाय।।17

मोटी माया सब तजैं, झीनी तजी न जाय।
पीर पैगम्‍बर औलिया, झीनी सबको खाय।।18

ऊंची डाली प्रेम की, हरिजन बैठा खाय।
नीचे बैठी बाघिनी, गिर पड़े तिहि खाय।।19

माया सेती मति मिली, जो सोबरिया देहि।
नारद से मुनिवर गले, क्‍याहि भरोसा तेहि।।20

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि माहिं परन्‍त।
कोई एक गुरु ज्ञानते, उबरे साधु सन्‍त।।21

करक पड़ा मैदान में, कुकुर मिले लख कोट।
दावा कर लड़‍ि मुए, अन्‍त चले सब छोड़।।22

माया देाय प्रकार की, जो जानै सो खाय।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय।।23

माया का सुख चार दिन, कहं तूं गहे गंवार।
सपने पायो राज धन, जात न लागे बार।।24

माया संच संग्रहै, वह दिन जानै नांहि।
सहस बरस की सब करै, मर मुहूरत मांहि।।25

कबीर माया सांपिनी, जनता ही को खाय।
ऐसा मिलना न गारुड़ी, पकड़‍ि पिटारे बांय।।26

माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय।
भगता के पीछे फिरै,  सनमुख भाजै सोय।।27

माया मन की मोहिनी, सुर नर रहे लुभाय।
इन माया सब खाइया, माया कोय न खाय।।28

माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देस।
जा ठग से ठगनी ठगी, ता ठग को आदेस।।29

माया माथे सींगड़ा, लम्‍बे नौ नौ हाथ।
आगे मारै सींगड़ा, पाछै मारै लात।।30

गुरु को चेला बिष दे, जो गांठी होय दाम।
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम।।31

माया दासी सन्‍त की, साकट की शिर ताज।
सांकट की सिर मानिनी, सन्‍तों सहेली लाज।।32

माया माया सब कहैं, माया लखै न कोय।
जो मन से ना ऊतरे, माया कहिए सोय।।33

कबीर माया मोहिनी, मांगी मिलै न हाथ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ।।34

कबीर माया बेसवा, दोनूं की इक जात।
आंवत को आदर करैं, जात न बूझ बात।।35

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड।
सद्गुरु की किरपा भई, नातर करती भांड।।36

माया संख पदुम लौं, भक्ति बिहुन जो होय।
जम लै ग्रासैं, सो तेहि, नरक पड़े पुनि सोय।।37

कबीर माया मोहिनी, सब जग छाला छानि।
कोइ एक साधु ऊबरा, तोडी कुल की कानि।।38

कबीर माया डाकिनी, सब काह् को खाय।
दांत उपारुं पापिनी, सन्‍तो नियरै जाय।।39

भूले थे संसार में, माया के संग आय।
सतगुरु राह बताइया, फेरि मिलै तिहि जाय।।40

माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत।
जहां जाय तहं सुख नहीं, या माया की रीति।।41

जग हटवारा स्‍वाद ठग, माया वेश्‍या लाय।
राम-राम गाढ़ा गहो, जनि जहु जनम गंवाय।।42

कबीर माया मोहिनी, मोहै जान सुजान।
भागै हू छूटे नहीं, भरि भरि मारै बान।।43

जिनको सांई रंग दिया, कबहुं न होय कुरंग।
दिन-दिन बानी आगरी, चढ़ै सवाया रंग।।44

मैं जानूं हरिसूं मिलूं, मो मन मोटी आस।
हरि बिच डारै अन्‍तरा, माया बड़ी पिचास।।45

माया तरुवर त्रिविधका, शोक दुख संताप।
शीतलता सुपनै नहीं, फल फीका तन ताप।।46

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर।
आशा तृष्‍णा ना मुई, यौं कथि कहैं कबीर।।47

मन ते माया ऊपजै, माया तिरगुण रूप।
पांच तत्‍व के मेल में, बांधे सकल सरूप।।48


मोह को अंग

अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि लौं, सबही मोह की खान।
त्‍याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान।।1

सुर नर मुनि सब फंसे, मृग त्रिस्‍ना जग मोह।
मोह रूप संसार है, गिरे मोह निधि जोह।।2

अपना तो कोई नहीं, देखा ठोकि बजाय।
अपना अपना क्‍या करै, मोह भरम लपटाय।।3

मोह फंद सब फंदिया, कोय न सके निवार।
कोई साधु जन पारखी, बिरला तत्‍व विचार।।4

अपना तो कोई नहिं,  हम काहू के नांहि।
पार पहूंची नाव जब, मिलि सब बिछुड़े जांहि।।5

जहं लगि सब संसार है, मिरग सबन को मोह।
सुर नर नाग पाताल अरु, ऋषि मुनिवर सब जोह।।6

जब घट मोह समाइया, सबै भया अंधियार।
निर्मोह ज्ञान विचार के, साधु उतरे पार।।7

काहु जुगति ना जानिया, किहि बिधि बचै सुखेत।
नहिं बंदगी नहिं दीनता, नहिं साधु संग होत।।8

मोह नदी विकराल है, कोई न उतरै पार।
सतगुरु केवट साथ ले, हंस होय जम नार।।9

मोह सलिल की धार में, बहि गये गहिर गंभीर।
सूक्ष्‍म मछली सुरति है, चढ़ती उल्‍टी नीर।।10

कुरुक्षेत्र सब मेदिनी, खेती करै किसान।
मोह मिरग सब चरि गया, आसन रहि खलियान।।11 

एक मोह के कारनै, भरत धरी दो देह।
ते नर कैसे छूटिहैं, जिनके बहुत सनेह।।12


काम को अंग

कामी क्रोधी लालची, इनते भक्ति न होय।
भक्ति करै कोय सूरमा, जाति बरन कुल खोय।।1

सहकामी दीपक दसा, सीखे तेल निवास।
कबीर हीरा सन्‍त जन, सहजै सदा प्रकाश।।2

काम क्रोध मद लोभी की, जब लग घट में खान।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान।।3

बुन्‍द खिरी नर नारि की, जैसी आतम घात।
अज्ञानी मानै न‍हीं, येहि बात उत्‍पात।।4

कामी लज्‍जा ना करै, मौहीं अहलाद।
नींद न मांगै साथरा, भूख न मांगे स्‍वाद।।5

कहता हूं कहि जात हूं, मानै नहीं गंवार।
बैरागी गिरही कहा, कामी वार न पार।।6

कामी कुत्ता तीस दिन, अन्‍तर होय उदास।
कामी नर कुत्ता सदा, छह रितु बारह मास।।7

कामी अमी न भावई, विष को लेवै सोध।
कुबुधि न भाजै जीव की, भावै ज्‍यों परमोध।।8

काम कहर असवार है, सबकों मारै धाय।
कोई एक हरिजन ऊबरा, जाके नाम सहाय।।9

भग भोगै भग ऊपजे, भगते बचै न कोय।
कहैं कबीर भगते बचै, भक्‍त कहावै सोय।।10

जहां काम तहां नाम नहिं, तहां नाम नहिं काम।
दोनों कबहू ना मिलै, रवि रजनी इक ठाम।।11

तन मन लज्‍जा ना रहे, काम बान उर साल।
एक काम सब वश किए, सुर नर मुनि बेहाल।।12

कामी तो निरभय भया, करै न कहाूं संक।
इन्‍द्री केरे बसि पड़ा, भूगते नरक निसंक।।13

दीपक सुन्‍दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरै अंग।।14

भक्ति बिगाड़ी कामिया, इन्द्रिन केरे स्‍वाद।
हीरा खोया हाथ सों, जनम गंवाय बाद।।15

कामी का गुरु कामिनी, लोभी का गुरु दाम।
कबीर का गुरु सन्‍त है, संतन का गुरु राम।।16


क्रोध को अंग

कोटि करम लागे रहै, एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार।।1

गार अंगार क्रोध झल, निन्‍दा धूवां होय।
इत तीनों को परिहरै, साधु कहावै सोय।।2

क्रोध अगनि घर घर बढ़ी, जलै सकल संसार।
दीन लीन निज भक्‍त जो, तिनके निकट उबार।।3

यह जग कोठी काठ की, चहुंदिस लागी आग।
भीतर रहै सो जलि मुये, साधु अबरे भाग।।4

जगत मांहि धोखा घना, अहं क्रोध अरु काल।
पौरि पहुंचा मारिये, ऐसा जम का जाल।।5

दसौं दिसा में क्रोध की, उठी अपरबल आग।
सीत संगत साध की तहां उबरिये भाग।।6


लोभ को अंग

बहुत जतन करि कीजिये, सब फल जाय नसाय।
कबीर संचै सूम धन, अन्‍त चोर ले जाय।।1

बीर औंधी खोपड़ी कबहूं धापै नांहि।
तीन लोक की सत्‍पदा, कब आवै घर मांहि।।2

जब मन लागा लोभ सो, गया विषय में भोय।
कहैं कबीर विचार के, केहि प्रकार धन होय।।3

सूम थैली अरु श्‍वान भग, दोनों एक समान।
घालत में सुख ऊपजै, काढ़त निकसै प्रान।।4

जोगी जंगम सेवड़ा, ज्ञानी गुनी अपार।
षट दरशन से क्‍या बनै, एक लोभ की लार।।5


मद को अंग

दीप कू झोला पवन है, नर को झोला नारि।
ज्ञानी झोला गर्व हैं, कहैं कबीर पुकारि।।1

अभिमानी कुंजर भये, निज सिर लीन्‍हा भार।
जम द्वारे जम कूटहीं, लोहा घड़े लुहार।।2

अहं अगनि हिरदै जरै, गुरु सों चाहै मान।
तिनका जम न्‍यौता दिया, हो हमरे मिहमान।।3

मद अभिमान न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय।
जा सिर अहं जु संचरे, पड़े चौरासी जाय।।4

कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय।
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्‍या होय।।5

जहां आपा तहां आपदा, जहां संसै तहां सोग।
कहैं कबीर कैसे मिटै, चारौं दीरघ रोग।।6

आपा सबही जात है, किया कराया सोय।
आपा तजि हरि को भजै, लाखन मध्‍ये होय।।7

                                                                                                                                                            
मान को अंग

प्रभुता को सब कोई भजै, प्रभु को भजै न कोय।
कहैं कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय।।1

लघुता में प्रभुता बसै, प्रभुता से प्रभु दूर।
कीड़ी सो मिसरी चुगै, हाथी के सिर धूर।।2

मान बड़ाई कूकरी, सन्‍तन खेदी जान।
पांडव जग पावन भया, सुपच बिराजै आन।।3

बड़ा बड़ाई ना करै, बड़ा न बोलै बोल।
हीरा मुख से कब कहै, लाख हमारा मोल।।4

ऊंचे कुल के कारने, भूलि रहा संसार।
तब कुल की क्‍या लाज है, जब तन होगा छार।।5

बड़ी बिपति बड़ाई है, नन्‍हा करम से दूर।
तारे सब न्‍यारे रहें गहै चंद और सूर।।6

बड़ा हुआ तो क्‍या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।7

कबीर अपने जीवते, ये दो बांता धोय।
मान बड़ाई कारनै, अछता मूल न खोय।।8

मान बड़ाई कूकरी, धर्मराय दरबार।
दीन लकुटिया बाहिरै, सब जग खाया फार।।9

मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्‍यवहार।
दीन गरीबी बन्‍दगी, सतगुरु का उपकार।।10

मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखै कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।11

बड़ा बड़ाई ना करे, छोटा बहु इतराय।
ज्‍यौं प्‍यादा फरजी भया, टेढ़ा टेढ़ा जाय।।12

कंचन तजना सहज है, सहज तिरिया का नेह।
मान बड़ाई ईरषा, दुरलभ तजनी येह।।13

माया तजी तो क्‍या भया, मान तजा नहिं जाय।
मान मड़े मुनिवर गले, मान सबन को खाय।।14

काला मुख कर मान का, आदर लावो आग।
मान बड़ाई छांड़‍ि के, रहौ नाम लौ आग।।15

बग ध्‍यानी ज्ञानी घने, अरथी मिले अनेक।
मान रहित कबीर कहैं, सो लाखन में एक।।16

हाथी चढ़‍ि के जो फिरै, ऊपर चंवर दुराय।
लोग कहैं सुख भोगवै, सीधे दोजख जाय।।17

ऊंचा देखि न राचिये, ऊंचा पेड़ खजूर।
पंखि न बैठे छांयड़े, फल लागा पै दूर।।18

मान बड़ाई जगत में, कूकर की पह‍िचान।
प्‍यार किये मुख चाटई, बैर किये तन हान।।19

बड़ी बड़ाई ऊंट की, लादे जहं लग सांस।
मुहकम सलिता लादि के, ऊपर चढ़े परास।।20

ऊंचा पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय।
नीचा होय सो भरि पिये, ऊंचा पियासा जाय।।21

बड़ा हुआ तो क्‍या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि।
जैसे फूल उजाड़ का, मिथ्‍या हो झड़ जांहि।।22

मान तजा तो क्‍या भया, मन का मता न जाय।
संत बचन मानै नहीं, ताको हरि न सुहाय।।23

मान दिया मन हरषिया, अपमाने तन छीन।
कहैं कबीर तब जानिये, माया में लौ लीन।।24

जौन मिला सो गुरु मिला, चेला मिला न कोय।
चेला को चेला मिलै, तब कछु होय तो होय।।25

लेने को हरिनाम है, देने को अंनदान।
तरने को है दीनता, बूड़न को अभिमान।।26

ऊंचे कुल में जनमिया, देह धरी अस्‍थूल।
पार ब्रह्म को ना चढ़े, वास विहूना फूल।।27


निन्‍दा को अंग

निन्‍दक दूर न कीजिये, कीजै आदर मान।
निर्मल तन मन सब करै, बके आन ही आन।।1

निन्‍दक तो है नाक बिन, निसदिन विष्‍ठा खाय।
गुन छाड़े अवगुन गहै, तिसका यही सुभाय।।2

अड़सठ तीरथ निन्‍दक न्‍हाई, देह पलोसे मैल न जाई।
छप्‍पन कोटि धरती फिरि आवै, तो भी निन्‍दक नरकहिं जावे।।3

सातों सागर मैं फिरा, जम्‍बू दीप दै पीठ।
पर निन्‍दा नाहीं करे, सो कोई बिरला दीठ।।4

माखी गहै कुवास को, फूल वास नहिं लेयै।
मधुमाखी हैं साधु जन, पुष्‍प बास चित देयं।।5

कंचन को तजबो सहल, सहल त्रिया को नेह।
निन्‍दा केरो त्‍यागबो, बड़ा कठिन है येह।।6

जो कोई निन्‍दै साधु को, संकट आवै सोय।
नरक जाये जन्‍मै मरै, मुक्ति कबहुं नहिं होय।।7

आपन को न सराहिये, और न कहिये रंक।
क्‍या जानो केहि ब्रिष तलि, कूरा होइ करंक।।8

दोष पराया देखि के, चले हसन्‍त हसन्‍त।
अपने चित्त न आवई, जिनको आदि न अन्‍त।।9

आपन को न सरारिये, पर निन्दिये न कोय।
चढ़ना लम्‍बा धौहरा, ना जाने क्‍या होय।।10

निन्‍दक मेरा जनि मरो, जीवो आदि जुगादि।
कबीर सतगुरु पाइये, निन्‍दक के परसादि।।11

कबीर निन्‍दक मरि गया, अब क्‍या कहिये जाय।
ऐसा कोई नाम मिला, बीड़ा लेय उठाय।।12

निन्‍दक एकहु मति मिलै, पापी मिलै हजार।
इस निन्‍दक के शीश पर, लाख पाप का भार।।13

निन्‍दक से कुत्ता भला, हट कर माडै रार।
कुत्ते से क्रोधी बुरा, गुरु दिलावै गार।।14

निन्‍दक तो है नाक बिन, सोहै नकटो माहिं।
साधु जन गुरु भक्‍त जो, तिनमें सोहै नाहिं।।15

काहू को नहिं निन्दिये, चाहे जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्‍छ है सोय।।16

जौ तू सेवक गुरुन का, निन्‍दा की जब बान।
निन्‍दक नेरे आय जब, कर आदर सनमान।।17

तिनका कबहूं न निन्दिये, पांव तले जो होय।
कबहूं उड़‍ि आंखो परै, पीर घनेरी होय।।18

निन्‍दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करे सुभाय।।19

लोग विचारा नींदइ, जिन्‍ह न पाया ग्‍यांन।
राम नांव राता रहै, तिनहु न भावै आंन।।20

 अब कै जे सांई मिले, तौ सब दुख आपौं रोइ।
चरनूं ऊपर सीस धरि, कहूं ज कहणां होइ।।21


कथनी को अंग

कूकस कूटै कण बिना, बिन करनी का ज्ञान।
ज्‍यौं बन्‍दूक गोली बिना, भड़क न मारै आन।।1

आप राखि परमोधिये, सुनै ज्ञान अकराथि।
तुस कूटै कन बाहिरी, कछू न आवै हाथि।।2

पद जौरै साखी कहै, साधन पड़‍ि गयी रोस।
काढ़ा जल पीवै नहीं, का‍ढ़‍ि पीवन की होस।।3

कथनी थोथी जगत में, करनी उत्तम सार।
कहैं कबीर करनी भली, उतरै भोजन पार।।4

कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोय।
कथनी से करनी करै, विष से अमृत होय।।5

पढ़‍ि पढ़‍ि के समुझावई, मन नहिं धारै धीर।
रोटी का संसै पड़ा, यौं कह दास कबीर।।6

कथनी काची होय गयी, करनी करी न सार।
श्रोता वक्‍ता मरि गया, मूरख अनंत अपार।।7

कथनी बदनी छाड़‍ि दे, करनी सों चित लाय।
कर सो जल प्‍याये बिना, कबहुं प्‍यास न जाय।।8

कथनी कथै तो क्‍या हुआ, करनी ना ठहराय।
कालबूत का कोट ज्‍यौं, देखते ही ढहि जाय।।9

साखी लाय बनाय के, इत उत अच्‍छर काटि। 
कहैं कबीर कब लगि जिये, जूठी पत्तर चाटि।।10

कथनी के सूरे घने, थोथै बांधै तीर।
बिरह बान जिनके लगा, तिनके बिकल सरीर।।11

कथनी कथि फूला फिरै, मेरे होयै उचार।
भाव भक्ति समझै नहीं अंधा मूढ़ गंवार।।12

पानी मिलै न आप को, औरन बकसत छीर।
आपन मन निहचल नहीं, और बंधावत धीर।।13

चतुराई चुल्‍है पड़े, ज्ञान कथै हुलसाय।
भाव भक्ति जानै बिना, ज्ञानपनो चलि जाय।।14


करनी को अंग

करनी गर्व निवारनी, मुक्ति स्‍वारथी सोय।
कथनी तजि करनी करै, तब मुक्‍ताहल होय।।15

कबीर करनी आपनी, कबहुं न निष्‍फल जाय।
सात समुद्र आड़ा पड़े, मिलै अगाऊ आय।।16

श्रोता तो घरहीं नहीं, वक्‍ता बकै सो बाद।
श्रोता वक्‍ता एक घर, तब कथनी का स्‍वाद।।17

श्रम ही ते सब कुछ बने, बिन श्रम मिल न काहि।
सीधी अंगुली घी जम्‍मो, कबहूं निकसै नाहिं।।18

जैसी मुख ते नीकसे, तैसी चालै नाहिं।
मानुष नहीं वे श्‍वान गति, बांधे जमपुर जांहि।।19

रहनी के मैदान में, कथनी आवै जाय।
कथनी पीसै पीसना, रहनी अमल कमाय।।20

करनी बीन कथनी कथै, अज्ञानी दिन रात।
कूकर सम भूकत फिरै, सुनी सुनाई बात।।21

जैसी करनी जासु की, तैसी भुगते सोय।
बिन सतगुरु की भक्ति के, जनम जनम दुख होय।।22

करनी का रजमा नहीं, कथनी मेरु समान।
कथता बकता मर गया, मूरख मूढ़ अजान।।23

कबीर करनी क्‍या करै, जो गुरु नहीं सहाय।
जिहि जिहि डारी पगु धरै, सों सों निंवनिंव जाय।।24

चोर चोराई टूंबरी, गाड़े पानी मांहि।
वह गाड़े तो ऊछलै, करनी छानी नाहिं।।25

करनी बिन कथनी कथै, गुरु पद लहै न सोय।।
बातों के पकवान से, धीरा नाहीं कोय।।26

मारग चलते जो गिरै, ताको नाहिं दोस।
कहैं कबीर बैठा रहै, ता सिर करड़े कोस।।27

कैसा भी सामर्थ्‍य हो, बिन उद्यम दुख पाय।
निकट असन बिन कर चले, कैसे मुख में जाय।।28

श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखे धीर।
श्रम ते खोदत कूप ज्‍यों, थल में प्रगटै नीर।।29

जब तू आया जगत में, लोग हंसे तू रोय।
ऐसी करनी ना करो, पीछे हंसे सब कोय।।30


कर्म को अंग

काया खेत किसान मन, पाप पुन्न दो बीव।
बोया लूनै आपना, काया कसकै जीव।।1

काला मुंह करुं करम का, आदर लावूं आग।
लोभ बड़ाई छांड़‍ि के, रांचू गुरु के राग।।2

कबीर सजड़े की जड़ा, झूठा मोह अपार।
अनेक लुहारे पचि मुये, उझड़त नहीं लगार।।3

बखत कहो या करम कहु, नसिब कहो निरधार।
सहस नाम हैं करम के, मन ही सिरजनहार।।4

दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होगया, दुख करेगा कूच।।5

तेरा बैरी कोइ नहीं, तेरा बैरी फैल।
अपने फैल मिटाय ले, गली-गली कर सैल।।6

कबीर कमाई आपनी, कबहु न निष्‍फल जाय।
सात समुद्र आड़ा पड़े, मिलै अगाड़ी आय।।7

परारब्‍ध पहिले बना, पीछे बना सरीर।
कबीर अचम्‍भा है यही, मन नहिं बांधे धीर।।8

रे मन भाग्‍यहि भूल मत, जो आया मन भाग।
सो तेरा टलता नहीं, निश्‍चय संसै त्‍याग।।9

लिखा मिटै नहीं करम का, गुरु कर भज हरिनाम।
सीधे मारग नित चलै, दया धर्म बिसराम।।10

कबीर चंदन पर जला, तीतर बैठा मांहि।
हम तो दाझत पंख बिन, तुम दाजत हो काहि।।11

चहै अकास पताल जा, फोड़‍ि जाहु ब्रह्मण्‍ड।
कहैं, कबीर मिटिहै नहीं, देह धरे का दण्‍ड।।12

जहं यह जियरा पगु धरे, बखत बराबर साथ।
जो है लिखा नसीब में, चलै न अविचल बात।।13

बाहिर सुख दुख देन को, हुकुम करै मन मांय।
जब उठे मन बखत को, बाहिर रूप धरि आय।।14

कीन्‍हे बिना उपाय कछु, देव कबहु नहिं देत।
खेत बीज बोवै नहीं, तो क्‍यौं जामैं खेत।।15

करे बुराई सुख चहै, कैसे पावै कोय।
रोपै पेड़ बबूल का, आम कहां ते होय।।16


भ्रम-विध्‍वंस को अंग

पाहन लै देवल रचा, मोटी मूरत माहिं।
पिण्‍ड फूटि परबश रहै, सो लै तारे काहिं।।1

पाहन पूजि के, होन चहत भव पार।
भीजि पानि भेदै नदी, बूड जिन सिर भार।।2

अकिल बिहूना आदमी, जानै नहीं गंवार।
जैसे कपि परबस पर्यो, नाचौ घर घर द्वार।।3

पाहन पानी पूजि के, पचि मूआ संसार।
भेद अलहदा रहि गया, भेदवन्‍त सो पार।।4

पंख होत परबस पर्यो, सूवा के बुधि नाहिं।
अकिल बिहूना आदमी, यों बन्‍धा जग माहिं।।5

अकिल बिहूना सिंह ज्‍यों, गयों ससा के संग।
अपनी प्रतिमा देखिके, कियो तन को भंग।।6

कुबुधी को सूझै नहीं, उठि उठि देवल जाय।
दिल देहरा को खबरि नहीं, पाथर ते कह पाय।।7

सिदक सबरी बाहिरा, कहा हज्‍ज को जाय।
जिनका दिल साबित नहीं, तिनको कहा खुदाय।।8

कबीर सालिगराम का, मोहिं भरोसा नाहिं।
काल कहर की चोट में, बिनसि जाय छिन माहिं।।9

पूजा सेवा नेम व्रत, गुड़ि‍यन का सा खेल।
जब लग पिव परसै नहीं, तब लग संसै मेल।।10

पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहार।
ताते तो चक्‍की भली, पीसि खाय संसार।।11

पाहन ही का देहरा, पाहन ही का देव।
पूजन हारा आंधरा, क्‍यों करि मानै सेव।।12

आतम दृष्टि जानै नहीं, न्‍हावै प्रात:काल।
लोकलाज लिया रहे, लागा भरम कपाल।।13

कबीर जेता आतमा, तेता सालिगराम।
बोलनहारा पूजिये, नहिं पाहन सो काम।।14

अकिल बिहूना आंधरा, गज फन्‍दे पड़ो आय।
ऐसे सब लग बंधिया, काहि कहूं समझाय।।15

लिखा पढ़ी में सब पड़े, यह गुन तजै न कोय।
सबै पड़े भ्रम जाल में, डारा यह जिय खोय।।16

तुरक मसीत देहर हिन्‍दू, आप आप को धाय।
अलख पुरुष घट भीतरे, ताका पार न पाय।।17

जप तप दीखै थोथरा, तीरथ ब्रत विश्‍वास।
सूवा सेमल सेइया, यों जग चला निरास।।18

बिना वसीले चाकरी, बिना बुद्धि की देह।
बिना ज्ञान का जोगना, फिरै लगाये खेह।।19

मुल्‍ला चढ़‍ि किलकारिया, अल्‍लाह न बहिरा होय।
जेहि कारन तूं बांग दे, दिल ही अन्‍दर सोय।।20

चिउंटी चावल ले चली, बिच में मिल गयी दाल।
कहैं कबीर दो न मिलै, इक ले दूजी डाल।।21

आगा पीछा दिल करै, सहजै मिलै न आय।
सो बासी जमलोक का, बांधा जमपुर जाय।।22

कांकर पाथर जोरि के, मसजिद लई चुनाय।
ता चढ़‍ि मुल्‍ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाय।।23

पाहन केरी पूतरी, करि पूजै संसार।
याहि भरोस मत रहो, बूड़ो काली धार।।24

पांच तत्‍व का पूतरा, रज बीरज की बूंद।
एकै घाटी नीसरा, ब्राह्मन क्षत्री सूद।।25

मनही में फूला फिरै, करता हूं मैं धर्म।
कोटि कर्म सिर पर चढ़े, चेति न देखे मर्म।।26

पढ़ा सुना सीखा सभी, मिटी न संसै भूल।
कहैं कबीर कासों कहूं, यह सब दुख का मूल।।27

मरती बिरियां दान दे, जीवन बड़ा कठोर।
कहैं कबीर क्‍यों पाइये, खांड़ा का व चोर।।28

पाहन को क्‍या पूजिये, जो नहिं देय जवाब।
अंधा नर आशा मुखी, यों ही खोवै आब।।29

तेरे हिय में राम हैं, ताहि न देखा जाय।
ताको तो तब देखिये, दिल की दुविधा जाय।।30

न्‍हाये धोये क्‍या भया, जो मन मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय।।31

दुविधा जाके मन बसै, दयावन्‍त जिय नाहिं।
कबीर त्‍यागो ताहि को, भूलि देहि जनि बाहिं।।32

सब बन तो तुलसी भई, परबत सालिगराम।
सब नदियां गंगा भई, जाना आतम राम।।33

निर्मल गुरु के ज्ञान सो, निरमल साधु भाय।
कोइला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय।।34

पूजै सालिगराम को, मन की भ्रान्ति न जाय।
शीतलता सपने नहीं, दिन दिन अधिक लाय।।35

सेवै सालिगराम को, माया सेती हेत।
पहिरै काली कामली, नाम धरावै सेत।।36

काजर केरी कोठरी, भसि के किये कपाट।
पाहन भूलि पिरथवी, पंडित पाड़ी वाट।।37

मूरति धरि धंधा रचा, पाहन को जगदीस।
मोल लिया बोलै नहीं, खोटा बिसवा बीस।।38

मन मक्‍का दिल द्वार‍िका, काया काशी जान।
दश द्वारे का देहरा, तामें ज्‍योति पिछान।।39


दया को अंग

दाता दाता चलि गये, रहि गये मक्‍खी चूस।
दान मान समुझे नहीं, लड़ने को मजबूत।।1

कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर।।2

दया दया सब कोई कहै, मर्म न जानै कोय।
जाति जीव जानै नहीं, दया कहां से होय।।3

जहां दया वहां धर्म है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां क्रोध वहां काल है, जहां क्षमा वहां आप।।4

दया भाव हिरदै नहीं, ज्ञान कथै बेहद।
ते नर नरकहि जाहिंगे, सुनि सुनि साखी शबद।।5

आचारी सब जग मिला, बीचारी नहिं कोय।
जाके हिरदै गुरु नहीं, जिया अकारथ सोय।।6

कुंजर मुख से मन गिरा, खुटै न वाको आहार।
कीड़ी कन लेकर चली, पोषन दे परिवार।।7

भावै जाओ बादरी, भावै जावहु गया।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब ते बड़ी दया।।8

दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप।
जहां क्षमा तहां धर्म है, जहां दया तहां आप।।9

दया का लच्‍छन भक्ति है, भक्ति से होवै ध्‍यान।
ध्‍यान से मिलता ज्ञान है, यह सिद्धान्‍त उरान।।10


दीनता को अंग

दीन गरीबी दीन को, दंदुर को अभिमान।
दुंदुर तो विष से भरा, दीन गरीबी जान।।1

दीन गरीबी बंदगी, साधुन सो आधीन।
ताके संग मैं यौं रहूं, ज्‍यौं पानी संग मीन।।2

दर्शन को तो साधु हैं, सुमिरन को गुरु नाम।
तरने को आधीनता, डूबन को अभिमान।।3

कबीर सबते हम बुरे, हमते भल सब कोय।
जिन ऐसा करि बूझिया, मीत हमारा सोय।।4

कबीर नवै सो आपको, पर को नवै न कोय।
घालि तराजू तोलिये, नवै सो भारी होय।।5

नहिं दीन नहिं दीनता, संत नहिं मिहमान।
ता घर जम डेरा किया। जीवत भया मसान।।6

नीचे नीचे सब तिरै, संत चरण लौ लीन।
जातिहि के अभिमान ते, बूड़े सकल कुलीन।।7

इक बानी सो दीनता, सब कछु गुरु दरबार।
यही भेंट गुरु देव की, संतन कियो विचार।।8

दीन लखै मुख सबन को, दीनहि लखै न कोय।
भली बिचारी दीनता, नरहु देवता होय।।9

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोज्‍या आपना, मुझसा बुरा न कोय।।10

मिसरी बिखरी रेत में, हस्‍ती चुनी न जाय।
कीड़ी ह्वै करि सब चुनै, तब साहिब कूं पाय।।11

दीन गरीबी बंदगी, सबसो आदर भाव।
कहैं कबीर सोई बड़ा, जामे बड़ा सुभाव।।12

आपा मेटै पिव मिलै, पिव में रहा समाय।
अकथ कहानी प्रेम की, कहै तो को पतियाय।।13             


सांच को अंग

कंचन केवल हरि भजन, दूजा कांच कथीर।
झूठा आल जंजाल तजि, पकड़ा सांच कबीर।।1

सांचै कोई न पतीयई, झूठे जग पतियाय।
गली गली गो रास फिरै, मदिरा बैठ बिकाय।।2

सांच कहै तो मारि हैं, यह तुरकानी जोर।
बात कहूं सतलोक की, कर गहि पकड़े चोर।।3

जिन पर सांच पिछानिया, करता केवल सार।
सो प्रानी काहे चले, झूठै कुल की लार।।4

तेरे अन्‍दर सांच जो, बाहर नाहिं जनाव।
जानन हारा जानि है, अन्‍तर गति का भाव।।5

अब तो हम कंचन भये, तब हम होते कांच।
सतगुरु की किरपा भई, दिल अपने को सांच।।6

सांचै कोई पतीयई, झूठे जग पतियाय।
पांच टका की धोपटी, सात टके बिक जाय।।7

सांच हुआ तो क्‍या हुआ, नाम न सांचा जान।
सांचा होय सांचा मिलै, सांचै मांहि समान।।8

कबीर झूठ न बोलिये, जब लग पार बसाय।
न जानों क्‍या होयगा, पल के चौथे भाय।।9

कबीर लज्‍जा लोक की, बोलै नाहिं सांच।
जानि बूझि कंचन तजै, क्‍यों तू पकड़े कांच।।10

सांच कहूं तो मारि हैं, झूठे जग पतियाय।
यह जग काली कूतरी, जो छेड़े तो खाय।।11

सांचे को सांचा मिलै, अधिक बढ़ै सनेह।
झूठे को सांचा मिलै, तड़ दे टूटे नेह।।12

झूठ बात नहिं बोलिये, जब लग पार बसाय।
अहो कबीरा सांच गहु, आवागवन नसाय।।13

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप।।14


उपजणि को अंग

नांव न जांगौं गांव का, मारगि लागा जांऊं।
काल्हि जु काटा भाजिसी, पहिली क्‍यों न खड़ाऊं।।1

सीक भई संसार थैं, चले जु सांई पास।
अविनासी मोहि ले चल्‍या, पुरई मेरी आस।।2

इंन्‍द्रलोक अचरिज भया, ब्रह्मा पड्या विचार।
कबीर चाल्‍या राम पैं, कोतिगहार अपार।।3

ऊंचा चढ़‍ि असमान कू, मेरु ऊलंघे ऊड़‍ि।
पशु पंषेरू जीव जंत, सब रहें मेर में बूड़‍ि।।4

सद पाणी पाताल का, काढ़‍ि कबीरा पीव।
बासी पाव पड़‍ि मुए, विषै बिलंबे जीव।।5

कबीर सुपिनैं हरि मिल्‍या, सूतां लिया जगाई।
आंखि न मीचौ डरपता, मति सुपिनां ह्वै जाइ।।6

गोब्‍यंदक के गुंण बहुत ह, लिखे जु हिरदै मांहि।
डरता पाणी ना पिऊं, मति वै धोंये जांहि।।7

कबीर अब तो ऐसा भया, निरमोलिक निज नाऊं।
पहली कांच कबीर था, फिरता ठांवैं ठाऊं।।8

भौ समंद विष जल भरया, मन नहीं बांधै धीर।
सबल सनेही हरि मिले, तब उतरे पारि कबीर।।9

भला सहेला ऊतरया, पूरा मेरा भाग।
राम नांव नौंका गह्या, तब पांणी पंक न लाग।।10

कबीर केसौ की दया, संसा घाल्‍या खोहि।
जे दिन गए भगति बिन, ते दिन साले मोहि।।11

कबीर जांचण जाइया, आगै मिल्‍या अंच।
ले चाल्‍या घर आपणै, भारी खाया संच।।12


अबिहड़ को अंग

कबीर साथी सो किया, जाके सुख दुख नहीं कोइ।
हिलि मिलि ह्वै करि खेलिस्‍यूं, कदे बिछोह न होइ।।1

कबीर सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्‍वारथ बंधी लोइ।।2

आदि मधि अरु अंत लौ, अबिहड़ सदा अभंग।
कबीर उस करता की, सेवग तजै न संग।।3

अंकूर ते बीज बीज ते अंकुर, अंकुर बीज संभारे।
काया ते कर्म कर्म ते काया, कोई बिरला जना निखारे।।4

अपनी कहे मेरी सुने, सुनि मिल‍ि एके होय।
हमरे देखत जग जात है, ऐसा मिला न कोय।।5

अमृत की मोटरी, सिर सों धरे उतारि।
ताहि कहैं मैं एक सो, कहे मोहिं चारि।।6

अर्व खर्व लौ द्रव्‍य हैं, उदे अस्‍त लौं राज।
भक्ति महातम न तुले, ई सब कौने काज।।7

असून्‍य तखत आसन अडिग, पिंड झरोखे नूर।
जाके दिल में हौ बसे, सेना लिये हुजूर।।8

अहिरह तजी खसमहुँ तजी, बिना दांद का ढोर।
मुक्ति पड़ी बिललात है, वृ़दावन की खोर।।9

आगि जु लागि समुद्र में, धुंआ प्रगट न होय।
सो जाने जो जरि मुआ, जाकी लाई होय।।10

आगि जो लागि समुद्र महैं, टूटि टूटि खसे झोल।
रोबे कबिरा डंफिया, हीरा जरे अमोल।।11

आगि जो लागि समुद्र महं, जरे जौ कांदो झारि।
पूर्व पछिम के पंडिता, मुए विचारि विचारि।।12

आगे सीढ़ी सांकरी, पीछे चकनाचूर।
परदा तर की सुंदरी, रही धको ते दूर।।13

आगे-आगे दौं जरे, पाछे हरियर होय।
बलिहारी तेहि वक्ष की, जरि काटे फल होय।।14

आजु काल दिन कइक में, स्थिर नाहिं शरीर।
कहहिं कबीर कस रखिहो, कांचे बासन नीर।।15

आधी साखी सिर खंड़ी, जो निरुवारी जाय।
क्‍या पंडित की पोथियां, राति दिवस मिलि गाय।।16

आपनि आपनि शरी की, सभनि लीनो मान।
हरि की बात दुरन्‍तरे, परी न काहू जान।।17

आपा तजे हरि भजे, नखसिख तजे विकार।
सब जीवन से निबरहे, साधुमता है सार।।18

आस्ति कहौं तो कोइ न पतीजे, बिना अस्ति का सिद्धा।
कहहिं कबीर सनहु हे सन्‍तो, हीरी हीरा विद्धा।।19

इहां ई शंबल करि लेउ, आगे विषयी वाट।
स्‍वर्ग बिसाहन सब चले, जहं बनिया नहि हाट।।20

ई जग तो जहड़े गया, भया जोग नहिं भोग।
तील झाारि कबिरा लिया, तिलठी झारे लोग।।21

ई मन चंचल ई मन चोर, ई मन शुद्ध ठगहार।
मनमनम कहत सुर नर मुनि जहंड़े, मन के लक्ष दुआर।।22

ई माया है चूहड़ी, औ चुहड़े की जोय।
बाप पूत अरुझााय के, संग न काहुक होय।।23

ऊपर की दोऊ गई, हिय की गई हिराय।
कहहिं कबीर जाके चारों गई, तासो कहा बसाय।।24

ऊपरि की दोऊ गई, हियहु कि फूटी आंखि।
कबीर बिचारा क्‍या करे, जो जिवहिं नाही झांंकि‍।।25

एक एक निरुवारिये, जो निरुवारी जाय।
दुई मुख के बोलना, घना तमाचा खाय।।26

एक कहौं तो है नहीं, दुई कहौं तो गारि।
है जैसा तैसा रहो, कहहिं कबीर पुकारि।।27

एक ते अनंत ह्यौ, अनन्‍त एक हो जाय।
परिचय भया जु एक तें, अनंत एकहिं मांह समाया।।28

एक बात की बात है, कोई कहे बनाय।
भारी परदा बीच का, तातें लखी न जाय।।29

ए गणवन्‍ती बेलरी, तव गुण बरणि न जाय।
जड़ काटे सो हरियरी, सींचे ते कम्‍हलाय।।30

ए मरजीवा अमृत पीवा, क्‍यों धसि मरसि पताल।
गुरु की दया साधु की संगति, निकरि आव एहि द्वार।।31

एक शब्‍द गुरुदेव का, तामे अनन्‍त विचार।
थाके मुनिजन पंडिता, वेद न पावे पार।।32

एक साधे  सब साधिया, सब साधे सब जाय।
ज्‍यों जल सींचे मूल को, फूले फले अघाय।।33

औरनि के समुझावते, जिभ्‍या परिगौ रेत।
राशि बिरानी राखते,  खयिनि घर का खेत।।34

कनक कामिनी देखिके, तू मत भूल कुरंग।
मिलन बिछुरन दुहेलरा, जस केंचुलि तजे भुजंग।।35

कबीर का घर शिखर पर, जहां सिलहली गैल।
पांव न टिके पिपिलि का, तहां खलकोन लादा बैल।।36

कबीर जात पुकरिया, चढ़‍ि चंदन की डार।
बाट लगाए ना लगे, फिर का लेत हमार।।37

कबीर भर्म न भाजिया, बहुविधि धरिया भेष।
साई के परच बिना, अन्‍तर रहा न लेख।।38

कर बंदगी विवेक की, भेष धरे सब कोय।
सो बन्‍दगी बहि जान दे, जहां शब्‍द विवेक न होय।।39

कुरु बहियां बल आपनां, छांडु बिरानी आस।
जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरत पियास।।40

कलि काठी कालो घुना, जतन जतन घुन खाय।
काया मध्‍ये काल बसतु है, मर्म न कोई पाय।।41

कलि खोटा जग आंधरा, शब्‍द न माने कोय।
जाहि कहौं हित आपना, सौ उठि बैरी होय।।42

कहंता तो बहु मिला, गहंता मिला न कोय।
सो कहंता बहि जान दे, जो न गहंता होय।।43

काजर की ही कोठरी, काजर ही का कोट।
तोंदी कारी ना भई, रही सो ओट हि ओट।।44

काजर की ही होठरी, बुड़ा ई संसार।
बलिहारी ताहि पुरुष की, पैठि जु निकलनि हार।।45

काल खड़ा सिर ऊपरै, जागि विराने मीत।
जाका घर है गेल में, सो कस सोवे निर्चीत।।46

काला सर्प शरीर में , खाई सब जग झारि।
बिरला ते जन बांचिहें, जो रामहिं भजे विचारि।।47

ऐसी गति संसार की, ज्‍यों गाडर के ठाट।
एक परे जेहि गाड़ में, सबै गाड़ में जाय।।48

काह बड़े कुल ऊपजे, जो रे बड़‍ि बुद्धिहि नाहिं।
जैसे फूल उजारि के, मिथ्‍या लगि झरि जाहिं।।49

काहे हरिणी दुर्बली, चरे हरियरे ताल।
लक्ष्‍य अहेरी एक मृग, केतिक टारे भाल।।50

कृष्‍ण समीपी पांडवा, गले हिमालय जाय।
लोहा को पारस मिले, तो काहे काई खाय।।51

केला तबहि न चेतिया, जब ढिग लागा बेर।
अब के चेते क्‍या भया, जब कांटेनि लिन्‍हा घेर।।52

कोठी तो यह काठ की, ढिग ढिग दीन्‍ही आगि।
पंडित पढ़‍ि गुणि झोली भये, साकत उबरे भागि।।53

खेत भला बीज भला, बोइल मुठिका फेर।
काहे बिरवा रूखरा, ई गुण खेतहिं केर।।54

गही टेग नहिं छोड़ई, चोंच जीभ जरि जाय।
ऐसे तप्‍त अंगार है, ताहि चकोर चबाय।।55

गावे कथे विचारे नाहीं, अनजाने का दोहा।
कहहिं कबीर पारस पारस बिना, ज्‍यों पाहन भीतर लोहा।।56

गुणिया तो गुण ही गहे, निगुर्णयां गुणहि घिनाय।
बैलहिं दीजे जायफल, क्‍या बुझे क्‍या खाय।।57

गुरु की भेली जिब डरे, काया सिचनिहार।
कुमति कमाई मन बसे, लागु जुबाकी लार।।58

गुरु बिचारा क्‍या करे, जो शिष्‍यहि में है चूक।
शब्‍द बाण बेधे नहीं, बांस बजावे फूंक।।59

गुरु माथे से उतरे, शब्‍द विमूखा होय।
बाको काल घसीटि है, राखि सकै नहिं कोय।।60

गुरु सिकलीगर कीजिए, मनहि मसकला देइ।
शब्‍द छोलना छोलिके, चित्त दर्पण कर‍ि लेइ।।61

गृह तज के भये उदासी, वन खंड तप के जाय।
चोली थाके मारिया, बेरई चुनि चुनि खाय।।62

गोरख रसिया योग के, मुये न जारे देह।
मांस गलि माटी मिली, कोरो मांजी देह।।63

ग्राम ऊंचे पहाड़ पर, औ मोटे की बांह।
कबीर ऐसा ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छांह।।64

घाट भुलाना बाट बिनु, वेष भुलानी कानि।
जाकि मांडी जगत महं, सो न परा पहिचानि।।65

घुंघची भर के बाये, उपजी पसेरी आठ।
डेरा परा काल, सांझ सकारो जाय।।66

चंदन वास निवारहु, मूये सबै निपातिया।
जिवत जीव जनि मारेहु, मूये सबै निपातिया।।67

चंदन सर्प लपेटिया, चंदन काह कराया।
राम-राम विष भीनिया, अमृत कहां समाय।।68

चकोर भरोसे चंद के, निगले पप्‍तांगार।
कहहिं कबीर दाधे नहीं, ऐसी वस्‍तु लगार।।69

चलती चक्‍की देख के, मेरे नयन आया रोय।
दो पाटन के अन्‍तरे, सालिम बचा न कोय।।70

चलते-चलते पगु थका, नगर रहा नव कोस।
बीचहिं में डेरा पड़ा, कहो कवन का दोस।।71

चार चोर चले, पग पनही उतारि।
चारों दर थूनी हनी, पंड‍ित करहु बिचारि।।72

चार मास घन वर्षिया, अति अपूर जल नीर।
पेन्‍हे चढ़त न बखतरी, चुभे न एको तीर।।73

चौगोड़ा के देखते, व्‍याधा भागो जाय।
अचरज एक देखहु हो संतो, मुवा कालहि खाय।।74

छव दर्शन में जो प्रमाणा, तासु नाम बनवारी।
कहहिं कबीर ई खलक सयाना, इनमें हमहिं अनारी।।75

जंत्र बजावत हो सुना, टूटि गए सब तार।
जंत्र विचारा क्‍या करें, गए बजावन हार।।76

जब लगि डोला तब लगि बोला, तब लगि धन व्‍यवहार।
ड़ाला फूटा बाला गया, कोई न झांके द्वार।।77

जब लगि तारा जगमगे, तब लगि उगे न सूर।
जब लगि जीव कम बस डोले, तब लगि ज्ञान न पूर।।78

जरा मरण बालापना, चौथा वृद्ध अवस्‍था आह।
जस मुसमसा तके बिलाइ, अस जम घात लगाय।।79

जहं गाहक तहं हौं नहीं, हौं तहं गाहक नाहिं।
बिनु विवेक भरमत फिरे, पकड़ो शब्‍द की छांहि।।80

जहर जिमीदे रोपिया, अमि सींचे सत बार।
कबीर खलक नाहीं तजे, जामहं जौन बिचार।।81

जहां बोल तहं अक्षर आया। जहं अक्षर तहं मनहिं डिढाया।
बोल अबोल एक है सोई, जिन एक लखा सो बिरला होई।।82

जहिया जन्‍म मुक्‍ता हता, तहिया हता न कोय।
छठी तुम्‍हारी हौं जगा, तू कह चला वियोग।।83

जाकी जिह्वा बंद नहिं, हृदय नांही सांच।
ताके संग न लागिये, घाले बटिया मांझ।।84

जाके चलते रौंदे परा, धरती होइ बेहाल।
सो सावन्‍त घर में जरे, पंडित करहु विचार।।85

जाके मुनिवर तप करे, वेद थके गुण गाय।
सोई देव सिखापनो, कोई नहीं पतियाय।।86

जाको सद्गुरु नहिं मिला, व्‍याकुल चहुं दिसि धाव।
आंखि न सूझे बावरे, घरे जरे घूर बुताव।।87

जागृत रूपी जीव है, शब्‍द सुहागा सेत।
जर्र बिंदु जल कुक्‍कुटी, कहहिं कबीर कोइ देख।।88

जानि बूझि जड़ होय रहो, बल तजि निर्बल होय।
कहहिं कबीर तेहि संत के, पला न पकरे कोय।।89

जासों दिल नहि मिलिया, शब्‍द बेधा अंग।
कहहिं कबीर पुकारि के, हंस बके का अंग।।90

जाहि खोजत कल्‍पे बीते, घटहिं में सो मूल।
बाढे गर्व गुमान ते, ताते परिगो दूर।।91

जिन‍ि जिनि शंबल नहि किया, ऐसा पुर पठ (त्त) न पाय।
झालि परे दिन आथये, शंबल कियो न जाय।।92

जिव बिनु जीव जिवे नहीं, जिव को जीव अधार।
जीव दया के पालिये, पंडित करहु विचार।।93

जिह्वा केरे बंद दे, बहु बोलना निवार।
पारखी से संग करु, गुरुमुख शब्‍द विचार।।94

जीव घात नहि कीजिए, बहुरि लेत वै कान।
तीरथ गए न बांचिहु, कोटि हीरा देहु दान।।95

जीव जनि मारह बापुरा, सबका एकहि प्राण।
हत्‍या कबहूं न छुटि है, कोटिक सुनउ पुराण।।96

जीव मरण जानै नहीं, अन्‍धा भया सब जाय।
वादी द्वारे दार नहिं पावै, जन्‍म जन्‍म पछिताय।।97

जेते पत्र वनस्‍पति, औ गंगा के रेणु।
पंडित विचारा क्‍या कहे, कबीर कहा मुख वेण।।98

जेहि मारग गए पंडिता, ताते ही गई बहीर।
ऊंची घाटी राम की, तेहि चढ़‍ि गया कबीर।।99

जेहि मारग सनकादि, गयो ब्रह्मा विष्‍णु महेश।
कहहिं कबीर सो मारग थाकिया, मैं काहि कहैं उपदेश।।100

जेहि वन सायर मुझे ते, रसिया लाल करहिं।
अब कबीर पांजी करी, पंथी आवहिं जाहिं।।101

जेहि वन सिंध न संचरे, पक्षी नहिं उड़‍ि जाय।
सो वन कबिरन्हि हींडिया, शून्‍य समाधि लगाय।।102

जैसी कहे करे जो, तैसी राग द्वेष निरुवारे।
ता महं घटै बट्टे रतियो नहिं, यहि विधि आपु समारे।।103

जैसी गोली गुमज की, नीच परे ठहराया।
ऐसा हृदय मुरख का, शब्‍द नहीं ठहराय।।104

जैसी लागी ओर की, तैसी निबहै छोर।
कोड़ी कोड़ी जोरि के, कीन्‍हों लक्ष्‍य करोर।।105

जो घर रहे सर्प का, ता घर साधु न होय।
सकल संपदा ले गया, विषहर लागे सोय।।106

जो जन झीने राम रस, विकसित कबहूं न रूख।
अनुभव भाव न दरसये, ते नर दु:ख न सुख।।107

जो जानहु जगजीवना, जो जानह तो जीव।
पान पचायेहु आपना, पनिया मागि न पीव।।108

जो जानहु जिव आपना, करहू जीव जीव का सार।
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार।।109

जो तू सांचा बानिया, सांची हाट लगाव।
अन्‍दर झारू देइ के, कूरा दूरि बहाव।।110

जो मिला सो गुरु मिला, शिष्‍य मिला नहिं कोय।
छौं लाख छानबे सहस रमैनि, एक जीव पर होय।।111

ज्ञान रत्‍न की कोठरी, चुम्‍बक दिया है ताल।
पारखी आगे खालिये, कुंजी बचन रसाल।।112

ज्‍यों दर्पण प्रतिबिम्‍ब देखिए, आप दुनों महं सोई।
या तत्त्‍व ते वा तत्त्‍व है, याही में पुनि होई।।113

ज्‍यों मुदराद समशान ज्‍यों, शील सबरूप समान।
कहहिं कबीर सावन गती, तबकी देख‍ि झुकाहि।।114

झालि परे दिन आथये, अन्‍तर परिगो सांझ।
बहुत रसिक के लागते, वेश्‍या रह गइ बांझ।।115

झिलमिलि‍ झगरा झूलते, वाकी छुटी न काहु।
गोरख अटके कालपर, कौन कहावे साहु।।116

भूला सो भूला, बहुरि के चेतना।
विस्‍मय को छुरी से, संशय को रेतना।।117

ढाढस देखह मरजीवा को, धर जोरि पैढा पाताल।
जीव के अटक माने नहीं, ले गहि निकसा लाल।।118

ढिग बूडे उछले नहीं, इहै अंदेसा मोहिं।
सलिल मोह की धार में, का निंदिआई तोहिं।।119

तन संशय मन सुनहा, काल अहेरी नीत।
उतपति परले नहिं होता, तब की कही कबीर।।120

ताकी पूरी क्‍यों परे, गुरु न लखाई बाट।
ताके बेरा बूड़ही, फिरि औघट घाट।।121

तामस केरे तीन गुण, भंवर लेहि तहं बास।
एकहि डारी तीन फल, भाटा ऊख कपास।।122

ताहि न कहिए परखू, पाहन लखे जो कोय।
नर नग या दिल जो लखे, रतन पारखू सोय।।123

तीनि लोक टीड़ी भया, उड़े जो मन के साथ।
हरि जाने बिनु भटके, पर काल के हाथ।।124

तीनि लोक चोरी भया, सर्वस सब का लीन्‍ह।
बिना मूड़ का चोरवा, परा न काहू चीन्‍ह।।125

तीनि लोक भो पींजरा, पाप पुण्‍य भो जाल।
सकल जियरा सावज भया, एक अहेरी काल।।126

तीरथ गए ते बहि मुए, जूड़े पाणि नहाय।
कहहिं कबीर पुकारि के, राक्षस होय पछताय।।127

तीरथ गए तीन तीन जना, चित चंचल मन चोर।
एको पाप न काटिया, लादिन मन दस और।।128

तीर्थ भई विष वेलरी, रही जुगन जुग छाह।
कबिरन मूल निकंदिया, कौन हलाहल खाय।।129

दर्पण केरी गुफा महं, सोनहा पैठे धाय।
देखे प्रतिमा आपनी, भंकि भूंकि मरि जाय।।130

सकलो दुर्मति दूर करि, अच्‍छा जनम बनाव।
काग गमन बुधि छोड़ दे, हंस गमन चलि आव।।131

दहरा तो नूतन भया, तदपि न चीन्‍हे कोय।
जिहि यह शब्‍द विवेकिया, छत्र धनी है सोय।।132

देश विदेश हम फिरे, ई मन भरा सुकाल।
जाके ढूंढ़त मैं फिरौं, ताके परा दुकाल।।133

दोहरा कथि कहहिं कबीर, प्रतिदिन समय जु देखि।
मुई गये न बहुरे, बहुरि न ऐहैं फेरि।।134

द्वारे तेरे रामजी, मिलहुँ कबीरा मोहिं।
तैं तो सब में मिलि रहा, मैं न मिलुंगा तोहि।।135

धरती जानति आप गुण, कधी न होती डोल।
तिल तिल गुरुवी होती, रहित ठीकहु के मोल।।136

धौं की डाही लाकरी, ओभी करे पुकार।
अब जो जाय लोहार घर, डाढे दूजी बार।।137

नग पषाण जग सकल है, लखवैया सब कोय।
नग ते उत्तम पारखी, जग में बिरलै होय।।138

नित खरसान, लोह घुन छुटे।
नित की गोष्टि, माया मोह टूटे।।139

नयन न आगे मन बसे, पलक पलक करे दौर।
तीनि लोक मन भूप है, मन पूजा सब ठौर।।140

नव मन दुग्‍ध बटोरिके, टिपके भया विनास।
दूध फाटि कांजी भया, हुआ घृतहु को नास।।141

नष्‍टा का राज है, नफरत का वरते तेज।
सार शब्‍द टकसार है, हृदये मांहि विवेक।।142

नहिं हीरा की बोरियां, नहिं हंसन की पांति।
सिंघहु के लहड़ा नहीं, साधु न चले जमाति।।143

नाना रंग तरंग है, मन मकरंद असूझ।
कहहिं कबीर पुकारि के, अकलि कला ले बूझ।।144

नाम न जाने ग्राम को, भूलो मारग जाय।
काल्हि गड़गा कण्‍टक, अगुमन कस कराय।।145

पंच तत्त ले या तन कीन्‍हा, सो तन काही ले दीन्‍हा।
कर्महि के वश जीव कहत है, कर्महि को जिव दीन्‍ह।।146

पंच तत्‍व का पूतरा, मानुष धरिया नाम।
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठांव।।147

पंचतत्त के भीतरे, गुप्‍त वस्‍तु अस्‍थान।
बिरले मर्म कोई पाइहै, गुरु के शब्‍द प्रमाण।।148

पंच तत्त्‍व को पूतरा, जुक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहिं पूछौ पंडिता, शब्‍द बड़ा की जीव।।149

पक्षापक्षी के कारण, सब जग गया भुलान।
निरपक्ष होय के हरि भजे, सोई सन्‍त सुजान।।150

परदे पाणी दाधिया, संतो करह विचार।
सरमा सरमी पचि मुवा, काल घसीट निहार।।151

पर्वत ऊपर हर बहे, घोरा चढ़ बसि ग्राम।
बिना फूल भंवरा रस चहै, कहु बिरवा को नाम।।152

फल में परले बीतिया, लोगहि लागु तिवारि।
आगिल सोच निवारि के, पाछिल करहु गुहारि।।153

पांवहिं पहुमी नापते, दरिया करते फाल।
हाथन्हि पर्वत तोलते, तेहि धरि खायो काल।।154

पाणि पियावत का फिरो, घर घर सायर बारि।
तुषावंत जो होंहिगे, पीवहिंगे झख मारि।।155

पाणी भीतर घर किया, सेज्‍या किया पताल।
पासा परा करीम का, तामंह मेले जाल।।156

पानी ते अति पातला, धुआं ते अति छीनि।
पवनुहु ते उतावला, दोस्‍त कबीरनि कीनि।।157

पारस परसि ताम्र भो, कंचन बहुरि न तांबा होय।
परिमल बास परासहि, बेधे काठ कहै नहिं कोय।।158

पारस रूपी जीव है, लोह रूप संसार।
पारस ते पारस भया, परख भया टकसार।।159

पाव पलक की गमि नहीं, करे काल के साज।
बीच अचानक मारिहैं, ज्‍यों तीतर कों बाज।।160

पीपर एक महा गभानी, वाकी मर्म कोई नहिं जा‍न।
डार लंबाये फल कोइ नहीं पाय। खसम अक्षत बहु पीपरे जाय।।161

पूर्व उगे पश्चिम अथवे, भखे पवन को फूल।
ताका राहु काल गरासे, मानुष काहे को भूल।।162

पैठा है घर भीतरे, बैठा है सचेत।
जब जैसी गति चाहिए, तब तैसी मति देत।।163

हौं तो सब ही की कही, मो कहं कोइ न जान।
तब भी अच्‍छा अब भी अच्‍छा, युग-युग होऊं न आन।।164

प्रगट कहौं तो मारिया, परदा लखे न कोय।
सहना छुपा पुवार तर, को कह बैरी होय।।165

प्रथम एक जो हीं किया, भया सो बारह बान।
कसत कसौटी ना टिका, पीतर भया निदान।।166

प्राणी तो जिभ्‍या डिगो, क्षण क्षण बोले कुबोल।
मन घाले भरमत फिरे, कालहिं देत हिंडोल।।167

प्रेम पाट का चोलना, पहरि कबीरा नाच।
पानप दीन्‍हों ताहि को, जो तन मन बोले सांच।।168

फहम आगे फहम पीछे, फहम बायें डेरे।
फहम पर जो फहम करे, सोइ फहम है मेरे।।169

बनते भागा बिहुड़े परा, करहा अपने बाने।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जाने।।170

बना बनाया मानवा, बिना बुद्धि वेतूल।
कहा लाल ले कीजिए, बिना बास का फूल।।171

बलिहारी तेहि दूध की, जामे निकला घीव।
आधी साखी कबीर की, चारि वेद का जीव।।172

बलिहारी तेहि पुरुष की, जो परचित परखनहार।
साई दीन्‍हों खांड तो, खारी बूझे गंवार।।173

बड़ा तो गए बड़पने, रोम रोम हंकार।
सद्गुरु के परचे बिना, चारों वर्ण चमार।।174

बहुत दिवस तें हींडिया, शून्‍य समाधि लगाय।
करहा पड़ा गाड़ में, दूरि परे पछिताय।।175

बहुबंधन के बंधिया, एक विचारा जीव।
के छूटे बल आपने, के छुड़ावे पीव।।176

बांह मरोरे जात है, सोबत लिया जगाय।
कहहिं कबीर एकारि कै, पिण्‍ड रहौ कै जाय।।177

वाजन दे बाजन्‍तरी, कलि कुकुरी मति छेर।
तुझे बिरानी क्‍या परी, अपनी आप निबेर।।178

बिन डांडै जग डांडिया, सोरठि परिया डांड।
बाटनिहारा लोभिया, गुड़े ते मीठी खांड।।179

बिनु रसरी गृह खल बंधा, तासू बंधा अलेख।
दीन्‍ह दर्पण हस्‍त मधे, चसम बिना का देख।।180

विष के बिखहिं घर किये, रहा सर्प लपटाय।
तातें जियरहिं डर भया, जागत रैन विहाय।।181

बूंद जो परा समुद्र में, यह जाने सब कोय।
समुद्रक समाना बूंद में, बुझे बिरला कोय।।182

बेढा दीह्नहो खेता का, बेढा खेतहि खाय।
तीनि लोक संशय परी, काहि कहा बिलगाय।।183

बेरा बांधिनि सर्प का, भव सागर अतिमाह।
छोड़े तो बूड नहीं, गहे तो डसे बांह।।184

बेलि कुढंगी फल निफरो, फुलवा कुबुधि गंधाय।
ओर विनष्‍टी तुंबिका, सरो पात करुवाय।।185

बैठा रहे सो बानिया, खड़ा रहे सा ग्‍वाल।
जागत रहे सो पाहरु, तिहि धरि आयो काल।।186

बोलना है बह भांति का, नैनन नहिं कछु सूझ।
कहहिं कबीर पुकारि के, घट बानी बूझ।।187

बोलि हमारी पूर्व की, हमें लखे नहिं कोय।
हमें लखे सो जना, जो धुर पूरब का होय।।188

भंवर जाल बगु जाल है, बूड़े बहुत अचेत।
कहहिं कबीर ते बांचिहैं, जाके हृदय विवेक।।189

भंवर विलंबे बाग में, बहु फूलन की बास।
ऐसे जिव बिलमे विषय में, अन्‍तहु चले निरास।।190

भक्ति पियारी राम की, जैसी प्‍यारी आगि।
सारा पट्टन जरि गया, फिर फिर ल्‍यावे मागि।।191

कबिरन भक्ति बिगारीयां, कंकर पत्‍थर धोय।
अंदर में विष राखि के, अमृत डारिन खोय।।192

भर्म भरा तिहुँ लोक में, भर्म बसे सब ठाम।
कहहिं कबीर कैसे बाचिहौ, जब बसे भर्म के ग्राम।।193

मच्‍छ बिकाने सब गये, धीमर के दरबार।
अंखियां तेरी रतनारी, तुम क्‍यों पैन्‍हीं जाल।।194

मन कहे कहौं जाइये, चित्त कहो कहां जाउं।
छव मास के हींडते, आध कोस पर गांउ।।195

तन बोहित मन काग है, लक्ष जोजन उड़‍ि जाय।
कबहुंक भरमे आगम दरिया, कबहूं गगन समाय।।196

मन गयन्‍द माने नहीं, चले सरति के साथ।
महावत बिचारा क्‍या करे, जो अंकुश नहिं हाथ।।197

मन भर के बोय घुंघची, भर नहिं होय।
कहा हमारे माने नहीं, अन्‍तहु चला विगोय।।198

मन मसलन्‍द गयन्‍द है, मनसा भो संचार।
सांच मन्‍त्र माने नहीं, उड़‍ि उड़‍ि लागि खान।।199

मन स्‍वारथी आपु रस, विषय लहरि फहराय।
मन चलाये तन चले, ताते सरबस जाय।।200

मनुष्‍य जन्‍म दुर्लभ है, होय न दूजी बार।
पक्‍का फल जो गिर परै, बहुरि न लागै डार।।201

मानष तेरा गुण ही बड़ा, मांस न आवे काज।
हाड़ न होते आभरण, त्‍वचा न बाजन बाज।।202

मानुष केही अथाइया, मति कोइ पठे धाय।
एकहि खेत चरत है, बाघ गदहरा गाय।।203

मानुष केरी बड़ पापिया, अक्षर गुरुहिं न मान।
बार-बार बने कूकही, गर्भ धरे औधान।।204

माया के बस परे, ब्रह्मा विष्‍णु महेश।
नारद सारद सनक सनन्‍दन, गौरी और गनेश।।205

माया जग सापिनि भई, विष ले बैठी आथि।
सब जग फंदे फन्दिया, चले कबीरू काछि।।206

माग तो अति कठिन है, तहं कोई मति जाय।
गया तो बहुरा नहीं, कुशल कहै को आय।।207

मुख की मीठी जो कहै, हृदये है मति आन।
कहहिं कबीर तेहि लोकनि से, ऐसो राम सयान।।208

मूढ कर्मिया मानवा नख, शिख पाखर आहि।
वाहनहारा का करे, जो बाण न लागे ताहि।।209

मूरख को समुझावते, ज्ञान गांठ का जाइ।
कोयला होइ न ऊजरो, नव मन साबुन लाइ।।210

मूरख सों का कहिए, सठ सों कहा बसाय।
पाहन में का मारिये, चोखे तीर नसाय।।211

मूवा हे मरिं जाहुगे, बिनु सर थोथे भाल।
परहु करायल वृक्ष तल, आज मरहु के काल।।212

मैं रोवों ऐहि जगत को, मोको रोवे न कोय।
मोको रोवे सो जना, जो शब्‍द विवेकी होय।।213

मानुष विचारा क्‍या करे, जाके कहे न खुले कपाट।
सोनहा चाक बैठाइए, फिर‍ि फिर‍ि एषन चाट।।214

मानुष बिचारा क्‍या करे, जाके हृदय शून।
सोनहा चाक बिठाइये, फिर‍ि फिर‍ि चाटे चून।।215

मानुष बिचारा क्‍या करे, जाके शून्‍य शरीर।
जो जिव झाखि न ऊपजे, तो काहे पुकार कबीर।।216

मानुष ह्वे के नहिं मुवा, मुवा सो डांगर ढोर।
एकां जीवहिं ठौर नहिं लागा, भये सो हाथी घोर।।217

मन सायर मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत।
कहहिं कबीर ते बांचिहै, जाके हृदय विवेक।।218

मन माया एक है, माया मनहिं समाय।
तीनि लोक संशय परे, काहि कहौं बिलगाय।।219

मन माया की कोठरी, तन संशय का कोट।
विषहर मंत्र न माने, काल सर्प का चोट।।220

बाजीगर के वानरा, जियरा मन के साथ।
मन सायर समुद्र है, वहि कतहूं जानि जाय।।221

मलयागिरि के वास में, वृक्ष रहे सबभोय।
कहिबे को चंदन भए, मलयागिरि नहिं होय।।222

मलयागिरि के बास महं, बेधो ढ़ाक पलास।
वेणा कबहन बेधिया, जुगजुग रहते पास।।223

हौं तो सब ही की कही, मेरी कहे न कोय।
मेरी कहे सो जना, जो मुझ ही सा होय।।224

ये कबीर ते उतरिह रहु, तेरो संमल परोहन साथ।
शंबल घटे न पगु थका, जीव विराने हाथ।।225

रंगहि ते रंग उपजे, सब रंग देखी एक।
कवन रंग है जीव को, ताकर करहु विवेक।।226

रतन का जतन करि, माटी का सिंगार।
आया कबीरा फिरि गया, झूठा है संसार।।227

रतन लराइन रेत में, कंकर चुनि चुनि खाय।
कहहिं कबीर पुकारिके, बहुरि चले पछिताय।।228

रही एक की भइ अनेक की, विश्‍वा बहु भर्तारी।
कहहिं कबिर काम संग जरिहै, बहुत पुरुष की नारी।।229

रामनाम जिन चीन्हिया, झीने पिंजर तासु।
रैनि न आवे नींदरी, अंग न चढ़‍िया मांसु।।230

राउर के पिछवारे, गावें चारों सन।
जीव परा बहु लूट में, नहिं कछु लेन न देन।।231

राम वियोगी विकल तन, इन दुखवै मति कोय।
छूबत ही मरि जाहिंगे, तालाबेली होय।।232

राह विचारी क्‍या करै, जो पन्थि नचले बिचारि।
अपना मारग छोड़‍ि के, फिरे उजारि उजारि।।233

लाई लावनहार की, जाकी लाई पर जरे।
बलिहारी लावनहार की, छप्‍पर वाचे घर जरे।।234

लोग भरोसे कवन के, बैठ रहे अरगाय।
ताते जियरहिं जमे लूट, जस मटिया लुटै कसाय।।235

लोभे जन्‍म गमाइया, पापे खाया पुण्‍य।
साधी सो आधीकहै, ता पर मेरा खून।।236

लाहा केरी नावरी, पाहन गरुवा भार।
सिर पर विष की पोटरी, उतरन चाहे पार।।237

विरह की ओदी लाकरी, सपचे औ धुंधवाय।
दुख ते तब ही बांचिहो, जब सकलो जरि जाय।।238

विरहिनि साजी आरती, दर्शन दीजे राम।
मूये दर्शन देहुगे, आवत कवने काम।।239

शब्‍द हमारा आदि का, शब्‍दे पैठा जीव।
फूल रहन की टोकरी, धोरे खाया घीव।।240

शब्‍द हमारा आदि का, पल-पल करहू याद।
अंत फलेगी माहली, ऊपर की सब वाद।।241

शब्‍द बिना सुरति आंधरी, कहो कहां को जाय।
द्वार न पावै शब्‍द का, फिर‍ि फिर‍ि  भटका खाय।।242

शब्‍दै मारा गिर पड़ा, शब्‍दै छोड़ा राज।
जिन्‍ह जिन्‍ह शब्‍द विचारिया, ताको सर गयो काज।।243

शब्‍द शब्‍द बहु उंतरे, सार शब्‍द मथि लीजे।
कहहिं कबिर जेहि सार शब्‍द, नहिं धृग जीवन सो जीजे।।244

शब्‍द हमारा तूं शब्‍द का, सुनि मति जाह सरक।
जो चाहहु निज तत्त्‍व को, शब्‍दह लेह परख।।245

हौं जाना कुलहंस हौ, ताते कीन्‍हा संग।
जो जानत बगु बावरा, ठये न देतेऊं अंग।।246

श्रोता तो घर में नहीं, वक्‍ता बके सो वादि।
श्रोता वक्‍ता एक घर, कथा कहावे आदि।।247

संगति के सुख ऊपजे, कुसंगति के दुख होय।
संसय खंडे जो जना, जो शब्‍द विवेकी होय।।248

संसारी समय विचारी, कोई गिरही कोई जोग।
अवसर मारे जात है, ते चेतु बिराने लोग।249

सज्‍जन ते दुर्ज्‍जन भयो, सुनि काहु के बोल।
कांसा तांबा होय रहा, हता ठिकों के मोल।।250

सद्गुरु वचन सुनहु सन्‍तो, मति लिन्‍हा शिर भार।
हौं हजूर ठाड़ कहते हौं, तैं क्‍यों संभार।।251

मसो कागद छुवो नहीं, कलम धरो नहिं हाथ।
चाहिहुं युग को महातम, कबीर मुखहिं जनाई बात।।252

सपने सोवा मानवा, खोलि जो देखे नैन।
जीव परा बहुलूट में, ना कुछ लेन न देन।।253

सब‍की उत्‍पति धरती, सब जीवन प्रतिपाल।
धरती न जाने आप गुण, ऐसो गुरु विचार।।254

सब ते सांचा ही भला, जो दिल सांचा होय।
सांच बिना सुख है नहीं, कोटि करे जो कोय।।255

समुझे की गति एक है, जिहि समझे सब ठौर।
कहहिं कबिर ये बीच के, कहै और की और।।256

सब ही तो लघुता भली, लघुता ते सब होय।
ज्‍यों द्वितीय के चन्‍द्रमा, नवावै सब कोय।।257

समुझाये समुझे नहीं, पर हाथ आप बिकाय।
मैं खींचत हौं आपु को, चला सो जमपुर जाय।।258

सांचा शब्‍द कबीर का हृदया देखि विचारी।
चित दे समुझे नहिं मोहि कहत भए जुग चारि।।259

स्‍वर्ग पताल के बीच में, दुई तंबिरया विध्‍द।
षट दर्शन संशय परे, लक्ष चौरासी सिद्ध।।260

सांप बिछी का मंत्र है, महुरो झारा जाय।
सलिल मोह नदिया बहै, पांव कहां ठहराय।।261

सायर बुद्धि बनाय के, बाए बिचक्षण चौर।
सारी दुनिया जहड़े गया, कोइ न लागा ठौर।।262

सावन केरा सेहरा, बूंद परे असमान।
सारी दुनिया वैष्‍णव भया, गुरु नहिं लागा कान।।263

साहू चोर चीन्‍हे नहीं, अन्‍ध मति के हीन।
पारख बिना बिना सहै, करि विचार ही भिन्‍न।।264

साहू से भी चोरबा, चोरहु से भौ होत।
तब जानिहुगे जीयरा, जबहिं परेगा तुज्‍झ।।265

साहेब साहेब सब कहें, मोहि अंदेशा ओर।
साहेब से परचा नहीं, बैठहुगे कहि ठौर।।266

सिंह अकेला बन रमे, पलक पलक करे ठौर।
जैसे बन है आपना, तैसा बन है और।।267

सुकृत वचन माने नहीं, आपु न करे विचार।
कहहिं कबीर पुकारि क, स्‍वप्‍न हु भया संसार।।268

सुगना सेमर बेगि तजि, तेरी घने बिगूची पांख।
ऐसा सेमर सेइया, जाके हृदय न आंख।।269

सेमर का सुगना, छिहुले बैठा जाय।
चोंच संवारे सिर धुन, ई उसी ही को भाय।।270

सोना सज्‍जन साधुजन, टूटि जुरहिं शत् बार।
दुर्जन कुंभ कुम्‍हार का, एकहि धरे दरार।।271

हंस बकु देख एक, रंग चरे हरियरे ताल।
हंस क्षीर जानिये, बकु धरेंगे काल।।272

हंसा तूं तो सबल था, हलकी तेरी चाल।
रंग कुरंगे रंगिया, त किया और लगवार।।273

हंसा के घट भीतरे, बसे सरोवर खोट।
एकौ जीव ठौर नहिं लागा, रहा सो ओटहि ओट।।274

हंसा तु सुवरण वरण, कहां वरणों मैं तोहिं।
तरुवर पाय पहेलहु, तबहि सराहौ तोहिं।।275

हंसा मोति बिकनिया, कंचन थार भराय।
जो जाको मम न जाने, सो ताको काह कराय।।276

हंसा सरवरि तजि चले, देही पारिगौ सून।
कहहिं कबीर सुनहु हौ सन्‍तो, ते दर तेई थून।।277

हद चले ते मानवा, बेहद चले सो साधु।
हद बेहद दोनों तजे, ताकी मती अगाधु।।278

हरि हीरा जन जौहरी, सबनि पसारी हाट।
जब आए जन जौहरी, तब हीरा की साट।।279

हाड़ जरत जैसे लाकरी, केस जरे जैसे घास।
कबीरा जरे रामरस, कोठी जरे कपास।।280

हाथ कटोरा खोवा भरा, मग जोवत दिन जाय।
कबिरा उता चित्त सों, छांछ दियो नहिं जाय।।281

हिलगी भाल शरीर महं, तीर रहा है टूट।
चुम्‍बक बिनु निकसै नहीं, कोटि पाहन गौ छूट।।282

हीरा तहां न खोलिए, जहं कुंजरो की हाट।
सहजे गांठो बांधिये, लगिए अपनी बाट।।283

हीरा सोई सराहिये, सहे जो धन का चोट।
कपट कुरंगी मानवा, परखत निकला खोट।।284

हृदय भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय।
मुख तो तब ही देखिए, जब दिल की दुविधा जाय।।285


निगुणां को अंग

हरिया जांणे रूंषड़ा, उस पांणी के नेह।
सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह।।1

झिरमिरि झिरमिरि बरषिया, पांहण ऊपरि मेह।
माटी गलि सैजल भई, पांहण वाही तेह।।2

पार ब्रह्म बूठा मोतियां, बांधी सिषरांह।
सगुरां सगुरा चुणि लिया, चूक पड़ी निगुरांह।।3

कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूंगर सिषरांह।
नीर मिबाणां ठाहरै, नाऊं छापरड़ाह।।4

कबीर मूंडठ करमियां, नष सिष पाषर ज्‍यांह।
बांहणहारा क्‍या करै, बांण न लागै त्‍यांह।।5

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझया मन।
कहि कबीर चेत्‍या नहीं, अजहूं सु पहला दिन।।6

कहै कबीर कठोर कै, सबद न लागै सार।
सुधबुध कै हिरदै भिदै, उपजि विवेक विचार।।7

सीतलता के कारणै, नाग बिलंबे आइ।
रोम रोम विष भरि रह्मा, अमृत कहा समाइ।।8

सरपहि दूध पिलाइये, दूधै विष ह्व जाइ।
ऐसा कोई ना मिले, स्‍यूं सरपै विष खाइ।।9

जालौं इहै बड़पणां, सरलै पेड़‍ि खजूरि।
पंखी छांह न बीसवै, फल लागे ते दूरि।।10

ऊंचा कुल के कारणै, बंस बध्‍या अधिकार।
चंदन बास भेदै नहीं, जाल्‍या सब परिवार।।11

कबीर चंदन कै निड़ै, नींव भि चंदन होइ।
बूड़ा बंस बड़ाइतां, यौं जिनि बूडे कोइ।।12


लोभ को अंग

कबीर बहुत जतन करि कीजिये, सब फल जाय नसाय।
कबीर संचै सूम धन, अन्‍त चोर लै जाय।।1

कबीर औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नांहि।
तीन लोक की सम्‍पदा, कब आवै घर मांहि।।2

कबीर सूम थैली अरु श्‍वान भग, दोनों एक समान।
घालत में सुख ऊपजै, काढ़त निकसै प्रान।।3

जोगी जंगम सेवड़ा, ज्ञानी गुनी अपार।
षट दर्शन से क्‍या बने, एक लोभ की लार।।4

  

  बिरह को अंग


रात्‍यूं रूंनी बिरहनीं, ज्‍यूं बंची कूं कुंज।
कबीर अंतर प्रजल्‍या, प्रगट्या बिरहा पुंज।।1

अंबर कुंजा करलियां, गरजि भर सब ताल।
जिनि थैं गोबिंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल।।2

चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मि‍ली परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूं, नां सुख धूप न छांह।।3

बासुरि सुख नां रैणि सुख, ना सुख सुपिनै मांहि।
कबीर बिछुट्या राम सूं , नां सुख धूप न छांह।।4

बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझे धाइ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ।।5

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्‍हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूं, मनि नाहीं विश्राम।।6

बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवां पीछें देहुगे, सो दरसन क‍िहिं काम।।7

मूंवा पीछैं जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लोह सब, पारस कौंणे काम।।8

अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियां।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां।।9

आइ न सकौं तुझ पैं, सकूं न तूझ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ।।10

यहु तन जालौं मसि करूं, ज्‍यूं धूवां जाइ सरग्‍ग‍ि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्‍ग‍ि।।11

यह तन जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउं।
लेखणि करूं करंक की, लिखि राम पठाउं।।12

कबीर पीर पिरावनी, पंजर पीड़ न जाइ।
एक जू पीड़ पिरीति की, रही कलेजा छाइ।।13

चोट सतांणी बिरह की, सब तन जरजर होइ।
मारणहारा जांणिहै, कै जिहिं लागी सोइ।।14

कर कमाण सर सांधि करि, खैचि जु मारया मांहि।
भीतरि भिद्या सुमार ह्व, जीवै कि जीवै नांहि।।15

जबहूं मारयया खैंचि करि, तब मैं पाई जांण।
लागी चोट मरम्‍म की, गई कलेजा छांणि।।16

जिहि सरि मारी काल्हि, सो सर मेरे मन बस्‍या।
तिहि सरि अजहूं मारि, सर बिन सच पाऊं नहीं।।17

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम वियोगी ना जिवै, जिवै त बौरा होइ।।18

बिरह भुंवगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साधू अंग न मोड़ही, ज्‍यूं भावै त्‍यूं खाव।।19

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई कै चित्त।।20

बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।
जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान।।21

अंषड़यिां झाई पडो, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ि‍यां छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि।।22

इस तन का दीया करौं, बाती मेल्‍यूं जीव।
लोही सींचौं तेज ज्‍यूं, कब मुख देखौं पीव।।23

नैंनां नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम।
पपीहा ज्‍यूं पिव पिव करौं, कबहुं मिलहुगे राम।।24

अंषड‍ियां प्रेम कसाइयां, लोग जांणे दुखड़‍ियां।
सांई अपणैं कारणैं, रोइ रोइ रतड़‍ियां।।25

सोई आंसू सजणां, सोई लोक बिड़ाहि।
जे लोइण लोही चुवै, तौ जांणों हेत हियांहि।।26

कबीर हसणां दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।
बिना रोयां क्‍यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्त।।27

जौ रोऊं तो बल घटै, हंसौं तौ राम रिसाइ।
मनही मांहि बिसूरणां, ज्‍यूं घुंण काठहि खाइ।।28

हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ।
जो हांसें ही हरि मिलै, तौ नहीं दुहागनि कोइ।।29

हांसी खेलौं हरि मिलै, तौ कौण सहै षरसान।
काम क्रोध त्रिष्‍णां तजै, ताहि मिलैं भगवान।।30

पूति पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाइ हाथि दे, आपण गया भुलाइ।।31

डारी खांड पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ।
रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ।।32

नैना अंतरि आव तूं, निस दिन निरषौं तोहि।
कब हरि दरसन देहुगे, सो दिन आवै मोहि।।33

कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ।
बिरहणि पिव पावै नहीं, जियरा तलपैं माइ।।34

कै बिरहिन कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहर का दाझणां, मोपै सहया न जाइ।।35

बिरहण‍ि थी तौ क्‍यूं रही, जली न पीव के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजूं मारि।।36

हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउं।
छूटि पड़ौं यों बिरह तैं, जे सारीही जलि जाउं।।37

कबीर तन मन यौं जल्‍या, बिरह अगनि सूं लागि।
मृतक पीड़ न जांणई, जांणेगी यहु आगि।।38

बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाउं।
मो देख्‍यां जलहरि जलै, संतौं कहां बुझाउं।।39

परबति परबति मैं फिरया, नैंन गंवाये रोइ।
सो बूटी पाऊं नहीं, जातैं जीवनि होइ।।40

फाड़‍ि फुटोला बज करौं, कामलड़ी पहिराउं।
जिहि जिहि भेषां हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउं।।41

नैन हमारे जलि गये, छिन छिन लोड़ैं तुझ।
नां तूं मिलै न मैं खुसी, ऐसी वेदन मुझ।।42

वेड़ा पाया सरप का, भौसागर के मांह।
जै छाडों तो डूबिहौं, गहौं त डसिये बांह।।43

रैणा दूर बिछोहिया, रहु र संषम झुरि।
देवलि दवलि धाहड़ी, देसी ऊगे सूरि।।44

सुखिया सब संसार है, खयै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।45


परचा को अंग

कबीर तेज अनंत का, मानौं ऊगी सूरज सेणि।
पति संगि जागी सूंदरी, कौतिग दीठा तेणि।।1

कौतिग दीठा देह बिन, रवि ससि बिना उजास।
साहिब सेवा मांहि है, बेपरवाही दास।।2

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्‍याहीं परबान।।3

अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति।
जहां कबीरा बंदिगी, 'तहां' पाप पुन्‍य नहीं छोति।।4

कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरंतर बास।
कंवल जू फूल्‍या फूल जलह बिन, को देखै निज दास।।5

कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरंतर बास।
कवल जू फल्‍या जलह बिन, को निरषे निज दास।।6

अंतर कवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहां होइ।
मन भवरा तहां लुबधिया, जांणैगा जन कोइ।।7

सायर नाहीं सीप बिन, स्‍वाति बूंद भी नाहिं।
कबीर मोती नीपजै, सन्‍न‍ि सिषर गढ़ मांहिं।।8

घट माहैं औघट लह्या, औघट माहैं घाट।
कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट।।9

सूर समांणौं चंद में, दहूं किया घर एक।
मन का चिता तब भया, कछू पूरबला लेख।।10

हद छाड़‍ि बेहद गया, किया सुन्‍न‍ि असनान।
मुनि जन महल न पावई, तहां किया विश्राम।।11

देखौ कर्म कबीर का, कछु पुरब जनम का लेख।
जाका महल न मुनि लहैं, (सो) दोसत किया अलेख।।12

पिंजर प्रेम प्रकासिया, जाग्‍या जोग अनंत।
संसा खूटा सुख भया, मिल्‍या पियारा कंत।।13

पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतरि भया उजास।
मुख कसतूरी महमहीं, बांणीं फूटी बास।।14

मन लागा मुनि सौं, गगन पहुंचा जाइ।
देख्‍या चंदबिहूंणां, चांदिणां, तहां अलख निरंजन राइ।।15

मन लागा उनमुनि सौं, उनमनि मनहि बिलग।
लूंण बिलगा पाणियां, पांणी लूंणा बिलग।।16

पांणी ही तै हिम भया, हिम ह्वे गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ।।17

भली भई जु भै पड्या, गई दशा सब भूलि।
पाला गलि पांणी भया, ढलि मिलिया उस कूलि।।18

चौहटे चिंतामंणि चढ़ी, हाडी मारत हाथि।
मीरां मुझसूं मिहर करि, इब मिलौं न काहू साथि।।19

पंषि उडाणी गगन कूं, प्‍यंड रह्या परदेस।
पांणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस।।20

पंषि उड़ानीं गगन कं, उड़ी चढ़ी असमान।
जिहं सर मंडल भेदिया, सो सर लागा कान।।21

सरति समांणों निरति मैं, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्‍वयं दुबार।।22

सुरति समांणी निरति मैं, अपजा माहै जाप।
लेख समांणं अलेख मैं, यूं आपा मांहे आप।।23

आया था संसार मैं, देषण कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत ही, पड़‍ि गया नजरि अनूप।।24

अंक भरे भरि भेटिया, मन मैं मांही धीर।
कहै कबीर ते क्‍यूं मिलैं, जब लग दोइ सरीर।।25

सचु पाया सुख ऊपनां, अरु दिल दरिया पूरि।
सकल पाप सहजैं गये, जब सांई मिल्‍या हजूरि।।26

धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा।
तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर विचारा।।27

जा दिन कृतम ना हुता, होता हट न पट।
हुता कबीरा राम जन, जिनि देखै औघट घट।।28

चिति पाई मन थिर भया, सतगुर करी सहाइ।
अनिन कथा तनि आचरी, हिरदै त्रिभुवन राइ।।29

हरि संगति सीतल भया, मिटा मोह की ताप।
निस बासुरि सखनिध्‍य लह्या, जब अंतरि प्रकट्या आप।।30

तन भीतरि मन मानियां, बाहरि कहा न जाइ।
ज्‍वाला तै फिरि जल भया, बुझी बलंती लाइ।।31

तत पाया तन बीसरया, जब मनि धरिया ध्‍यान।
तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान।।32

जिनि पाया तिनि सुगह गह्या, रसनां लागी स्‍वादि।
रतन निराला पाइया, जगत ढाल्‍या बादि।।33

कबीर दिल स्‍याबति भया, पाया फल संभ्रथ्‍थ।
सायर मांहि ढंढोलतां, हीरै पड़‍ि गया हथ्‍थ।।34

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्‍या मांहि।।35

जा कारणि मैं ढूंढ़ता, सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव उजला, लागि न सकौं पाइ।।36

जा कारणि मैं जाइ था, सोई पाई ठोर।
सोई फिरि आपण भया, जासूं कहता और।।37

कबीर देख्‍या एक अंग, महिमा कही न जाइ।
तेज पुंज पारस धणीं, नैनूं रहा समाइ।।38

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़‍ि अनत न जाहिं।।39

गगन गरजि अंमृत चवै, कदली कवल प्रकास।
तहां कबीरा बंदिगी, कै कोई निज दास।।40

नींव बिहूंणां देहुरा, देह बिहूंणां देव।
कबीर तहां बिलंबिया, करे अलष की सेव।।41

देवल माहैं देहुरी, ति जेहै बिसतार।
माहैं पाती मांहिं जल, माहैं पूजणहार।।42

अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान।
अबिगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान।।43

कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्‍या निर्मल सूर।
निस अंधयारी मिटि गई, बाजे अनहद तूर।।44

आकासे मुखि औंधा कुवां, पाताले पनिहारि।
ताका पांणी को हंसा पीवै, बिरला आदि विचारि।।45

सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै, पछिम दिसा उठे धूरि।
जल मैं स्‍वंघ जु घर करै, मछली चढ़ खजूरि।।46

अंमृत बरिसै हीरा निपजै, घंटा पड टकसाल।
कबीर जलाहा भया पारषू, अनभै उतरया पार।।47

ममिता मेरा क्‍या करै, प्रेम उघाड़ी पौलि।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि‍।।48


निहकर्मी प्रतिब्रता को अंग

कबीर प्रीतड़ी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत।
जे हंसि बोलौं और सौं, तौं नील रंगाऊ दंत।।1

नैनां अंतरि आव तूं, ज्‍यूं हौं नैन झंपेउ।
नां हौं देखौं और कूं, नां तुझ देखने देउं।।2

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्‍या लागै है मेरा।।3

कबीर रेख सिंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमइया रमि रह्या, दूजा कहां समाइ।।4

कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास।
समुदहि तिणका करि गिणै, स्‍वांति बूंद की आस।।5

कबीर सुख कौं जाइ था, आग आया दुख।
जाहु सुख घरि आपणैं, हम जाणौं अरु दुख।।6

दोजग तो हम अंगिया, यह डर नाहीं मुझ।
भिस्‍त न मेर चाहिये, बाझ पियारे तुझ।।7

जे वो एकै न जांणियां, तौ जाण्‍यां सब जांण।
जे वो एकन जांणियां, तै सबहीं जांण अजांण।।8

कबीर एक न जांणियां, तौ बहु जाण्‍यां क्‍या होइ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ।।9

जब लग भगति सकामता, तब लग निष्‍फल सेव।
कहै कबीर वै क्‍यूं मिलै, निहकामी निज देव।।10

आसा एक जू राम की, दूजी आस निरास।
पांणी माहैं घर करें, ते भी मरैं पियास।।11

जे मन लागै एक सूं, तौ निरबाल्‍या जाइ।
तूरा दुइ मुखि बाजणां, न्‍याइ तमाचे खाइ।।12

कबीर कलि जुग आइ करि, कीये बहुतज मांत।
जिन दिल बंधी एक सूं, ते सुख सोवै नवींत।।13

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गलै राम की जेवड़ी, जित खंचे तित जाउं।।14

तो तो करै त बाहुड़ो दूरि दूरि करै तो जाउं।
ज्‍यूं हरि राखै त्‍यूं रहौ, जो देवै सो खाउं।।15

मन प्रतीति न प्रेम रस, नां इस तन मैं ढंग।
क्‍या जाणौं उस पीव सूं, कैसे रहसी रंग।।16

उस संम्रथ का दास हौं, कदे न होइ अकाज।
प्रतिब्रता नंगी रहै, तौ उसकी पारिस कौ लाज।।17

धरि परमेसरू पांहणां, सुणौं सनेही दास।
षट रस भोजन भगति करि, ज्‍यूं कदे न छाड पास।।18


मधि को अंग

कबीर मधि अंग जेको रहै, तौ तिरत न लागै बार।
दुइ दुइ अंग सूं लागि करि, डूबत है संसार।।1

कबीर दुविधा दूरि करि, एक अंक ह्वे लागि।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिय आगि।।2

अनल अकांसा घर किया, मधि निरंतर बास।
बसुधा ब्‍यौम बिरकत रहै, बिनठाहर बिसवास।।3

बासुरि गमि न रैंणि गमि, नां सुपनैं तरगंम।
कबीर तहां बिलंबिया, जाहं छाहड़ो न घंम।।4

जिहि पैडे पंडित गए, दुनिया परी बहीर।
औघट घाटी गुर कही, तिहिं चढ़‍ि रह्या कबीर।।5

सुरग नगर थैं दुंर रह्या, सतगुर के प्रसादि।
चरन कंवल की मौज मैं, रहिरय अंतिरु आदि।।6

हिंदू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुई मैं कदे न जाइ।।7

दुखिया मूवा दुख कों, सुखिया सुख को झूरि।
सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्‍हे दूरि।।8

कबीर हरदी पीयरी, चूना ऊजल भाइ।
राम सनेही यूं मिले, दुन्‍यूं बरन गंवाइ।।9

काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।10

धरती अरु असमान बिचि, दोइ तूंबड़ा अवध।
षट दरसन संसै पड्या, अरु चौसारी सिध।।11


बीनती को अंग

कबीर सांई तो मिलहगै, पूछिहिंगे कुसलात।
आदि अंति की कहूंगा, उर अंतर की बात।।1

कबीर भूलि बिगाड़ि‍या, तूं नां करि मैला चित।
साहिब गरवा लोड़‍िये, नफर बिगाड़ैं नित।।2

करता करै बहुत गुंण, औगुंण कोई नांहि।
जे दिल खोजौं आपणीं, तौ सब औगुण मुझ मांहि।।3

औसर बीता अलपतन, पीस रह्मा परदेस।
कलंक उतारी केसवां, भांनौ भरंम अंदेश।।4

कबीर करत है बीनती, भौसागर के तांई।
बंदे ऊपरि जोर होत है, जंम कूं बारिज गुसाई।।5

हज बाकै ह्वै ह्वै गया, केती बार कबीर।
मीरां मुझ मैं क्‍या खता, मुखां न बोलै पीर।।6

ज्‍यूं मन मेरा तुझ सौं, यौं जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।।7



विचार को अंग

राम नाम सब कोई कहै, कहिबे बहुत विचार।
सोई राम सती कहै, सोई कौतिग हार।।1

आगि कह्यां दाझै नहीं, जे नहीं चंपै पाइ।
जब लग भेद न जांणिये, राम कह्या तौ काइ।।2

कबीर सोचि विचरिया, दूजा कोई नांहि।
आपा पर जब चीन्हिया, तब उलटि समाना मांहि।।3

पाणी केरा पूतला, राख्‍या पवन संवारि।
नानां बांणी बोलिया, जोति धरी करतारि।।4

नौ मण सूत अलूझिया, कबीर घर घर बारि।
तिनि सुलझाया बापुड़े, जिनि जाणीं भगति मुरारि।।5

आधी साधी सिरि कटैं, जोर विचारा जाइ।
मनि परतीति न ऊपजे, तौ राति दिवस मिलि गाइ।।6

सोई आशिष सोई बैयन, जन जू जू बांचवंत।
कोई एक मेलै लवणि, अमी रसाइण हुंत।।7

हरि मोती की माल है, पोई कांच तागि।
जतन करि झंटा घंणा, टूटेगी कहूं लागि।।8


बेसास को अंग

भूखा भूखा क्‍या करै, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़‍ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग।।1

रचनहार कूं चीन्हि लै, खौवे कूं कहा रोइ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, तांणि पछेवड़ा सोइ।।2

राम नाम करि बोहड़ा, बोहो बीज अघाई।
अंति कालि सूका पड़, तौ निरफल कदे न जाई।।3

चिंतामणि मन में बसै, सोई चित मैं आणि।
बिन चिंता चिंता करै, इहैं प्रभु की बाणि।।4

कबीर का तूं चितवै, का तेरा चिंता होइ।
अणध्‍यंत्‍या हरिजी करै, जो तोहि चिंत न होइ।।5

करम करीमां लिखि रह्या, अब कछू लिख्‍या न जाइ।
मासा घटै न तिल बढ़ैं, जो कोटिक करै उपाइ।।6

चिंता न करि अचिंत रहु, साई है सम्रथ।
पसु पंषेरू जीव जंत, तिनको गांडिं किसा ग्रंथ।।7

संत न बांधै गांठड़ी, पेट समाता लेइ।
सांई सूं सनमुख रहै, जहां मांगै तहां देइ।।8

राम राम सुं दिल मिली, जम सो पड़ी बिराई।
मोहि भरोसा इष्‍ट का, बंदा नरकि न जाई।।9

कबीर तूं काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।
हस्‍ती चढ़‍ि नहीं डोलिये, कूकर भूसैं जु लाष।।10

मीठा खांण मधुकरीं, भांति भांति को नाज।
दावा किसही का नहीं, बिन बिलाइति बड़ राज।।11

मांनि महातम प्रेम रस, गरवातण गुण नेह।
ए सबही अह लागया, जबहिं कह्या कुछ देह।।12

मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोइ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मतिर मंगावै मोहि।।13

पांडल पंजर मन भंवर, अरथ अनूपम बास।
राम नाम सींच्‍या अंमी, फल लागा बेसास।।14

मेर मिटी मुकता भया, पाया ब्रह्म बिसास।
अब मेरे दूजा को नहीं, एक तुम्‍हारी आस।।15

जाकी दिल में हरि बसै, सो नर कलपै कांइ।
एक लहरि समंद की, दुख दलिद्र सब जांइ।।16

पद गाये लैलीन ह्व, कटी न संसै पास।
सबै पिछीड़े ग्रिह मैं, इक गृही मैं बैराग।।17

गाया तिनि पाया नहीं, अणगांयां ते दूरि।
जिनि गाया बिसवास सूं, तिन राम रह्या भरिपूरि।।18



विरक्‍त को अंग

मेरे मन मैं पड़‍ि गई, ऐसी एक दरार।
फटा फटक पषांण ज्‍यूं, मिलाया न दूजी बार।।1

मन फाटा वाइक बुरै, मिटी सगाई साक।
जौ परि दूध तिवास का, ऊकटि हूवा आक।।2

चंदन भांगा गुण करै, जैसे चोली पंन।
बोइ जनां भागां न मिलै, मुकताहल अरु मंन।।3

पासि विनंठा कपड़ा, कदे सुरांग न होइ।
कबीर त्‍याग्‍या ग्‍यान करि, कनक कामनी दोई।।4

चित चेतनि मैं गरक ह्व, चेत्‍य न देखैं मंत।
कत कत की सालि पाड़ि‍ये, गल बल सहर अनंत।।5

जाता है सो जांण दे, तेरी दसा जाई।
खेवटिया की नाव ज्‍यूं, घणों मिलेंगे आई।।6

नीर पिलावत क्‍या फिरै, सायर घर घर वारि।
जो त्रिषावंत होइगा, तो पिवेगा झख मारि।।7

सत गंठी कोपीन है, साध न मानै संक।
राम अमलि माता रहै, ते गिणं इंद्र कौ रंक।।8

दावै दाझण होत है, निरदावै निरसंक।
जे नर निरदावै रहैं, ते गिणैं इंद्र को रंक।।9


सम्रथाई को अंग

नां कुछ किया न करि सक्‍या, ना करणे जोग सरीर।
जे कछु किया सु हरि किया, भया कबीर कबीर।।1

कबीर किया कछू न होत है, अनकीया सब होइ।
दर‍िगह तेरी सांइयां, नांमहरूम न होइ।।2

एक खड़े ही लहैं, और खड़ा बिललाइ।
साईं मेरा सुलषना, सूता देइ जगाइ।।3

सात समुंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ गरू गुण लिख्‍या न जाइ।।4

अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्‍या न जाइ।
अपना बाना बाहिया, कहि कहि थाके माइ।।5

झल बांयें झल दांहिनैं, झलहि मांहि ब्‍यौहार।
आगैं पीछे झलमई, राखै सिरजनहार।।6

सांई मेरा बांणियां सहजि करै ब्‍यौपार।
बिन डांडी बिन पालड, तोलै सब संसार।।7

कबीर बारया नाव परि, कीया राई लूंण।
जिसहि चलावै पंथ तूं, तिसहि भुलावै कौंण।।8

कबीर करणी क्‍या करै, जे राम न करै सहाइ।
जिहि जिहि डाली पग धरै, सोई नवि नवि जाइ।।9

जदि का माइ जनमियां, कहूं न पाया सुख।
डाली डाली मैं फिरौं, पातौं पातौं दुख।।10

सांई से सब होत हैं, बंदे से कछु नाहिं।
राई से परबत करे, परबत राई मांहि।।11


सूरातन को अंग
  

काइर हुंवां न छूटिये, कछु सूरातन साहि।
भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल संवाहि।।1

षूंणै पड्या न छुटियो, सुण‍ि रे जीव अबूझ।
कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्रया सूं झूझ।।2

कबीर साई सूरिवां, मन सूं मांडे झूझ।
पंच पयादा पाड़‍ि ले, दूरि करै सब दूज।।3

सूरा झूझै गिरद सूं, इक दिसि सूर न होइ।
कबीर यौं बिन सूरिवां, भला न कहिसी कोइ।।4

कबीर आरणि पैसि करि, पीछैं रहै सु सूर।
सांई सूं साचा भया, रहसी सदा हजूर।।5

गगन दमांमां बाजिया, पड्या निसानै घाव।
खेत बुहारया सूरिवैं, मुझ मरणे का चाव।।6

कबीर मेरे संसा को नहीं, हरि सूं लागा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणां, चौड़े मांडूया खेत।।7

सूरैं सार संबाहिया, पहरया सहज संजोग।
अब कै ग्‍यांन गयंद चढ़‍ि, खेत पड़न का जोग।।8

सूरा तबही कै परषिये, लडै दीन कै हेत।
पुरिजा पुरिजा ह्व पड़ै, तऊ न छांडै खेत।।9

खेत न छाडै सूरिवां, झझै द्वै दल मांहि।
आसा जीवन मरण की, मन मैं आंणै नाहि।।10

अब तौ झूझयां ही वणौं, मूढ़‍ि चाल्‍यां घर दूरि।
सिर साहिब कौं सौंपता, सोच न कीजै सूरि।।11

अब तो ऐसी ह्वै पड़ी, मनका रुचित कीन्‍ह।
मरनैं कहा डराइये, हाथि स्‍यंधौरा लीन्‍ह।।12

जिस मरनै से जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूं कब देखिहूं, पूरन परमानंद।।13

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलैं सूर।
काम पड्यांं ही जांणिहै, किसके मुख परि नूर।।14

जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।
बांहणहारा जणि है, कै जांणै जिस लाग।।15

घाइल घूंमे गहि भरया, राख्‍या रहै न ओट।
जतन कियां जीवै नहीं, बणीं मरम की चोट।।16

ऊंचा विरष अकासि फल, पंषरू मूए झूर।
बहुत सयांने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि।।17

दूरि भया तो का भया, सिर दे नेडा होइ।
जब लग सिर सौंपै नहीं, कारिज सिधि न होइ।।18

कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नांहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठ घर मांहि।।19

कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि घरै, तब निकटि प्रेम का स्‍वाद।।20

प्रेम न बाड़‍ि नींपजे, प्रेम न हाटि विकाय।
राजा परजा जेहैं रुचै, सीस दे ले जाय।।21

सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्‍हा।
जाहि भावे सो आइ ल्‍यो, प्रेम हाट हम कीन्‍ह।।22

सूर सीस उतारिया, छाड़ा तन की आस।
आगैं थैं हरि मुलकिया, आवत देख्‍या दास।।23

सती जलन कूं नीकली, चित्त धरि एकबमेख।
तन मन सौंप्‍या पीव कूं, तब अंतर रही न रेख।।24

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्‍यूं न मराइ।
मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्‍यूं न कराइ।।25

कबीर प्रगट राम कहि, छांनै राम न गाइ।
फूस क जौंड़ा दूरि करि, ज्‍यूं बहुरि न लागै लाइ।।26

कबीर हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ।।27

आप सवारथ मेदनीं, भगत सवारथ दास।
कबीर राम सवारथी, जिनि छाड़ी तन की आस।।28


स्‍वारथ को अंग

स्‍वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान।
बिन स्‍वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान।।1

स्‍वारथ कूं स्‍वारथ मिले, पड़‍ि पड़‍ि लूंबा बूंब।
निस्‍प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब।।2

माया कू माया मिले, कर कर लम्‍बे हाथ।
निस्‍प्रेही निरधार को, गाहक दीनानाथ।।3

संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकौ काम।
दुविधा से दोनां गये, माया मिली न राम।।4


कस्‍तूर‍ियां मृग को अंग

कस्‍तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूढै बन मांहि।
ऐसै घटि घटि राम हैं, दुनियां देखै नांहि।।1

कोइ एक देखै संत जन, जांकै पांचूं हाथि।
जाके पांचूं बस नहीं, ता हरि संग न साधि।।2

सो सांई तन मैं बसै, भ्रम्‍यों न जाण तास।
कस्‍तूरी के मृग ज्‍यूं, फिर फिर सूधैं घास।।3

कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप।
राम तो घट भीतर रमि रह्या, जौ आवै परतीत।।4

घटि बधि कहीं न देखिए, ब्रह्म रह्या भरपूरि।
आप पिछांणै बहिरा, नेड़ा की थैं दूरि।।5

मैं जाण्‍यां हरि दूरि है, हरि रह्या सकल भरपूरि।
आप पिछांणै बहिरा, नेड़ा की थैं दूरि।।6

तिणकैं आल्‍है राम है, परबत मेरैं भाइ।
सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट मांहि।।7

राम नाम तिहूं लोक मैं, सकलहु रह्या भरपूरि।
यह चतुराई जाहु जलि, खोजत डोलैं दूरि।।8


ग्‍यान बिरह को अंग

दीपक पाव आंणिया, तेल भी आण्‍या संग।
तीन्‍यूं मिलि करि जोइया, उड़‍ि उड़‍ि पड़ पतंग।।1

मारया है जो मरैगा, बिर सर थोथी भालि।
पड्या पुकारै ब्रिछ तरि, आजि मरै कै काल्हि।।2

हिरदा भीतरि दौं बलै, धूंवां प्रगट न होइ।
जाकै लागी सो लखै, कै जिहि लाई सोइ।।3

झल ऊठा झाोली जली, खपरा फूटिम फूटि।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति।।4

अगनि जू लागि नीर मैं, कंदू जलिया झारि।
उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि।।5

दौं लागी साइर जल्‍या, पंषी बैठे आइ।
दाधी देह न पालवै, सतगुर गया लगाइ।।6

गुर दाघा चेला जल्‍या, बिरहा लागी आगि।
तिणका बपुड़ा ऊबरया, गलि पूरे कै लागि।।7

आहेड़ी दौं लाइया, मृग पुकारै रोइ।
जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ।।8

पाणीं माहै प्रजली, भई अप्रबल आगि।
बहती सलिता रहि गई, मंछ रहे जल त्‍यागि।।9


रस को अंग

कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़हि चाकि।।1

राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवण दुर्लभ है, मांगै सीस कलाल।।2

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ।।3

हरि रस पीया जाणिये, जे कबहूं न जाइ खुमार।
मैंमंता घूमत रहै, नांही तन की सार।।4

मैंमंता तिण नां चरै, सालै चिता सनेह।
एक बारि जु बांध्‍या प्रेम कै, डारि रह्या सिरि षेह।।5

मैंमंता अविगत रता, अकलप आसा जीति।
राम अमलि माता रहै, जीवत मुकति अतीति।।6

जिहि सर घड़ा न डूबता, अब मैंगल मलि मलि न्‍हाइ।
देवल बूड़ा कलम सूं, पंषि तिसाई जाइ।।7

सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सबतन कंचन होइ।।8


सजीवनी को अंग

जहां जुरा मरण व्‍यापै नहीं, मुवा न सुणिये कोइ।
चलि कबीर तिहि देसड, जहां वैद विधाता होइ।।1

कबीर जोगी बनि बस्‍या, षणि खाये कंद मूल।
नां जाणौं किस जड़ी थै, अमर भए असथूल।।2

कबीर हरि चरणौं चल्‍या, माया मोह थै टूटि।
गगन मंडल आसण किया, काल गया सिर कूटि।।3

यह मन पटकि पछाड‍ि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पगलु ह्वै पिव पिव करै, पीछौं काल न खाइ।।4

कबीर मन तीषा किया, बिरह लाइ परषांन।
चित चरणूं मैं चभि रह्या, तहां नहीं काल का पाण।।5

तरवर तास बिलांबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंषी केलि करंत।।6

दाता तरवर दया फल, उपगारी जीवंत।
पंषा चले दिसावरां, विरषा सुफल फलंत।।7



गुरुसिष को अंग

ऐसा कोई ना मिले, हम कौं दे उपदेस।
भौसागर मैं डूबता, कर गहि काढ़े केस।।1

ऐसा कोई न मिले, हम कौं लेइ पिछानि।
अपना करि किरपा करे, ले उतारे मैदानि।।2

ऐसा कोई ना मिले, राम भगति का गीत।
तन मन सौंपे मृग ज्‍यूं, सुनै बधिक का गीत।।3

ऐसा कोई ना मिले, अपना घर देइ जराइ।
पंचूं लरिका पटिक करि, रहै राम ल्‍यौं लाइ।।4

ऐसा कोई ना मिले, जासौं रहिये लागि।
सब जग जलता देखिये, अपणीं अपणीं आगि।।5

ऐसा कोई ना मिले, सब विधि देइ बताइ।
सुंनि मंडल मैं पुरिष एक, ताहि रहै ल्‍यो लाइ।।6

हम देखत जग जात है, जग देखत हम जांह।
ऐसा कोई ना मिले, पकड़‍ि छुड़ावे बांह।।7

तीनि सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोइ।
सब पियारे राम के, बैठे परबसि‍ होइ।।8

माया मिले महोबंती, कूड़े आखे बैन।
कोई घायल बेध्‍या ना मिलै, साई हंदा सैण।।9

सारा सूरा बहु मिलैं, घाइल मिले न कोइ।
घाइल ही घाइल मिले, तब राम भगति दिढ़ होइ।।10

प्रेमी ढूंढत मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, तब सब विष अमृत होइ।।11

हम घर जाल्‍या आपणां, लिया मूराड़ा हाथिम।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।12


अपारिष को अंग

पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछुटी हंस की, पड्या बंगा कै साथि।।1

एक अचंभा देखिया, हीरा हाटि बिकाइ।
परिषणहारे बाहिरा, कौड़ी बदले जाइ।।2

कबीर गुदड़ी बीषरी, सौदा गया बिकाइ।
खोटा बांध्‍या गांठड़ी, इब कुछ लिया न जाइ।।3

पैड़ै मोती बिखरया, अंधा निकस्‍या आइ।
जोति बिनां जगदीस की, जगत उलंघ्‍या जाइ।।4

कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ।।5


साध महिमां को अंग

चंदन की कुटकी भली, नां बंबुर को अवरांऊं।
वैसनो की छपरी भलो, नां साषत का बड गाउं।।1

पुरपाटण सुबस बसै, आनंद ढांये ढांइ।
राम सनेही बाहिरा, ऊंजड़ मेरे भांइ।।2

जिहं घरि साध न पूजिये, हरि की सेवा नांहि।
ते घर मुड़हट सारषे, भूत बसै तिन मांहि।।3

है  गै गैंवर सघन घन, छत्र धजा फहराइ।
ता सुख थैं भिष्‍या भली, हरि सुमिरत दिन जाइ।।4

क्‍यूं नृप नारी नींदये, क्‍यूं पनिहारी कौं मान।
व मांग संवारै पीव कौं, वा नित उठि सुमिरै राम।।5

कबीर धनि ते सुंदरी, जिन जाया बैसनौं पूत।
राम सुमरि नरिभै हुवा, सब जग गया अऊत।।6

कबीर कुल तौं सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहि कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास।।7

साषत बांभण मति मिलै, बैसनौं मिलै चंडाल।
अंकमाल दे भेटिये, मांनों मिले गोपाल।।8

राम जपत दालिद भला, टूटि घर की छांनि।
ऊचे मंदिर जालि दे, जहां भगति न सारंगपांनि।।9


साध साषीभूत को अंग

निरबैरी  निहकांमता, सांई सेती नेह।
विषिया सूं न्‍यारा रहै, संतहि का अंग एह।।1

संत न छाडै संतई, जे कोटिक मिलैं असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत।।2

कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास।।3

अणरता सुका सीवणां, रातै नींद न आइ।
ज्‍यूं जल टूटै मंछली, यूं बेलंत बिहाइ।।4

जिन्‍य कुछ जाण्‍या नहीं तिन्‍ह, सुख नींदड़ी बिहाइ।
भैर अबूझी बूझिया, पूरी पड़ी बलाइ।।5

जांण भगत का नित मरण, अणजाणे का राज।
सर अपसर समझै नहीं, पेट भरण सूं काज।।6

जिहि घटि जांण बिनांण है, तिहि घटि आबटणां घणां।
बिन षडै संग्राम है, नित उठि मन सौं झूझुणां।।7

राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्‍है कोइ।
तंबोली के पान ज्‍यूं, दिन दिन पीला होइ।।8

पीलक दौड़ी सांइयां, लोग कहै पिंड रोग।
छांनै लंघण नित करै, राम पियारे जोग।।9

काम मिलावे राम कूं, जे कोइ जांणे राषि।
कबीर बिचारा क्‍या करे, जाकी सुखदेव बोले साषि।।10

कांमणि अंग बिरकत भया, रत भया हरि नांहि।
साषी गोरखनाथ ज्‍यूं, अमर भए कलि मांहि।।11

जदि बिषै पियारी प्रीति सूं, तब अंतर हरि नांहि।
जब अंतर हरि जी बसै, तब विषिया सूं चित्त नांहि।।12

जिहि घट मैं संसौ बसै, तिहि घटि राम न जोइ।
राम सनेही दास विचि, तिणं न संचर होइ।।13

स्‍वारथ को सबको सगा, सब सगलाही जांणि।
बिन स्‍वारथ आदर करै, सो हरि की प्रीति पिछांणि।।14

जिहि हिरदै हरि आइया, सो क्‍यूं छांनां होइ।
जतन जतन करि दाबिए, तऊ उजाला सोइ।।15

फाटै दीदै मैं फिरी, नजरि न आवै कोइ।
जिहि घटि मेरा सांइयां, सो क्‍यू छाना होइ।।16

सब घट‍ि मेरा सांइयां, सूनी सेज न कोई।
भाग तिन्‍हौं का हे सखी, जिहि घटि परगट होइ।।17

पावक रूपी राम है, घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धुंवा ह्वै ह्वै जाइ।।18

कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जागे बिनसई विष भरया, कै दास बंदगी होइ।।19

कबीर चलया जाइ था, आगैं मिलया खुदाइ।
मीरां मुझ सौं यौं कह्या, किनि फुरमाई गाइ।।20

 
साध को अंग

कबीर संगति साध की, कदे न निष्‍फल होइ।
चंदन होसी बांवना, नीव न कहसी कोइ।।1

कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाइ।
दुरमति दुरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ।।2

मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
साध संगति हरि भगति बिन, कछु न आवै हाथ।।3

मेरे संगी दोइ जणां, एक वैष्‍णों एक राम।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।4

कबीर बन बन मैं फिरा, कारणि अपणें राम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काम।।5

कबीर सोई दिन भला, जा दिन संत मिलाहि।
अंक भरे भरि भेटिया, पाप सरीरौ जांहि।।6

कबीर चंदन का बिड़ा, बैठ्या आक पलास।
आप सरीखे करि लिए, जे होते उन पास।।7

कबीर खाई कोट की, पाणी पीवे न कोइ।
आई मिलै जब गंग मैं, तब सब गंगोदिक होइ।।8

जांनि बूझि सांचहि तजै, करै झूठ सूं नेहु।
ताको संगति राम जी, सुपिनै ही जिनि देहु।।9

कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै।
नहिं तर बेगि उठाइ, नित को गंजन को सहै।।10

केती लहरि समंद की, कत उपजै कत जाइ।
बलिहारी ता दास की, उलटी मांहि समाइ।।11

काजल केरी कोठड़ी, काजल ही का कोट।
बलिहारी ता दास की, जे रहै राम की ओट।।12

भगति हजारी कपड़ा, तामें मल न समाइ।
साषित काली कांवली, भावैं तहां बिछाइ।।13


भ्रम को अंग

पांहण केरा पूतला, करि पूजैं करतार।
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार।।1

काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट।
पाहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट।।2

पाहिन कूं का पूजिए, जे जनम न देई जाब।
आंधा नर आसामुषी, यौंही खोवै आब।।3

हम भी पाहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुर की कृपा भई, डारया सिर के बोझ।।4

जेती देखौं आत्‍मा, तेता सालिगराम।
साधू प्रत्‍यक्ष देह हैं, नहीं पाथर सू कांम।।5

सेवैं सालिगराम कूं, मन की भ्रांति न जाइ।
सीतलता सपिनैं नहीं, दिन दिन अधकी लाइ।।6

सेवैं सालिगराम कूं, माया सेती हेत।
ओढ़ें काला कापड़ा, नांव धरावैं सेत।।7

जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेबिया, यौं जग चल्‍या निरास।।8

तीरथ भई विष बेलड़ी, रहो जुगन जुग छाइ।
कबीरन मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ।।9

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जांणि।
दसवा द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि।।10

कबीर दुनियां देहुरै, सीस नवांवणनवांवण जाइ।
हिरदय भीतर हरि बसै, तूं ताही सौं ल्‍यौं लाइ।।11


बेल‍ि को अंग 


अब तो एसी ह्वै पड़ी, नां तू बड़ी न बेलि।
जालण आंणो लाकड़ी, ऊठी कूंपल मेल्हि।।1

आगै आगै दौं जलै, पीछे हरिया होइ।
बलिहारी सा विरष की, जड़ीं काट्यां फल होइ।।2

जे काटौं तै डहडही, सींचौं तौ कुमिलाइ।
इस गुणवंती बेलि का, कछु गुंण कह्यां न जाइ।।3

आंगणि बेलि अकासि फल, अण ब्‍यावर का दूध।
ससा सींग को धूनहड़ी, रमै बांझ का पूत।।4

कबीर कड़ई बेलड़ी, कड़वा ही फल होइ।
सांध नांव तब पाइए, जे बेलि बिछौहा होई।।5

सींध भइ तब का भया, चहूं दिसि फूटी बास।
अजहूं बीज अंकूर है, भीऊगण की आस।।6


कामी नर को अंग

कांमणि काली नागणीं, तीन्‍यूं लोक मंझारि।
राम सनेही ऊबरे, विषई खाये झारि।।1

कामंणि मीनीं षांणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ।
जे हरि चरणां राचियां, तिनके निकट न जाइ।।2

परनारी राता फिरै, चोरी विढता खांहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जांहिं।।3

पर नारी पर सुंदरी, बिरला बंच कोइ।
खातां मीठी खांड सी, अंति कालि विष होइ।।4

पर नारी कै राचण, औगुण है गुण नांहं।
षार समंद मैं मंझला, केता बहि बहि जाहं।।5

पर नारी का राचणौं, जिसी ल्‍हसण की षांनि।
षूणैं बैसि रषाइए, परगट होइ दिवानि।।6

नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राम के, जे सुमिरै निहकाम।।7

नारी सेती नेह, बुधि विवेक सबही डरै।
कांइ गमावै देह, कारिज कोई नां सरे।।8

नारी नसाबैं नीति सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति मुकति निज ग्‍यान मैं, पैसि न सकई कोइ।।9

एक कनक अरु कां‍मनी, विष फल कीएड पाइ।
देखै ही थै विष चढ़ै, खांयै सूं मरि जाइ।।10

एक कनक अरु कांमनी, दोऊ अगनि की झाल।
देखें ही तन प्रजलै, परस्‍यां ह्वै पैमाल।।11

कबीर भग की प्रीतड़ी, केते गए गडंत।
केते अजहूं जायसी, नरकि हसंत हसंत।।12

जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।
उत्तम ते अलगे रहैं, निकटि रहै सो नीच।।13

नारी कुंड नरक का, बिरला चंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूंवा लाग।।14

सुंदरि से सूली भली, बिरला बंच कोय।
लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय।।15

भगति बिगाड़ी कांमियां, इंद्री के रे स्‍वादि।
हीरा खोया हाथ से, जनम गंवाया बादि।।16

कामीं अमीं न भावई, विषइ कौं ले सोधि।
कुबधि न जाई जोव की, भावै स्‍वयं रहो प्रमोधि।।17

विषै विलंबी आत्‍मां, ताका मजकण खाया सोधि।
ग्‍यांन अंकून न ऊगई, भावै निज प्रमोधि।।18

विषै कर्म की कंचुली पहरि हुआ नर नाग।
सिर फोड सूझै नहीं, को आगिला अभाग।।19

कामीं कदे न हरि भजै, जपै न कैसौ जाप।
रांम कहे से जलि मरै, कोई पूरिबला पाप।।20

कांमी लज्‍जा ना करैं, मन मांहे अहिलाद।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्‍वाद।।21

नारि पराई आपणीं, भुगत्‍या नरकहि जाइ।
आगि आगि सब एक है, तामैं हाथ न बाहि।।22

कबीर कहता जात हौं, चेते नहीं गंवार।
बैरागी गिरही कहा, कांमी वार न पार।।23

ग्‍यांनी तो नींडर भया, मांजै नां‍हीं संक।
इंद्री केरे बसि पड़या, भूंचौं विषै निसंक।।24

ग्‍यांनी मूल गंवाइया, आपण भये करंता।
ताथै संसारी भला, मन मैं रहै डरंता।।25


चांणक को अंग

जीव बिलंब्‍या जीव सौं, अलख न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझैं, रही बुझाइ बुझाइ।।1

इसी उदर कै कारणै, जग जांच्‍यौ निस जाम।
स्‍वामीं पणो जु सिर चढ्यो, सरया न एकौ काम।।2

स्‍वामी हूंणां सोहरा, दोद्धा हूंणां दास।
गाडर आंणी कूं, बांधी चरै कपास।।3

स्‍वांमीं हूवा सीतका, पैकाकार पचास।
राम नांम काठै रह्या, करैं सिषां की आस।।4

कबीर तष्‍टा टोगणीं, लीए फिरै सुभाइ।
राम नांम चीन्‍हैं नहीं, पीतलि ही कै चाइ।।5

कलि का स्‍वामीं लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुबारां यों फिरै, ज्‍यूं हरिहाई गाइ।।6

कलि का स्‍वामीं लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैंहि पईसा ब्‍याज कों, लेखां करतां जाइ।।7

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूं आदर होइ।।8

चारिउ बेद पढ़ाइ करि, हरि सूं न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूंढै खत।।9

ब्रांह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरू नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउं बेदां माहिं।।10

साषित सण का जेवड़ा, भींगां सू कठठाइ।
दोइ अषिर गुरू बाहिरा, बांध्‍या जमपुरि जाइ।।11

पाड़ोसी सू रूसणां, तिल तिल सुख को हांणि।
पंडित भए सरावगी, पांणी पीवें छांणि।।12

पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
फिर‍ि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं।।13

रासि पराई राषतां, खाया घर का खेत।
औरां कौं प्रमोधतां, मुख मैं पड़‍िया रेत।।14

तारा मंडल बैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्‍यूं तारां छिपि जाइ।।15

देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि कै उदै न दीसहीं, बंधै न जल की पोट।।16

तीरथ करि करि मुवा, जुड़े पाणी न्‍हाइ।
रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ।।17

कासी काठैं घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नांव बिन, यौं कहै दास कबीर।।18

कबीर इस संसार कौं, समझाऊं कै बार।
पूछ जू पकडै़ भेड़ की, उतरया चाह पार।।19

कबीर मन फूल्‍या फिरै, करता हूं मैं धर्म।
काटि कम सिरि ले चल्‍या, चेत न देखै भम।।20


अथ शूरातन को अंग

कब‍िरा सोई शूरमां, जिन पांचों राखी चरि।
जिनके पांचूं मोकली, तिनसूं साहब दूर।।1

कबिरा सोई शूरमां, जाके पांचूं हाथ।
जाके पांचूं वश नहीं, तो हरि संग न साथ।।2

गगन दमामा बाजिया, हनहनिया के कान।
शूरां घिरां बधावना, कायर तजिहैं प्रान।।3

घायल की गति और है, औरन की गति और।
लागा बान जो प्रेम का, रहा कबीरा ठौर।।4

ऊंचा तरुवर गगनफल, पक्षी मुआ बिसूर।
अनेक सयाना पचि गया, फल निर्मल पर दूर।।5

दूर भया तो क्‍या भया, शिर दै नियरा होय।
जग लग शिर सौंपे नहीं, कारज सिद्ध न कोय।।6

चित चेतन ताजी करै, लौ की करैं लगाम।
शब्‍द गुरु का ताजना, पहुंचै संत सुजान।।7

हरि घोडा ब्रह्मा कडी, बसाय पीठि पलान।
चांद सुरज दोउ पायडा, चढसी संत सूजान।।8

ढोल दमामा गडगडी, सहनाई औ तूर।
तीनौ निकसि न बाहुरै, साधु सती और शूर।।9

साधु सती और शूरमां, ज्ञानी औ गजदंत।
ऐते निकसि न बाहुरैं, जो युग जाहिं अनंत।।10

साधु सती और शूरमा, कबहुं न फेरें पीठ।
तीनों निकसि जो बाहुरै, ताको मुंह मति दीठ।।11

साधु सती और शूरमां, दई न मारै मूंह।
ये तीनों भागा बुरा, साहबजी की सूंह।।12

साधु सती औ शूरमां, इन पटतर कोई नाहिं।
अगम पंथ को पग धरै, डिगै तो कहां समाहि।।13

साधु सती औ शूरमां, राखा रहै न ओर।
माथा बांधि पताक सों, नेजा घालैं चोर।।14

साधु सती औ सिंह को, ज्‍यों लंघन त्‍यों शोभ।
सिंह न मारै मींडका, साधु न बांधे लोभ।।15

साधु सती और शूरमां, इनकी बात अगाध।
आशा छोडे देहकी, तिनमें अधिका साध।।16

भाव भलका सुरति शर, धर धीरज करतान।
मनकी मूठी जहां लगि, चोट तहांहीं जान।।17

कहै दरबारी बातरी, क्‍यों पावै वह धाम।
शीश उतारै संचरै, नाहिं और को काम।।18

शिर राखे शिर जात है, शिर काटै शिर होय।
उसे बाती दीप की, कटि उजियारा जोय।।19

शीतलता संजोगलै, शूर चढ़ा संग्राम।
अबकै भाजन परत है, शिर साहब के काम।।20

धर सों शीश उतारिके, डारि देह ज्‍यों ढेल।
कोई शूर को सोहसी, घर जाने का खेल।।21

शूरा के तो शिर नहीं, दाता के धन नाहिं।
पतिव्रता के तन नहीं, सुरति बसैं पिय माहिं।।22

दाता के तो धन घना, शूरा के शिर बीस।
पतिबरता के तन सही, पत राखै जगदीस।।23

शीश खिसै सांई लखै, भलवां का असवार।
कदम कबीरा किलकिया, केता किया शुभार।।24

लालच लोभ न मोह मद, एकल भला अनीह।
हरिजन सौरा राम सो, शिर बिन कदै न होय।।25

भागा भली न होयगी, कहा धरोगे पांव।
शिर सोपै सीधा लरौ, काहे करौ कुदाव।।26

भागा भला न होयगी, मुंह मोस घर दूर।
सांई आगै शीसदै, सोच न कीजै शूर।।27

शूरा सन्‍मुख बाहता, कोई न बांधे धीर।
पर दल मोरन रन अटल, ऐसा दास कबीर।।28

शूर सनाह न पहरई, मरता नहीं डराय।
कायर भाजै पीठि दै, शूर मुंडीमुंह खाय।।29

शर सनाह न पहरई, जब रन बाजा तूर।
माथा काटै धर लडै, तब जानीजै शूर।।30

जोग ते जौहर भला, घरी एकका काम।
आठ पहरका जूझना, बिना खंडे संग्राम।।31

खांडा तिसको बाहिये, जो फिरि खांडे की देय।
कायर को क्‍या बाहिये, दांतों तिनका लेय।।32

तीर तुपक बरछी बहैं, बिगसि जायगा चाम।
शूरा के मैदान में, कायर का क्‍या काम।।33

शूरा के मैदान में, कायर का क्‍या काम।
शूरा से शूरा मिलै, तब पूरा संग्राम।।34

शूरा के मैदान में, कायर का क्‍या काम।
कायर भाजै पीठि दै, शूरा करै संग्राम।।35

शूरा के मैदान में कायर बेधा आय।
ना भाजै ना लडि सकै, मनहीं मन पछिताय।।36

शूरा चला संग्राम को, कबहुं न देई पीठ।
आगा चलि पीछा चलै, ताको मुंह मति दीठ।।37

शूरा लरै कमन्‍द ह्वै, धरसों शीहा उतारि।
कहै कबीरा मारा मुआ, कहै जो मारहिं मारि।।38

आगि आंच सहना सुगम, ससगम खंगकी धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन व्‍यवहार।।39

नेह निबाहे ही बनै, सोच बनें न आन।
तन दै मन दै शीस दै, नेह न दीजै जान।।40

बिन पाऊं का पंथ है, मंझि शहर अस्‍थान।
बिकट बाट औघट घनां, पहुंच सन्‍त सुजान।।41

पंच असमाना जब लिया, तब रन धसिया शूर।
दिल सौंपा शिर उॅबरा, मुजरा राम हजूर।।42

रन धसिया ते उॅबरा, आया गरह निंवास।
घरूं बधावा बाजिया, औ जोवन की आस।।43

जब लग धर पर सीस है, शूर कहावै कोय।
माथा टूटै धर लरै, कमद कहावै सोय।।44

शूरन सेंरी ताकई, नेजा घालै घाव।
सब दल पाछा मोड़ि‍ के, माड़ी सेतो चाव।।45

शूरा तौं सांच मतै, सहै जो सन्‍तुख धार।
कायर अनी चुभाय के, पीछै झखै अपार।।46

भाजि कहांलौं जाइये, भय भारी घर दूर।
बहुरि कबीरा खेतरह, दल आया भरपूर।।47

इक मरिवो इक मारिवो, येही विषमा सिद्धि‍।
ता वे कायर मरैंगे, जो चाले तरकस बिद्धि।।48

रन रोही अतिही हुआ, साजन मिला हुजूरि।
शूरा शूरा ठाहरा, भाजिगई भक भूमि।।49

शरा थोराही भला, सतका रोपै पग्‍ग।
घना मिला कहि काम का, सावन का सा बग्‍ग।।50

बसही साथ कलतरो, धीर न बंधै कोय।
भागा पीछे बाहुरे, ठाठ गुसांई सोय।।51

सार बहै लोहा झरै, टूटे जिरह जंजीर।
जम ऊपरि साटैकरी, चढिया दास कबीर।।52

लडने को सबही चला, शस्‍त्रह बांधि‍ अनेक।
साहब आगै आपना, जूझैगा कोई एक।।53

जूझैंगे तब कहैंगे, अब क्‍या कहैं बनाय।
भीर परै मन मसकरा, लडे किधौं भगिजाय।।54

शूरा नाम धराय के, अब क्‍यों डरपै बीर।
मंडि रहिना मैदान में, सन्‍मुख सहना तीर।।55

तीर तुबक सों जो लड, सो तो शूरा नाहिं।
शूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खाहिं।।56

तीर तुबक सों जो लडै, सो तो शूर न होय।
माया तजि हरि को भजै, शूर कहावै सोय।।57

शूरा सोइ सराहिये, अंग न पहरे लोह।
जूझै सब बंद खोलि कै, छांडे तनको मोह।।58

ज्ञान कामना लौ गुनां, तन तरकस मन तीर।
भलका बहै है सारका, मारै हदफ कबीर।।59

कठिन कमान कबीर की, पड़ी रहै मैदान।
केता योद्धा पचि गया, खैंचे संत सुजान।60

बांकी तेग कबीर की, अनी परै द्वै टूक।
मारे मीर महाबली, ऐसी मूठि अचूक।।61

बांका गढ बांका मता, बांकी गढकी पौलि।
कछि कबिरा नीकसा, यम सिर घाली रौलि।।62

कबिरा तोरा मान गढ, लूटी पांचों खान।
ज्ञान कुहाड़ी कर्म बन, काटि किया मैदान।।63

कबिरा तोरा मान गढ, मारा पांच गनीम।
सीस नंवाया धनी को, साधी बड़ी महीम।।64

राम झरोखै बठिके, सबका मुजरा लेय।
जैसी जाको चाकरी, तैसी सबको देय।।65

चोपड़ मांडी चौहटे, अरध उरध बाजार।
कबिरा खेलै रामसों, कबंहु न आवै हार।।66

हारौं तो हरि मान है, जो जीतूं तौ दाव।
पारब्रह्म सों खेलतां, जो शिर जाय तो जाव।।67

खेल जु मांड़ा खिलाडि सौं, आनंद बढा अघाय।
अब पासा काहूपरौ, प्रेम बंधा युग जाय।।68

घटी बढी जानै नहीं, मनमें राखे जीत।
गाडर लडै गयन्‍दसा, देखो उलटी रीत।।69

कूकरा बहु जुरिमुआ, सलसै चढी सियार।
रोवत आवै गदहड़ा, प्रमोधत आय बिलार।।70

मा मारी धी घर करै, गऊ सो बच्‍छा खाय।
ब्राह्मन मारै मदपिये, तो स्‍वर्गापुर जाय।।71

माता मुये एक फल, पिता मुये फल चार।
भाई मूये हानि है, कहैं कबीर बिचार।।72

अचर रचै चर पर रहै, मरै न चारै जाय।
बारह मास बिलोधनां, घूूूमे एकै भाय।।73


अथ अपारख को अंग

चंदन गया विदेसड, सब कोई कहै पलास।
ज्‍यों ज्‍यों चूल्‍हे झांकिया, त्‍यों त्‍यों अधिकी बास।।1

चंदन रोया रात भरि, मेरा हित्त न कोय।
जिसने राख्‍यो पेट में सो फिर बैरी होय।।2

चंदन काटा जड खनी, बांधिलिया शिर मार।
कालि जा पंछी बसि गया, तिसका यह उपकार।।3

पांय पदारथ पेलिया, कांकर लीन्‍हां हाथ।
जोडी बिछुरी हंस की, चला वुंगा के साथ।।4

हंसा तो महाराणा का, आया थलियां माहिं।
बगुला करि करि मारिया, मरम जो जानै नाहिं।।5

हंस बुगांके पावना, कोइक दिन का फेर।
बगुला कहा गरबिया, बैठा पंख बिखेर।।6

बगुला हंस मनाइलै, नीरां रूकां बहोर।
या बैठा तू ऊजला, तासों प्रीति न तोर।।7

एक अचंभो देखिया, हीरा हाट बिकाय।
परखन हारा बाहरी, कौड़ी बदलै जाय।।8

पायो पर पायो नहीं, हीरा हड्डी मार।
कहे कबीर योंही गयो, परखे बिना गंवार।।9

कबिर चुनता कन फिरै, हीरा पाया बाट।
ताको मरम न जानिया, ले खलि खाई हाट।।10

हीरा को कछु ना घटा, घट जो बेचन हार।
जन्‍म गमायो आपनौ, अंधे पशू गंवार।।11

हिरदै हीरा ऊपजै, नाभि कमल के बीच।
जो कबहूं हीरा लखै, तो कदे न आवै मीच।।12

हीरा हरि को नाम है, हिरदै भीतर देख।
बाहर भीतर भरि रहा, ऐसा आप अलेख।।13

बाद बके दमजात है, सरति निरति लै बोल।
नित प्रति हीरा शब्‍द का, गाहक आगै खोल।।14

मान उनमान तोलिये, शब्‍द का मोल न तोल।
मूरख लोग न जानहीं, आपा खोयो बोल।।15

कबिरा गदरी बीखरी, सौदा गया बिकाय।
खोटा बांधा गांठरी, खरा लिया नहिं मोल।।16

राम रतन धन पाइकै, गांठ बांधि ना खोल।
नहीं पटन नहिं पारखी, नहिं ग्राहक नहिं मोल।।17

राम रतन धन मुक्ति में, खान खुली घट माहिं।
सेतमेतही देतहों, ग्रोहक कोई नाहिं।।18

जहं गाहक तह मैं नहीं, हौं तहां गांहक नाहिं।
परिचय बिन फूला फिरै, पकरि शब्‍द की बांहि।।19

पियासों परिचय नहीं, दादा रहि गा दूर।
लल्‍ला लौ लागी रहै, नन्‍ना सदा हजूर।।20

कबिरा खांडहि छांडि कै, कांकर चुनि चुनि खाय।
रत्‍न गंवाया रेत में, फिर पाछै पछिताय।।21

पडे मोती बीखरा, आधा निकरा आय।
ज्‍योति बिना जगदीश की, जगत उलांडा जाय।।22

कबिरा ये आंधरा, जैसी अंधी गाय।
बछरा था सो मरि गया, ऊभी चाम चटाय।।23

सागर में मानिक बसै, चीन्‍हत नाहीं कोय।
या मानिक कों सो लखे, जाको गुरुगम होय।।24

अनजाने का कूकना, कूकर कासा शोर।
ज्‍यों अंधियारी रैन में, साह न चीन्‍हें चोर।।25

मैं भारन सब ज्ञानिया, कथत बकत दिन जाय।
साह चोर चीन्‍है नहीं, कागा हंस लगाय।।26

हंस काग की पारिखा, सतगुरु दई बताय।
हंसा तो मोती चुगैं, काग नरक परिजाय।।27

अपने अपने सिर पर सबहिन लीन्‍हा मानि।
हरि की बात दुर्लभ अहै, काह परी न जानि।।28


अथ विनती को अंग

बिनवत हूं कर जोरि कै, सुनु गुरु कृपा निधान।
संतन में सुख दीजिये, दया गरीबी ज्ञान।।1

कबिरा करता है बीनती, सुनौ संत चितलाय।
मारग सिरजनहार का, दीजै मोहिं बताय।।2

कबिरा करत है बीनती, भवसागर के तांइ।
बंदे पर जोरा होत है, यम को बरजु गुसांइ।।3

सांई तेरे जोर जुलम है, मेरा होय अकाज।
बिरद तुम्‍हारो लाजि है, शरण परे की लाज।।4

क्‍या मुख ले बिनती करूं, लाज आवत है मोहि।
तुम देखत अवगुन किया, कैसे भाऊं तोहि।।5

बनजारी बिनती करै, नरियल लायी हाथ।
बाडा था सो लदि गया, नायक नाहीं साथ।।6

तुझ में औगुन तुझहि गुन, तुझ गुन औगुन मुझ।
जो मैं विसरूं तुझकौं, तू मति बिसरै मुझ।।7

साहब तुम जनि बीसरौ, लाख लोग मिलिहाहिं।
हमसे तुमकूं बहुत हैं, तुमसे हमको नाहिं।।8

तुम्‍हे बिसारे क्‍यों बनै, मैं किस शरने जाउं।
शिव विरंचि मुनि नारदा, तिनके हृदय न समाउं।।9

कबिरा भूलि बिगारिया, तू ना कर मैला चित्त।
साहब गरुवा चाहिये, नफर बिगारो नित्त।।10

कबिरा भलि बिगारिया, करि करि मैला चित्त।
नफर भि एसा चाहिये, साहब से राखै हित्त।11

औगुन किया तो बहु किया, करत न मानी हारि।
भावै बंदा बखशियो, भावै गरदन मारि।।12

औगुन मेरा बापजी, बखशो गरीब निवाज।
जो मैं पूत कपूत हों, तोहि पिता कों लाज।।13

सांई केरा बहत गुन, औगन कोई नाहिं।
जो दिल खोजों आपना, तो सब औगन मुझ माहिं।।14

मुझ में गुन एकौ नहीं, जान राय शिर मौर।
तेरे नाम प्रताप सों, पाऊं आदर ठौर।।15

मैं खोटा सांई खरा, मैं गाधा मैं गार।
मैं अपराधी आतमा, सांई शरन उबार।।16

मैं अपराधी जनम का, नख शिख भरो बिकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो संभार।।17

सुरति करौ मम साइयां, हम हैं भवजल माहि।
आपही मर जांयंगे, जो नहिं पकरो बाहिं।।18

और पतित तो कूप है, मैं हों समुद्र समान।
मोहिं टेक तोह नाम की, सुनियो कृपा निधान।।19

औसर बीता अल्‍पतन, पीव रहा परदेश।
कलंक उतारो रामजी, भानो भरम अंदेश।।20

सांई मेरा सावधान, मैं ही भया अचेत।
मन बच करम न हरि भजा, ताते निष्‍फल खेत।।21

अबकी जो सांई मिलै, सब दुख आंखो रोइ।
चरणों ऊपर शिर धरों, कहूं जो कहना होइ।।22

कबिरा सांई तो मिलैंगे, पूछंगे कुशलात।
आदि अंत की सब कहूं, उर अंतर की बात।।23

अंतरजामी एक तूं, आतम के आधार।
जो तुम छांड़ो हाथ तो, कौन उतारै पार।।24

भवसागर भारी भया, गहरा अगम अथाह।
तुम दयाल दाया करो, तब पाऊं कछु थाह।।25

सतगुरु बड़े दयाल हैं, संतन के आधार।
भवसागर अथाह सों, खेइ उतारै पार।।26


अथ ऐक्‍यता को अंग

अलख इलाही एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परो मति कोय।।1

राम रहीमा एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरमि परौ मति कोय।।2

काशी काबा एक है, एकै राम रहीम।
मैदा इक पकवान बहु, बैठि कबीरा जीम।।3

एक वस्‍तु के नाम बहु, लीजै वस्‍तु पहिचान।
नाम पक्ष नहिं कीजिये, सार तत्त्‍व ले जान।।4

नाम अनन्‍त जो ब्रह्म का, तिनका वार न पार।
मन मानै सौ लीजिये, कहै कबीर बिचार।।5

सब काहू का लीजिये, सांचा शब्‍द निहार।
पक्षपात ना कीजिये, कहै कबीर बिचार।।6

राम कबीरा एक है, दूजा कबहु न कोय।
अंतर टाटी कपट की, ताते दीखे दोय।।7

राम कबीरा एक है, कहन सुनन को दोय।
दो करि सोई जानई, सतगरु मिला न हाय।।8

हरि का बना स्‍वरूप सब, जेता यह आकार।
अक्षर अर्थ यों भाषिये, कहै कबीर बिचार।।9

देखनही की बात है, कहने को कछु नाहिं।
आदि अंत को मिलि रहा, हरिजन हरिही माहिं।।10

नगर चन तब जानिये, जब एकै राजा होय।
याहि दुराजी राज में, सुखी न देखा कोय।।11

सबै हमारे एकहैं, जो सुमिरै हरि नाम।।
वस्‍तु लही पहिचान कै, बासन सों क्‍या काम।।12


अथ बेहद को अंग

कांसे ऊपर बीजुरी, परै अचानक आय।
तात निर्भय ठीकरा, सतगुरु दिया बताय।।1

हद्द छांड‍ि बेहद गया, लिया ठीकरा हाथ।
भया भिखारी दीन का, दर्शन भया सनाथ।।2

हद्द छांडि बेहद गया, अबरन किया मिलान।
दास कबीरा मिलि रहा, सो कहिये रहमान।।3

बेहद बिचारौ हद तजौ, हद तजि मेलो आस।
सबै अलिंगन मेटिकै, करौ निरन्‍तर वास।।4

निरन्‍तर बासी निरमला, शून स्‍थूल सो निनार।
पूरब गंगा पश्चिम बहावै, पेखे बहु उजियार।।5

बेहद्द अगाधी पीव है, ये सब हदके जीव।
जे नर राते हद्दसो, ते कदी न पावै पीव।।6

हदमें पीव न पाइये, बेहद में भरपूर।
हद बेहद की गम लखै, तासौं पीव हजूर।।7

हद बंधा बेहद रमैं, पल पल देखै नूर।
मनवा तहां ले राखिया, जहां बाजै अनहद तूर।।8

हद्द मांहि हदका घनां, लीया जीव तुराय।
रिगसि बिगसि बेहद गया, मरै न आवै जाय।।9

हद छांडि बेहद गया, रहा निरन्‍तर होय।
बेहद के मैदान में, रहा कबीरा सोय।।10

हद्द छाडि बेहद गया, तासों राम हजूर।
पारब्रह्म परचा भया, अब नियरे तब दूर।।11

हद में बैठा कथन है, बेहद की गम नाहिं।
बेहद की गम होयगी, तब कछु कथना काहि।।12

कबिरा हद के जीव सों, हित करि मुखै न बोल।
जो राचे बेहद सों, तिनसों अन्‍तर खोल।।13

हदिया सेतो हद रहो, बेहदिया बेहद।
जो जैसा तहा रोगिया, तहा तैसी औषद।।14

हद में रहैं सो मानवी, बेहद रहै सो साध।
हद बेहद दोनों तजैं, तिनका मता अगाध।।15

हद बेहद दोनों तजी, अबरन किया मिलान।
कहै कबीर ता दास पर, वारों सकल जहान।।16

अगह गह अकह कहै, अनभेदा भेद लहाइ।
अनभै बाणी आगम की, लेगई संग लगाइ।।17

जहां शोक ब्‍यापै नहीं, चल हंसा उस देस।
कहै कबीर गुरगम गहो, छांडि सकल भ्रम भेस।18

अंग अठोत्तरसौ कहा, परम पुरुष उपदेश।
कहै कबीर अब हरि मिलै, मानौं साख संदेश।।19

जन कबीर बंदन करै, किस विधि कीजै सेव।
बार पार की गम नहीं, नमो नमो निज देव।।20


अथ मांसाहारी को अंग

मांस अहारी मानवा, प्रत्‍यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।1

मांस खाये ते ढेड़ सब, मद पीवै सा नीच।
कुल की दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।2

मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।3

मांस मछलिया खात हैं, सुरापान सों हेत।
ते नर नरकै जांहिंगे, ज्‍यों मूरी का खेत।।4

मांस भखै औ मद पिये, धन वेश्‍या सों खाय।
जूआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।।5

मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
आंखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।।6

यह कूकर को भक्ष है, मनुष्‍य देह क्‍यों खाय।
मुख में आमिख मेलिके, नरक परते जाय।।7

ब्राह्मन राजा बरन का, और पवनी छत्तीस।
रोटी ऊपर माछली, सब बरन भये खबीस।।8

कलियुग केरा ब्राह्मना, मांस मछलिया खाय।
पांय लगे सुखमानई, राम कहे जारि जाय।।9

पापी पूजा बैठिकै, भखे मांस मद दाइ।
तिनकी दीक्षा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होई।।10

सकल बरन एकत्र ह्व, शक्ति पजि मिलि खाहि।
हरि दासन की भ्रांति करि, केवल जमपुर जाहिं।।11

विष्‍ठा का चौका दिया, हांडी सीझै हाड।
छूति बचवै चास की, तिनहूं का गुरु राड।।12

जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
पाप सबै जो देखिया, पुन्‍य न देखा कोय।।13

जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्‍त गया नहिं कोय।।14

हत्‍या सोही हन्‍नसी, भावै जानि बिजान।
कर गहि चोटी तानसी, साहब के दीवान।।15

तिलभर मछली खाय के, कोटि गऊ दै दान।
काशी करात लै मरै, तो भी नरक निदान।।16

काटि कटि जबह करै, या पाप संग का भेस।
निश्‍च राम न जानही, कहै कबीर संदेस।।17

बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल।।18

आठ बाट बकरी गई, सांस मुलां गये खाय।
अजहूं खाल खटीकै, भीस्‍त कहांते जाय।।19

अंडा किन बिसमिल किया, घुन किया किन हलाल।
मछली किन जबह करी, सब खाने का ख्‍याल।।20

मुल्‍ला तझै करीम का, कब आया फरमान।
घट फोरा घर घर किया, साहब का नीसान।।21

काजी का बेटा मुआ, उरमैं सालै पीर।
वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।।22

पीर सबन को एकसी, मूरख जानैं नाहिं।
अपना गला कटायक, भिश्‍त बसै क्‍यों नाहिं।।23

मुरगी मुल्‍ला सों कहै, जबह करत है मोहिं।
साहब लेखा मांगसी, संकट परिहै तोहिं।।24

कबिरा काजी स्‍वाद बस, जीव हते तब दोय।
चढ़‍ि मसीत एको कहै, क्‍यों दरगह सांचा होय।।25

काजी मुल्‍लां भरमिया, चले दुनी के साथ।
दिल सो दीन निवारिया, करद लई तद हाथ।।26

काला मुंह करि करद का, दिल सूं दई निवार।
सब सूरति सुबहान की, अहमक मुला न मार।।27

जोरी करि जबह करै, मुखसों कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।28

जोर कीयां जुलूम है, मागै ज्‍वाब खदाय।
खलिक दर खूनी खड़ा, मार मुही मुंह खाय।।29

कबिरा साई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बपीर।। 30

  
हेत प्रीति सनेह को अंग

कमोदनीं जलहरि बसै, चंदा बसे अकासि।
जो जाही का भावता, सो ताही कै पास।।1

कबीर गुर बसै, बनारसी, सिष समंदां तीर।
बिसारया नहीं बीसरै, जै गुंण होई सरीर।।2

जो है जाका भावता, जदि तदि म‍िलसी आइ।
जाकौं तन मन सौंपिया, सो कबहूं छाड़ी न जाइ।।3

स्‍वामी सेवक, एक मत, मन ही मैं म‍िलि जाइ।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन कै भाइ।।4